सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 132: आदेश 21 नियम 90 के प्रावधान

Shadab Salim

20 Feb 2024 6:56 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 132: आदेश 21 नियम 90 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 90 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

    नियम-90 विक्रय को अनियमितता या कपट के आधार पर अपास्त कराने के लिए आवेदन- (1) जहाँ किसी डिक्री के निष्पादन में किसी स्थावर सम्पत्ति का विक्रय किया गया है वहाँ डिक्रीदार, या क्रेता, या ऐसा कोई अन्य व्यक्ति जो आस्तियों के आनुपातिक वितरण में अंश पाने का हकदार है या जिसके हित विक्रय के द्वारा प्रभावित हुए हैं, विक्रय को उसके प्रकाशन या संचालन में हुई तात्विक अनियमितता या कपट के आधार पर अपास्त कराने के लिए न्यायालय से आवेदन कर सकेगा।

    (2) उसके प्रकाशन या संचालन में हुई अनियमितता या कपट के आधार पर कोई भी विक्रय तब तक अपास्त नहीं किया जायेगा जब तक साबित किए गए तथ्यों के आधार पर न्यायालय का यह समाधान नहीं हो जाता है कि ऐसी अनियमितता का कपट के कारण आवेदक को सारवान क्षति हुई है।

    (3) इस नियम के अधीन विक्रय को अपास्त कराने के लिए कोई आवेदन ऐसे किसी आधार पर ग्रहण नहीं किया जायगा जिसे आवेदक उस तारीख को या उससे पूर्व आधार मान सकता था जिसको कि विक्रय की उद्घोषणा तैयार की गई थी।

    स्पष्टीकरण - विक्रीत सम्पत्ति की कुर्की का न होना या कुर्की में त्रुटि अपने आप में इस नियम के अधीन किसी विक्रय को अपास्त करने के लिए कोई आधार नहीं होगी।

    आदेश 21, नियम 90 में विक्रय में हुई अनियमितता या कपट के आधार पर उसे अपास्त कराने के लिए आवेदन करने की व्यवस्था की गई है।

    स्थावर सम्पत्ति का नीलाम-विक्रय-यह नियम किसी डिक्री के निष्पादन में किसी स्थावर (अचल) सम्पत्ति के विक्रय होने पर लागू होता है।

    अनियमितता या कपट का आधार- उस विक्रय को उसके प्रकाशन या संचालन में हुई (1) तात्विक अनियमितता या (2) कपट के आधार पर अपास्त कराने के लिए आवेदन किया गया है।

    आवेदन कौन कर सकता है। (1) डिकीदार, या (2) क्रेता या (3) आनुपातिक वितरण में हिस्सा पाने का हकदार व्यक्ति या (4) हितधारी, जिसके हित इस विक्रय से प्रभावित हुए हैं।

    सारवान् क्षति होना आवश्यक-ऐसे आधार पर कोई विक्रय तभी अपास्त किया जा सकेगा जब उसके कारण आवेदक को हुई सारवान् क्षति (substantial injury) के बारे में न्यायालय को सन्तोष हो जाये।

    आवेदन का वर्जन-विक्रय को उ‌द्घोषणा तैयार की जाने को तारीख को या उससे पहले जिसे आवेदक ऐसा आधार बना सकता था और फिर भी उसने उस समय उस पर आक्षेप नहीं किया, तो बाद में वह आवेदक ऐसे आधार पर आवेदन नहीं कर सकता है। ऐसा आवेदन ग्रहण नहीं किया जाएगा। इस प्रकार यह एक वर्जन जंन (निषेध) का उपबन्ध किया गया है।

    कुर्की का न होना या कुर्की में त्रुटि आधार नहीं- (स्पष्टीकरण) - यदि बिक्रीत सम्पत्ति की पहले कुर्की नहीं की गई या उसको कुर्की में कोई त्रुटि या दोष रह गया, तो ऐसे आधार या कारण से विक्रय को अपास्त नहीं किया जायेगा।

    नीलामी द्वारा विक्रय को अपास्त कराने हेतु आवेदन 60 दिन बाद किया गया। इसे अवधि बाधित माना गया।

    धारा 47 तथा आदेश 21, नियम 90 में अन्तर-विक्रय में अनियमितता का आरोप नियम 90 लागू होगा, न कि धारा 47

    एक वाद में निष्पादन न्यायालय को अपीलार्थी के परिवाद में सार दिखाई पड़ा और उसने यह अभिनिर्धारित करते हुए कि विक्रय-उद्घोषणा तात्विक अनियमितताओं के कारण दूषित है, विक्रय अपास्त कर दिया। प्रत्यर्थी ने उच्च न्यायालय में उस आदेश के विरुद्ध 1975 की सिविल प्रकीर्ण अपील संख्या 386 फाइल की। दो अन्य अपीलें 1976 की सिविल प्रकीर्ण अपीलें संख्या 2 और 3 भी उच्च न्यायालय में फाइल की गई। वे, उन दो आवेदनों के खारिज किए जाने से उत्पन्न हुई थीं, जिनमें से एक, कब्जे के लिए किए गए आवेदन के प्रत्यावर्तन के लिए था और दूसरा बाधा हटाने के लिए था। वे दोनों आवेदन विक्रय के अपास्त किए जाने के परिणामस्वरूप इस आधार पर खारिज कर दिए गए थे कि वे व्यर्थ हो गए हैं।

    उच्च न्यायालय ने अपीलार्थी द्वारा फाइल की गई तीनों अपीलों पर विचार किया और इन परिस्थितियों में विक्रय अपास्त करने वाले आदेश के विरुद्ध की गई अपील को मुख्य अपील के रूप में माना। उच्च न्यायालय ने जिस मुख्य प्रश्न का अवधारण किया, वह यह था कि क्या विक्रय पर किया गया आक्षेप धारा 47 के अधीन या आदेश 21 के नियम 90 के अधीन की जाने वाली कार्यवाही का विषय उचित रूप से हो सकता है।

    इस मुद्दे से सम्बन्धित अनेक मामलों की जांच करने के बाद, उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विक्रय अपास्त करने के लिए जो आवेदन किया गया था, वह आदेश 21 के नियम 90 के अधीन, न कि धारा 47 के अधीन, किया जाना चाहिए और इसी कारण से उसने इन अपीलों पर नए सिरे से विचार करने के लिए उन्हें निष्पादन न्यायालय के पास वापस भेज दिया।

    हमें ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय का मत ठीक है। यह है कि अपीलार्थी ने बिन त्रुटियों के होने के सम्बन्ध में परिवाद किया है, वे विक्रय उपोषणा स्थिर करने में की गई अनियमितताएं मात्र है। उन्हें ऐसी त्रुटियों के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता जो कि विक्रय को शून्य बना देती हैं। उस त्रुटि के जो कि किसी कार्यवाही को शून्य बनाती है और उस त्रुटि के जो कि केवल उसे अनियमित बनाती है, बीच जो अन्तर है, उसे इस न्यायालय ने बीरेन्द्र नाथ गोराई और सुबालचन्द्र शा और अन्य बनाम सुधीर चन्द्र घोष और अन्य वाले मामले में स्पष्ट किया गया है।

    वे अपेक्षाएं जिनका अनुपालन उस समय नहीं किया गया था जब कि विक्रय उद्‌घोषणा स्थिर की गई थी, अपीलार्थी के फायदे के लिए आशक्ति भी और उसके द्वारा उनका अधित्यजन नहीं किया जा सकता था। वे ऐसे विषय नहीं थे जो न्यायालय की अधिकारिता के लिए महत्वपूर्ण हैं और उस कार्यवाही की बुनियाद या परिणाम का कार्य करते हैं या जिसमें लोक हित अर्थस्त है। स्पष्टतः, वे मात्र अनियमितताएं थीं। अत: वे आदेश 21 के नियम 90 की परिधि के भीतर आती है।

    यह बात बताई जा सकती है कि जब आदेश 21 के नियम 90 में विक्रय के प्रकाशन या संचालन में अभिव्यक्ति का उपयोग किया गया है, तो उससे ऐसी कार्यवाही परिकल्पित है जो कि आदेश 21 के नियम 64 के अधीन विक्रयार्थ किए गए आदेश के बाद प्रारम्भ की गई हो। नियम 64 के बाद उपबन्ध ऐसे उपबंध हैं जो कि विक्रय के प्रकाशन और संचालन से सर्वापत है। विक्रय की उद्‌घोषणा स्थिर करना विक्रय के प्रकाशन के लिए की जाने वाली कार्यवाही का भाग है।

    आदेश 21 के नियम 65 यह घोषित करता है कि डिक्री के निष्पादन में किए जाने वाला हर विक्रय, न्यायालय के अधिकारी द्वारा या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति द्वारा जिसे न्यायालय इस निमित नियुक्त करे, संचालित किया जाएगा और लोक नीलामी द्वारा विहित रीति से किया जाएगा। यह बात कि विक्रय किस प्रकार किया जाएगा, उस रीति से संबंधित है जिससे विक्रय किया गया है। आदेश 21 का नियम 16 उस संबंध में पहला कदम है। उसने विक्रय की उद्‌घोषणा लेखबद्ध की जा रही हो, तो नियम का उपनियम (2) यह अपेक्षा करता है कि उसमें विनिर्दिष्ट अनेक बातें ध्यान में रखी जानी चाहिए। विक्रय से सम्बन्धित अन्य विशिष्टियां आदेश 21 के उत्तवर्ती नियमों में विहित है।

    हमारी दृष्टि से विक्रय की उद्‌घोषणा का स्थिर करना विक्रय के प्रकाशन की महत्वपूर्ण प्रक्रिया का भाग है और विक्रय की उद्‌घोषणा को स्थिर करने की प्रक्रिया में की गई अनियमितताएं ऐसी अनियमितताएं हैं जो कि आदेश 21 के नियम 90 की परिधि के भीतर आती हैं। यह मत व्यक्त किया जा सकता है कि वरिन्द्र नागिराई वाले मामले में जिस मत पर न्यायालय से विचार करने की प्रार्थना की गई थी, वह यह था कि बंगाल मनी लैण्डर्स एक्ट, 1940 की पारा 15 का अनुपालन उस समय जब कि विक्रय की उद्‌घोषणा लेखबद्ध की जा रही हो, मात्र अनियमित था।

    लम्बित वाद का विनिश्चय होने तक डिक्री के निष्पादन का रोका जाना-

    निष्पादन को रोक देने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि डिक्रीदार की ओर से निर्णीत-ऋणी के विरुद्ध निष्पादन तथा निर्णीत-ऋणी की ओर से डिक्रीदार के विरुद्ध वाद, दोनों प्रकार की कार्यवाहियां एक ही न्यायालय में एक ही समय पर लम्बित हो। उसी न्यायालय में लम्बित होने के अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि ऐसा वाद उसी न्यायालय की डिक्री के डिक्रीदार के विरुद्ध हो जहां विक्रय को कतिपय अवैधता के आधार पर शून्य ठहराने का दावा किया जाए अथवा आदेश 21 के नियम 90 में विनिर्दिष्ट तात्विक अनियमितताओं के आधार पर शून्यकरणीय घोषित करने का दावा किया जाए वहां धारा 47 का आश्रय लेना होगा और आदेश 21 का नियम 90 लागू नहीं होगा और जहां आवेदन आदेश 21 के नियम 90 के अधीन नहीं आता वहां आवेदक के लिए यह दर्शित करना आवश्यक नहीं है कि उसे विहित प्रक्रिया के अनुपालन के कारण सारवान् क्षति पहुंची है।

    इस मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आदेश 21, नियम 72(3) के अधीन विक्रय अपास्त कराने का आवेदन आदेश 21, नियम 90 के अधीन आवेदन से भिन्न था। पहला तात्विक क्षति का निर्देश करता है, जबकि दूसरा नहीं। भाषा में इस मूल अन्तर को देखते हुए, जब दो भिन्न आवेदनों के लिए उपबंध करते हुए दो भिन्न उपबन्ध थे तो उनकी तुलना करने या एक के प्रतिबंधों या सीमाओं को दूसरे में आयातित करने का कोई औचित्य नहीं है।

    आदेश 21, नियम 72 कहता है कि न्यायालय की स्पष्ट अनुज्ञा के बिना कोई डिक्रीदार निष्पादन में सम्पत्ति की बोली नहीं लगायेगा या उसे नहीं खरीदेगा। इस प्रकार अनुज्ञा (परमिशन) प्राप्त करना आदेशात्मक (अनिवार्य) था। डिक्रीदार जो इस आदेशात्मक अपेक्षा का उल्लंघन करता है, उसे अपनी स्वयं की अवैधता का लाभ उठाने और निर्णीतऋणी या सम्पत्ति में हित रखने वाले किसी अन्य व्यक्ति को जो विक्रय को अपास्त करने के लिए आवेदन करता है, बुलाकर यह स्थापित करने के लिए कहने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि ऐसे आवेदक को तात्विक क्षति हुई है।

    कपट या अवैधता से तात्विक-क्षति (हानि) साबित करना आवश्यक- यदि निम्नतर दोनों न्यायालयों का यह एक समान निर्णय है कि निर्णीतऋणी कपट या अवैधता का आरोप प्रमाणित नहीं कर सका, तो उसमें उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

    रोलाम उद्‌घोषणा में अनियमितता या कपट का विक्रय पर प्रभाव-जब तक यह साबित न कर दिया जाए कि प्रशस्त अनियमितता या कपट के कारण आवेदक को तात्विक हानि उठानी पड़ी है, तब तक ऐसी अनियमितता या कपट विक्रय को दूषित नहीं कर सकता।

    नियम के परिक्षेत्र के बाहर के प्रश्न जब नियम लागू नहीं होता- निम्नलिखित प्रश्नों को इस नियम के बाहर होने से इस नियम के अधीन कार्यवाही में नहीं उठाया जा सकता-

    क्या डिक्री निर्णीत-ऋणी को समन की तामील कराये बिना प्राप्त की गई जिसकी सम्पत्ति निष्पादन में बेच दी।

    क्या वाद-सम्पत्ति विक्रय के पहले भूमि सुधार कानून के अधीन सरकार में निहित हो गई थी।

    क्या विक्रय स्थगित किए जाने के बाद किया जाने से अवैध है।

    क्या डिक्री कपट द्वारा प्राप्त की गई थी।

    क्या न्यायालय को उस सम्पत्ति को बेचने की अधिकारिता है।

    क्या उक्त विक्रय-नीलामी शून्य है।

    आवेदक कौन कर सकता है-

    इस नियम के अधीन केवल निम्न व्यक्ति आवेदन कर सकते हैं (1) डिक्रीदार या (2) क्रेता, या (3) ऐसा कोई अन्य व्यक्ति जो आस्तियों के आनुपातिक वितरण में अंश पाने का हकदार है, या (4) जिसके हित विक्रय के द्वारा प्रभावित हुए हैं।

    कोई व्यक्ति जिसके हित विक्रय के द्वारा प्रभावित हुए हैं जहां कोई आवेदन डिक्रीदार या अन्य व्यक्ति जो आस्तियों के आनुपातिक वितरण का हकदार है, के अलावा किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया गया है, तो ऐसा व्यक्ति एक वह व्यक्ति होगा जिसके हित विक्रय के द्वारा प्रभावित हुए हैं। कलकता उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के द्वारा इस निर्णय के अनुसार 1976 में इस नियम में उक्त शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

    नीलामी में की गई बिक्री को अपास्त करना प्रभावित होने वाले व्यक्तियों का अर्थ- जब निर्णीत-ऋणी ने नीलामी के पहले ही उस सम्पत्ति को बेच दिया, तो निर्णीत-ऋणी ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता, जिसका हित प्रभावित हुआ था।

    ऐसी स्थिति में नीलामी से प्राप्त प्रतिफल (राशि) अपर्याप्त है, यह उस बिक्री को अपास्त करने का कोई आधार नहीं है, विशेष रूप से, जबकि इससे निर्णीत ऋणी को कोई तात्विक क्षति नहीं हो रही है।

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