सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 130: आदेश 21 नियम 84, 85 व 86 के प्रावधान

Shadab Salim

19 Feb 2024 8:22 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 130: आदेश 21 नियम 84, 85 व 86 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 84,85 एवं 86 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-84. क्रेता द्वारा निक्षेप और उसके व्यतिक्रम पर पुनर्विक्रय-

    (1) स्थावार सम्पत्ति के हर विक्रय पर वह व्यक्ति जिसका क्रेता होना घोषित किया गया है, अपने क्रयधन की रकम के पच्चीस प्रतिशत का निक्षेप विक्रय का संचालन करने वाले अधिकारी या अन्य व्यक्ति को ऐसी घोषणा के तुरन्त पश्चात् देगा और ऐसा निक्षेप करने में व्यतिक्रम होने पर उस सम्पत्ति का तत्क्षण फिर विक्रय किया जाएगा।

    (2) जहां डिक्रीदार क्रेता है और क्रयधन को नियम 72 के अधीन मुजरा करने का हकदार है वहां न्यायालय इस नियम की अपेक्षाओं से अभिमुक्ति दे सकेगा।

    नियम-85 क्रयधन के पूरे संदाय के लिए समय- क्रयधन की संदाय पूरी रकम को क्रेता इसके पूर्व कि सम्पत्ति के विक्रय से पन्द्रहवें दिन न्यायालय बन्द हो, न्यायालय में जमा कर देगा: परन्तु न्यायालय में ऐसे जमा की जाने वाली रकम की गणना करने में क्रेता किसी भी ऐसे मुजरा का फायदा उठा सकेगा जिसका वह नियम 72 के अधीन हकदार हो।

    नियम-86 संदाय में व्यतिक्रम होने पर प्रक्रिया- अन्तिम पूर्ववर्ती नियम में वर्णित अवधि के भीतर संदाय करने में व्यतिक्रम होने पर निक्षेप, यदि न्यायालय ठीक समझे तो विक्रय के व्ययों को काटने के पश्चात् सरकार को समपहृत किया जा सकेगा और सम्पत्ति का फिर से विक्रय किया जाएगा और उस सम्पत्ति पर या जिस राशि के लिए उसका तत्पश्चात् विक्रय किया जाए उसके किसी भाग पर व्यतिक्रम करने वाले क्रेता के सभी दावे समपहृत हो जाएंगे।

    नियम 84 में बोली समाप्त हाने पर सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को क्रेता घोषित किया जाएगा।

    इस घोषणा के तुरन्त बाद में, उस क्रेता को क्रयधन (कीमत) की पच्चीस प्रतिशत राशि विक्रयकर्त्ता अधिकारी को जमा करानी होगी।

    ऐसे राशि जमा कराने में चूक होने पर उसी समय दुबारा विक्रय किया जाएगा। परन्तु यदि डिक्रीदार स्वयं ही क्रेता है, तो न्यायालय नियम 72 के अधीन मुजरा करने के बाद उसे इस नियम की शर्तों से मुक्त कर सकेगा।

    जब सक्षम सिविल न्यायालय के आदेश से किसी सम्पत्ति को नीलाम किया जाता है, तो सिविल प्रक्रिया संहिता में दिये गये प्रावधानों का पालन करना आवश्यक हैं चाहे उक्त प्रावधान आदेशात्मक हो या निदेशात्मक, यदि विक्रय की वैधता पर कोई आपत्ति करता है तो न्यायालय उस पर विचार कर निर्धारण करें।

    निक्षेप (जमा) कराने में असफलता-पुनर्विक्रय- यदि नीलाम क्रेता क्रय राशि की पच्चीस प्रतिशत पहली बार तथा शेष (बकाया राशि निश्चित अवधि के भीतर जमा कराने में चूक करता है, तो विक्रय की कार्यवाही पूर्णतः अकृतता (शून्य) होगी और सम्पत्ति का पुनर्विक्रय (दुबारा विक्री) करना होगा।

    नीलाम-विक्रय का सम्पूर्ण (पूत/complete) होना - एक निष्पादन-विक्रय तब तक सम्पूर्ण नहीं होता, जब तक कि बोली को स्वीकार नहीं कर लिया जाय और नियम 84 के अधीन निक्षेप (जमा) का संदाय (भुगतान) नहीं कर दिया जाय। जहां विक्रय-मूल्य डिक्री की राशि से अधिक है, तो डिक्रीदार को अधिक राशि का 25 प्रतिशत जमा कराना होगा, न कि सम्पूर्ण विक्रय मूल्य' जहां बंधकिती न्यायालय द्वारा नीलाम में अपने स्वयं के पक्ष में बंध के अधीन रहते हुए आडमान (hypothecate) को खरीद करता है, तो उसे कुछ उसके बन्धक पर देय है उस राशि को काटकर शेष राशि जमा करानी होगो।

    तुरन्त का अर्थ-मदास उच्च न्यायालय ने इस शब्द का अर्थ किया है- उतना शीघ्र जितना परिस्थितियाँ अनुध्यात करें। यथोचित समय के भीतर करे। जब सम्पत्ति तुरन्त नहीं बेची गई, तो दोषी क्रेता को ओर ऐसे पुनर्विक्रय के परिणाम से हुई हानि का कोई दायित्व नहीं है। नीलामी में उच्चतम बोली लगाने वाला, जिसने निक्षेप (जमा) राशि का एक भाग बोली लगाने के दिन दे दिया हो और बकाया राशि दूसरे दिन देनी हो, इसे तुरन्त भुगतान करना (देना) समश जा सकता है।

    यह उपबंध आज्ञापक है और विक्रय आयोजित करने वाले प्राधिकारी को सम्पत्ति के पुनः विक्रय करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है-प्राधिकारी को राशि जमा कराने की तारीख को बढ़ाने की अधिकारिता भी नहीं है। निर्णीत-ऋणी के लिए निष्पादन न्यायालय या विक्रय करने वाले अधिकारों का ध्यान क्रेता की ओर से से नीलाम में को गई कमियों को ओर आकृष्ट करने के लिए आक्षेप फाइल करने की भी आवश्यकता नहीं है।

    शब्द तुरन्त को इस मामले के संदर्भ में इस प्रकार समझा जावेगा कि यह पक्षकार पर शीघ्रता के साथ कार्य करने का कर्तव्य अधिरोपित करता है।

    क्रय मूल्य का 25 प्रतिशत जमा कराने का उद्देश्य- आदेश 21, नियम 84 (1) के उपबन्ध (जिनमें क्रेता क्रय मूल्य का 25 प्रतिशत जमा कराता है) आज्ञापक है और इन नियमों का पालन नहीं करने से विक्रय शून्य हो जाती है।

    वास्तव में, चेक स्वीकार कर जमा का समय बढ़ा दिया गया, इस पर सर्वोत्तम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि-नियम को मांग के अनुसार तुरन्त राशि जमा कराने में असफलता से विक्रय की कार्यवाही पूर्णतः शून्य हो जाती है और विक्रय के पुष्टीकरण तथा विक्रय-प्रमाणपत्र जारी करने का कोई प्रभाव नहीं होता।

    नीलामी विक्रय (आदेश 21, नियम 84) की वैधता व औचित्य - नीलामी-क्रेता ने विक्रय राशि से 25% कम जमा कराने का प्रस्ताव रखा। निष्पादन न्यायालय ने सायं 5.30 बजे तक यह 25% राशि जमा कराने का समय दिया, पर नीलामी क्रेता असफल रहा। निर्धारित कि विक्रय अवैध हो गया। दूसरे दिन सम्पूर्ण विक्रय- राशि निष्पादन-न्यायालय में जमा करा दी गई। इससे विक्रय वैध नहीं हो गया क्योंकि 25 प्रतिशत राशि तुरंत जमा करनी है।

    विक्रय निष्पादन के समय क्रेता से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि विक्रय कार्यवाही समाप्त होते हो वह नकद राशि जमा करे। बोली को 25% राशि ड्राफ्ट के माध्यम से नीलामी के दिन जमा करेगा व शेष राशि विक्रय को 15 दिवस के पूर्व जमा करेगा।

    सारभूत/तात्विक अनियमितता का स्वरूप - क्या क्रयराशि का 25 प्रतिशत जमा कराने में असफलता उस विक्रय को शून्य करेगी या शून्यकरणीय। यह प्रश्न न्यायालयों के विचारार्थ बार बार आता है। इसे अधिकतर न्यायालयों ने शून्य करणीय (Voidable) माना, परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यह प्रश्नगत उपबन्ध आज्ञापक है और निक्षेप (जमा) करने में असफल होने पर नीलाम विक्रय शून्य हो जाएगा।

    उपनियम (2)-डिफ्रीदार-क्रेता मुजरा का हकदार डिक्रीदार को जब बोली लगाने तथा समायोजन करने की छूट दे दी जाती है, तो डिक्रीदार के क्रेता होने की घोषणा के साथ उसे निक्षेप कराने से मुक्ति मिल जाएगी और उसी समय समायोजन / मुजरा प्रभावशील हो जाएगा या यह समझा जा सकेगा कि न्यायालय के द्वारा छूट (अनुमति) दिये जाने के साथ साथ ही समायोजन की छूट भी दे दी गई है। इसके विपरीत मत आंध्र उच्च न्यायालय का है, जिसके अनुसार समायोजन (मुजरा) की अनुमति मानी नहीं जा सकती, यह विनिर्दिष्ट रूप से स्वीकार करनी होगी।

    इस नियम के उपनियम (2) का अर्थान्वयन इस प्रकार होगा कि वह नियम 72 (2) और नियम 82 के परन्तुक से संगत हो। अपनी डिक्री के निष्पादन में एक डिक्रीदार ने स्वयं उस सम्पत्ति को अपनी डिक्री की राशि से कम कीमत पर खरीद कर उसकी क्रयराशि का डिक्रीत राशि के साथ समायोजन कर लिया।

    उसी निर्णीत-ऋणी के दूसरे डिक्रीदारों ने आवेदन किया कि-क्रयमूल्य की राशि को न्यायालय में लाया जावे। अभिनिर्धारित किया गया कि- क्रेता डिक्रीदार को वह राशि न्यायालय में लानी होगी जो दूसरे डिक्रीदारों की बकाया है और उनके निष्पादन-आवेदन उस विक्रय के दिन न्यायालय में लम्बित थे। वे डिक्रीदार जिन्होंने विक्रय की दिनांक के बाद आवेदन किया वे आनुपातिक-वितरण के हकदार नहीं हैं।

    नियम 85 क्रयधन को क्रेता द्वारा जमा कराने का समय विक्रय से पन्द्रहवां दिन निर्धारित करता है, जब कि नियम 86 ऐसे संदाय में चूक होने पर व्यवस्था करता है।

    उच्चतम न्यायालय के निर्णयानुसार अब समय के भीतर भुगतान करना एक आज्ञापक उपबन्ध है, अतः न्यायालय द्वारा ऐसे समय में वृद्धि करना शून्य निर्णीत किया गया है। परन्तु यह उपबन्ध पक्षकारों के हित के लिए है। अतः उनकी सहमति से समय में वृद्धि की जा सकती है। डिक्रीधारी द्वारा नीलामी विक्रय में सबसे ऊँची बोली देने पर विहित अवधि के भीतर विक्रय कीमत न जमा किए जाने के बावजूद उच्च न्यायालय द्वारा विक्रय की पुष्टि की गई। विक्रय के शून्य और अकृत होने का प्रश्न उठा।

    विचारण न्यायालय इस प्रश्न का विनिश्चय किए बिना विक्रय अपास्त कर सकता है कि उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि किए गए विक्रय को विचारण न्यायालय द्वारा किया जा सकता है या नहीं। यह प्रक्रिया सम्बन्धी विधि का प्रश्न है। विक्रय कीमत न जमा किए जाने की आपत्ति पर विक्रय पुष्ट किए जाने के पश्चात् भी विचार किया जा सकता है।

    यदि क्रेता आदेश 21 नियम 85 के अनुसार शेष राशि जमा करवाने में असफल रहता है तो नीलामी विक्रय स्वतः ही निरस्त मानी जायेगी एवं उस सम्पत्ति का पुनः नीलामी विक्रय किया जायेगा। इस तरह राशि जमा करवाने में असफल रहने पर न्यायालय को अलग से आदेश पारित करने की आवश्यकता नहीं होगी। निष्पादन न्यायालय आदेश 21 नियम 85 के अधीन क्रेता को विक्रय मूल्य या स्टाम्प खरीदने के लिए राशि जमा कराने के लिए समय बढ़ाने में सक्षम नहीं है। ऐसी देरी धारा 148 या 157 के अधीन क्षमा नहीं की जा सकती।

    संदाय में चूक का प्रभाव व तरीका (नियम 86) - संदाय का व्यतिक्रम (चूक) होने पर नीलामी- क्रय अपने आप रद्द हो जाता है, क्योंकि ऐसे मामले में न्यायालय को पुनर्विक्रय करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे मामले में न्यायालय को समय में वृद्धि करने की अधिकारिता नहीं है। जब पुनर्विक्रय का आदेश ही नहीं दिया गया, तो निक्षेप का समपहरण नहीं किया जा सकता।

    निक्षेप (जमा राशि) का न्यायालय द्वारा समपहरण आवश्यक नहीं है। विक्रय की पुष्टि के पहले यदि दोषी- क्रेता न्यायालय का वह समाधान कर देता है कि उसने गलत भ्रम (गलतफहमी) से बोली लगाई, तो उसे निक्षेप वापस लेने की अनुमति दी जा सकेगी। न्यायालय को निक्षेप को पूरा या उसके भाग को वापस करने का विवेकाधिकार इस नियम में दिया है, पर पुनर्विक्रय (दुबारा नीलामी) के लिए कोई विवेकाधिकार नहीं।

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