सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 125: आदेश 21 नियम 58 व 59 के प्रावधान

Shadab Salim

14 Feb 2024 7:21 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 125: आदेश 21 नियम 58 व 59 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 58 एवं 59 पर पटिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-58 (1) जहां डिक्री के निष्पादन में कुर्क की गई किसी सम्पत्ति पर कोई दावा या उसकी कुर्की के बारे में कोई आक्षेप इस आधार पर किया जाता है कि ऐसी सम्पत्ति ऐसे कुर्क किए जाने के दायित्व के अधीन नहीं है वहाँ न न्यायालय ऐसे दावे या आक्षेप का न्यायनिर्णयन करने के लिए इसमें अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अनुसार अग्रसर होगा : परन्तु कोई ऐसा दावा या आक्षेप उस दशा में ग्रहण नहीं किया जाएगा, जिसमें -

    (क) दावा या आक्षेप करने से पूर्व कुर्क की गई सम्पत्ति का विक्रय कर दिया गया है: या

    (ख) न्यायालय का यह विचार है कि दावा या आक्षेप करने में रूप से विलम्ब किया गया है। परिकल्पनापूर्वक या अनावश्यक

    (2) इस नियम के अधीन कार्यवाही के पक्षकारों के बीच या उनके प्रतिनिधियों के बीच पैदा होने वाले तथा दावे या आक्षेप न्यायनिर्णयन से सुसंगत सभी प्रश्न (जिनके अन्तर्गत कुर्क की गई सम्पत्ति में अधिकार, हक या हित से सम्बन्धित प्रश्न भी हैं) दावे या आक्षेप के सम्बन्ध में कार्यवाहियां करने वाले न्यायालय द्वारा अवधारित किए जाएंगे, न कि पृथक् वाद द्वारा।

    (3) उपनियम (2) में विनिर्दिष्ट प्रश्नों के अवधारण पर, न्यायालय ऐसे अवधारण के अनुसार-

    (क) दावे या आक्षेप को अनुज्ञात करेगा और सम्पत्ति या तो पूर्णतः या उस विस्तार तक जो ठीक समझे, कुर्की से निर्मुक्त कर देगा; या

    (ख) दावे या आक्षेप को अनुज्ञात करेगा: या (ग) कुर्की को किसी व्यक्ति के पक्ष में किसी बन्धक, भार या अन्य हित के अधीन जारी रखेगा; या (घ) ऐसा आदेश पारित करेगा जो वह मामले की परिस्थितियों में ठीक समझे।

    (4) जहां किसी दावे या आक्षेप पर न्यायनिर्णय इस नियम के किए गए आदेश का वही बल होगा और अधीन किया गया वह अपील या अन्य बातों के बारे में वैसी है वहां उस पर ही शर्तों के होगा मानो वह डिक्री हो।

    (5) जहां कोई दावा या आक्षेप किया जाता है और न्यायालय उपनियम (1) के अधीन उसे ग्रहण करने से इन्कार करता है वहां परन्तुक के वह पक्षकार जिसके विरुद्ध ऐसा आदेश किया जाता है उस अधिकार को सिद्ध करने के लिए जिसके लिए वह संस्थित वह विवादग्रस्त सम्पत्ति में दावा करता है, वाद कर सकेगा; किन्तु ऐसे वाद के, यदि कोई हो, परिणाम के अधीन रहते ही ग्रहण करने से इस प्रकार इन्कार करने वाला आदेश निश्चायक होगा।

    नियम-59 विक्रय को रोकना-जहां कुर्क की गई सम्पत्ति दावे या आक्षेप के किए जाने से पूर्व विक्रय के लिए विज्ञापित की जा चुकी है वहाँ न्यायालय-

    (क) यदि सम्पत्ति जंगम है तो दावे या आक्षेप के न्यायनिर्णय तक के लिए विक्रय को मुल्तवी करने का आदेश दे सकेगा; या

    (ख) यदि सम्पत्ति स्थावर है तो यह आदेश दे सकेगा कि दावे या आक्षेप के न्यायनिर्णयन तक सम्पत्ति का विक्रय नहीं किया जाएगा या ऐसे न्यायनिर्णयन तक सम्पत्ति का विक्रय किया जा सकता है किन्तु विक्रय को पुष्ट नहीं किया जाएगा, और ऐसा कोई आदेश प्रतिभूति या अन्य बातों के बारे में ऐसे निबन्धनों और शर्तों के अधीन किया जा सकेगा जो न्यायालय ठीक समझे।

    आदेश 21 के नियम 58 तथा 59 निष्पादन के विरुद्ध दावे या आक्षेपों का निपटारा करने की व्यवस्था करते हैं। यह दोनों नियम इस आदेश के महत्वपूर्ण नियम हैं।

    निष्पादन सम्बन्धी विवाद का अन्त निष्पादन कार्यवाही में ही होगा, इसके लिए अलग से वाद लाना धारा 47 द्वारा वर्जित कर दिया गया है। इसी उद्देश्य से नये नियम 58 तथा नियम 59 को प्रतिस्थापित किया गया है।

    अब पर-व्यक्ति (थर्ड पार्टी) के दावे या आक्षेप पर अन्वेषण और न्याय निर्णयन करना आवश्यक है, यदि परन्तुक के भीतर वह अपवाद नहीं है। ऐसे अन्वेषण पर दिया गया विनिश्चय (निर्णय) एक डिक्री होगा, जो अपील योग्य है। (उपनियम 4) यह ध्यान देने योग्य बात है।

    आक्षेप का आधार (उपनियम-1) जब किसी कुर्क की गई सम्पत्ति के बारे में कोई दावा या उसकी कुर्की के बारे में यह आक्षेप किया जा सकता है कि- ऐसी सम्पत्ति ऐसे कुर्क किये जाने के दायित्व के अधीन नहीं है तो ऐसे आक्षेप को ग्रहण कर उसका उपनियम (3) के अनुसार निर्णय करेगा।

    अपवाद (परन्तुक) - परन्तु निम्न दो दशाओं में ऐसा दावा या आक्षेप ग्रहण नहीं किया जावेगा- (क) ऐसे दावे या आक्षेप करने के पहले ही यदि उस सम्पत्ति का विक्रय (नीलामी) कर दी गई हो, या (ख) न्यायालय के विचार में ऐसा दावा या आक्षेप काल्पनिक या अनावश्यक देरी करने के लिए किया गया हो। ऐसे आदेश द्वारा इन्कार करने पर उपनियन (5) के अधीन वाद लाया जा सकेगा।

    पृथक वाद का वर्जन-(उपनियम-2) पक्षकारों की बीच या उनके प्रतिनिधियों के बीच सभी प्रश्न तथा इनके न्यायनिर्णय से सम्बन्धी सुसंगत सभी प्रश्न जिनमें कुर्क की गई सम्पत्ति में अधिकार, हक (स्वामित्व) या हित सम्बन्धी प्रश्न भी सम्मिलित हैं, निष्पादन न्यायालय द्वारा तय किये जायेंगे और इनके बारे में पृथक् (अलग से) बाद करना वर्जित है। इसके लिए उपनियम (3) के अनुसार कार्यवाही की जावेगी।

    न्यायालय-निर्णय-

    सम्पत्ति की कुर्की के विरुद्ध आक्षेप (एतराज) एक बंधक डिक्री के निष्पादन की कार्यवाही में से किसी सम्पत्ति को हटाने के लिए आदेश 21, नियम 58 के अधीन आवेदन चलने योग्य नहीं है।

    उपनियम (1) के परन्तुक में शब्दावली सम्पत्ति का विक्रय कर दिया गया में शब्द "सोल्ड" (बिक्री हुई) वास्तविक विक्रय के प्रक्रम को बताता है। यह विक्रय की पुष्टि का प्रसंग नहीं देता।

    सम्पत्ति को कुर्की से छोडने हेतु आवेदन- इस मामले में, आवेदक उस सम्पत्ति को सद्‌भाव में मूल्य चुकाकर खरीदने वाला व्यक्ति नहीं पाया गया। अतः कुर्की से छोड़ने का आवेदन चलने योग्य नहीं है। आदेश 38 का नियम 5 इस बारे में लागू नहीं किया जा सकता।

    विक्रय के बाद दावा या आक्षेप करना- पहले इस प्रश्न पर न्यायालयों में मतभेद रहा है। एक मत के अनुसार ऐसा दावा या आक्षेप चलने योग्य है जबकि दूसरे मत के अनुसार नहीं। परन्तु अब 1976 के संशोधन के बाद परन्तुक (क) के अनुसार ऐसे दावे या आक्षेप चलने योग्य नहीं हैं।

    प्रश्नों का अवधारण (निर्णय)- [उपनियम (3)] उपनियम (2) में बताये गये प्रश्नों का निर्णय निम्नलिखित पांच रूपों में से किसी एक में किया जावेगा-

    (क) दावे या आक्षेप को अनुज्ञात/स्वीकार करना और सम्पत्ति या उसके भाग की सीमा तक, जो उचित समझे कुर्की को निर्मुक्त कर देगा, हटा लेगा, या

    (ख) दावे/आक्षेप को स्वीकार करना, या

    (ग) कुर्की को किसी व्यक्ति के पक्ष में किए गए भार (चार्ज) या हित को सुरक्षित रखने के लिए जारी रखना, या

    (घ) ऐसा आदेश देना, जो उस मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठीक समझा जाये।

    इस प्रकार दावे या आक्षेप को ग्रहण करने के बाद न्यायालय उसका अन्वेषन (जांच) करेगा। इसके लिए कुर्की कराने वाले लेनदार को सूचना परिशिष्ट (ङ) के प्ररूप संख्यांक 26 में दी जावेगी। इस पर गुणागुण के आधार पर निर्णय दिया जाएगा।

    न्यायालय की दावे की जांच करने की शक्ति- जब कभी किसी स्थावर (अचल) सम्पत्ति की कुर्की के विरुद्ध आदेश 21, नियम 58 के अधीन कोई दावा (क्लेम) किया जाता है, तो उस दावे का निर्णय करने की न्यायालय की शक्ति इस कारण से प्रवारित नहीं हो जाएगी कि उन सम्पत्तियों का विक्रय हो गया है और उस विक्रय की पुष्टि कर दी गई है। उस दावे के बारे में विचारण-न्यायालय या अपील-न्यायालय (यथा संशोधित) संहिता के अनुसार जांच की कार्यवाही करेगा और ऐसे दावे को स्वीकार कर लेने पर, उसकी सीमा तक वह विक्रय और उस विक्रय की पुष्टि को अकृत (शून्य) समझा जावेगा और उसका कोई प्रभाव नहीं रहेगा। एक वाद में एक फरवरी 1977 से पहले की कुर्की के मामले को, आदेश 21, नियम 58 लागू नहीं होता है, दिनांक 1.7.1977 को यह संशोधन लागू हुआ है।

    अन्वेषण या जांच नहीं करना अनियमित- जब आवेदन पर बिना कोई जांच किए और आक्षेपकर्ता को कोई अवसर दिए बिना गुणागुण पर नियम 58 के अधीन आदेश पारित किए गया, तो यह दृश्यतः (per se) संहिता की आज्ञापक भाषा और संयोजना के विपरीत है। यह अधिकारिता का अतिरेक (अधिक) प्रयोग है, और तात्विक अनियमितता है। जब एक बार न्यायालय ने दावे का पूरा अन्वेषण कर लिया, तो वह उस दावे को देरी होने के कारण से अस्वीकार नहीं कर सकता।

    मोटर यान के मामले कुर्क की गई किसी सम्पत्ति को निर्मुक्त करने के लिए निचले न्यायालय के लिए उक्त आदेश और नियम के आज्ञापक उपबंधों का अनुपालन करना अनिवार्य है। मात्र रजिष्ट्रीकरण प्रमाण-पत्र में क्रेता के नाम का अन्तरण न किया जाना यानों को निर्मुक्त किए जाने के लिए किए गए अन्तर्वर्ती आवेदन या की गई अपील को किसी प्रकार भी दूषित नहीं करता। एक ट्रक जो बेच दिया गया है, इसके विक्रय के बाद विक्रेता के विरुद्ध प्राप्त की गई डिक्री के विरुद्ध निष्पादन में कुर्क नहीं किया जा सकता। प्रादेशिक परिवहन प्राधिकारी के रजिस्टर में क्रेता के नाम को पंजीकृत नहीं कराने से ऐसा विक्रय अविधिमान्य/अवैध नहीं हो जाता, क्योंकि विक्रय मोटरयान अधिनियम के अधीन नहीं होती, वरन् माल विक्रय अधिनियन की धारा 19 के अधीन होती है।

    चांवल के मूल्य की वसूली के लिए एक वाद लाया गया, जिसमें लारीज (मोटरयानों) की कुर्की की गई। लारीज के मालिक ने आवेदन किया कि लारीज को छोड़ दिया जाए, क्योंकि आवेदन ने इन लारियों को प्रत्यर्थी से खरीद लिया था। अभिनिर्धारित कि आवेदन को खारिज करने का आदेश आज्ञापक उपबंधों के पालन के बिना दिया गया था। अतः अवैध है।

    मोटरयान अधिनियम, 1939 की धारा 100 ई (अब अधिनियम 1988 की पारा 174) के अधीन प्रतिकर की वसूली के लिए अधिकरण ने वसूली प्रमाणपत्र कलक्टर को भेज दिया। उसमें सम्पत्ति की कुर्की की गई जिसके विरुद्ध आक्षेप करने वाली प्रार्थिनी स‌द्भावी-क्रेता है। अधिकरण के समक्ष आवेदन करने का कोई उपबंध नहीं है। अतः प्रार्थिनी आदेश 21 नियम 58 सीपीसी के अधीन कलक्टर के समक्ष आवेदन करके उपचार प्राप्त कर सकती है।

    पत्नी की सम्पत्ति- एक निर्णीत-ऋणी की पत्नी ने कुर्की पर एतराज किया कि वह सम्पत्ति उसकी है, तो इस एतराज को स्वीकार किया गया। अभिनिर्धारित कि यह आदेश धारा 41 के अधीन नहीं था, परन्तु आदेश 21, नियम 58 के अधीन था, अतः स्वत्व पर आधारित नियमित बाद में यह पूर्व-न्याय के रूप में लागू नहीं होता।

    पली की सम्पत्ति पति की बकाया के लिए कुर्क नहीं की जा सकती एक मामले में, पति और पत्नी दोनों कुछ राशि के लिए बैंक के ऋणी थे। पत्नी ने अपने मकान को बैंक के पक्ष में स्वत्व-लिखत (टाइटिल डीड) जमा करवा कर साम्यापूर्ण बंधक सृजित कर दिया। बैंक द्वारा दोनों युगल के विरुद्ध किए गए बंधक पर आधारित वाद में सम्पत्ति के विक्रय की डिक्री पारित हो गई। इसी बीच कर वसूली अधिकारी ने बैंक को आदेश दिया कि पति के विरुद्ध भारी बकाया की वसूली के लिए उक्त भवन कुर्क किया जाता है। बैंक ने उस नोटिस पर एतराज कर जोर दिया कि वह सम्पत्ति एकमात्र पत्नी की है, अतः पति की बकाया के लिए उसे कुर्क नहीं किया जा सकता। अभिनिर्धारित कि- कर-वसूली अधिकारी का आदेश चलने योग्य नहीं था।

    व्यतिक्रम पर खारिजी

    यदि अपीलार्थी का आक्षेप हाजिर न होने के व्यतिक्रम के लिए खारिज कर दिया जाता है किन्तु वादगत सम्पत्ति आदेश द्वारा कुर्की से निर्मुक्त कर दी जाती है और पक्षकारों को निष्पादन याचिका फाइल करने की तारीख की स्थिति में रखा जाता है तो हक की घोषणा के लिए वाद फाइल करने की भी आवश्यकता नहीं है किन्तु वाद हेतुक पुनः तब उद्‌भूत होगा जब विवादगत सम्पत्ति डिक्री के निष्पादन में पुनः कुर्क कर ली जाती है।

    देवता के हक सम्बन्धी वाद में डिक्री पारित किया जाना यदि किसी देवता के प्रतिनिधि द्वारा सेवायत की हैसियत में वाद लाया जाए और ऐसे वाद को खर्च सहित खारिज करते हुए प्रतिवादी के पक्ष में डिक्री पारित कर दी जाए किन्तु डिक्री में यह विनिर्दिष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो कि डिक्री की तुष्टि देवता की संपदा से की जाएगी तो ऐसी स्थिति में डिक्री की तुष्टि सेवायत की वैयक्तिक संपत्ति को कुर्क करके विधिमान्य रूप से तुष्टि की जाएगी।

    परिसीमा का प्रश्न-

    परिसीमा विषयक प्रश्न का उक्त आदेश 21, नियम 58 के अधीन अन्वेषण के विस्तार से परे होने के कारण दावे का अन्वेषण करने वाला न्यायालय उक्त नियम 58 के अधीन दावे का अन्वेषण करते समय निष्पादन आवेदन को खारिज करने के लिए परिसीमा अधिनियम की उक्त धारा 3 का आश्रय नहीं ले सकता।

    जांच का अभाव (आदेश 21, नियम 58 (2)]- आक्षेपकर्ता का आवेदन यदि आक्षेप करने वाले पक्षकार को अवसर दिए बिना और जांच किए बिना उपनियम (2) के अधीन गुणागुन के आधार पर ही कोई आदेश पारित कर दिया जाता है तो ऐसा आदेश संहिता की आज्ञापक भाषा और स्कीन के विरुद्ध होगा अतः ऐसा आदेश अधिकारिता के बाहर और अधिकारिता के प्रयोग में सारवान् अनियमितता के दोष से भी दूषित होगा और अपास्त किए जाने के योग्य होगा।

    पिता के विरुद्ध धनीय डिक्री के निष्पादन में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की कुर्की इस पर पुत्र ने आक्षेप उठाया, परन्तु जब पिता व पुत्र संयुक्त रूप से निवास करते हैं और पिता के विरुद्ध अनैतिक प्रयोजन के ऋण लेने का कोई अभिवचन और प्रमाण नहीं दिया गया है, तो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की कुर्की और विक्रय वैध है।

    पूर्वजों की सम्पत्ति

    एक वाद में क ने ख के विरुद्ध प्राप्त डिक्री के निष्पादन में कुछ सम्पत्ति को कुर्क करवाया। ग ने उस कुर्क की गई गृह-सम्पत्ति के स्वामित्व का दावा किया और यह स्थापित कर दिया कि वह गृह उसने अपनी स्वयं की आय से निर्मित किया है। छ ने उस पूर्वजों की भूमि में सहदायिकी होने के कारण अधिकार प्राप्त किया है। अभिनिर्धारित किया गया कि ख का उस सम्पत्ति में आधा हिस्सा है, क उसके बारे में कार्यवाही कर सकता है जो पैतृक भूमि का आधा हिस्सा है, न कि उसके ऊपर के ढांचे और ग के आधे हिस्से का।

    आदेश मानो डिक्री है- (उपनियम-4)- इस नियम के अधीन किसी दावे या आक्षेप के निर्णय में डिक्री का बल होगा और डिक्री के रूप में उसकी अपील आदि हो सकेगी। यह एक विशेष उपबन्ध है, जो इस आदेश को डिक्री मानता है।

    द्वितीय अपील का प्रश्न आदेश 21 नियम 58 के अधीन आवेदन पर द्वितीय पारित अपीली-आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील या पुनरीक्षण होने का प्रश्न आदेश 21, नियम 58 के संशोधित उपबंध पर निर्भर करता है।

    इस उपबन्ध में स्वयं संहिता के अधीन अपीली न्यायालय को अपील होती है और प्रश्न निर्णयार्थ यह उठता है कि क्या द्वितीय अपील भी होती है, जो कि उक्त उपबंध में स्पष्ट रूप से नहीं दिया गया है।

    यह सुस्थापित है कि हालांकि अपील का कोई अधिकार विनिर्दिष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया, तो भी यदि कोई प्रश्न किसी स्थापित न्यायालय को निर्देशित किया जाता है, तो उस न्यायालय की प्रक्रिया से संलम सभी घटनाये आकर्षित होती हैं। इस प्रकार से जब अपील का अधिकार उसी उपबंध अर्थात् आदेश 21 के नियम 58(4) द्वारा प्रदान किया गया है, तो वहां आगे अपील के अधिकार के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता।

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