सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 123: आदेश 21 नियम 53 के प्रावधान

Shadab Salim

12 Feb 2024 5:18 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 123: आदेश 21 नियम 53 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 53 विवेचना की जा रही है।

    नियम-53 डिक्रियों की कुर्की- (1) जहां कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति या तो धन के संदाय की या बन्धक या भार के प्रवर्तन में विक्रय की डिक्री है वहां कुर्की- (क) यदि डिक्रियां उसी न्यायालय के द्वारा पारित की गई थी तो, ऐसे न्यायालय के आदेश द्वारा की जाएगी, तथा

    (ख) यदि वह डिक्री जिसकी कुर्की चाही गई है, किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित की गई थी तो उस डिक्री को जिसका निष्पादन चाहा गया है, पारित करने वाले अन्य न्यायालय द्वारा ऐसे न्यायालय को वह अनुरोध करने वाली सूचना देकर की जाएगी कि वह अपनी डिक्री का निष्पादन तब तक के लिए रोक दे जब तक कि

    (1) जिस डिक्री का निष्पादन चाहा गया है उस डिकी को पारित करने वाला न्यायालय सूचना को रह न कर दे, अथवा

    [ (क) जिस डिक्री का निष्पादन चाहा गया है उस डिक्री का धारक, या

    (ख) ऐसे डिक्रीदार की लिखित पूर्व सहमति से या कुर्क करने वाले न्यायालय की अनुज्ञा से उसका निर्णीतऋणी, ऐसी सूचना प्राप्त करने वाले न्यायालय से यह आवेदन न करें कि वह कुर्क की गई डिक्री का निष्पादन करे।]

    (2) जहां न्यायालय उपनियम (1) के खण्ड (क) के अधीन आदेश करता है या उपनियन के खण्ड (ख) के उपशीर्ष (1) के अधीन आवेदन प्राप्त करता है वहां उस लेनदार के जिसने डिक्री कुर्क कराई है या उसके निर्णीतऋणी के आवेदन पर वह कुर्क की गई डिक्री का निष्पादन करने के लिए अग्रसर होगा और शुद्ध आगमों को उस डिक्री की तुष्टि में लगाएगा जिसका निष्पादन चाहा गया है।

    (3) जिस डिक्री का निष्पादन उपनियम (1) में विनिर्दिष्ट प्रकृति की किसी अन्य डिक्री की कुर्की द्वारा चाहा गया है उस डिक्री के धारक के बारे में यह समझा जाएगा कि वह कुर्क की गई डिक्री के धारक का प्रतिनिधि है और कुर्क की गई ऐसी डिक्री का निष्पादन ऐसी किसी भी रीति से कराने का हकदार है जो उस डिक्री के धारक के लिए विधिपूर्ण हो।

    (4) जहां डिक्री के निष्पादन में कुर्क की जाने वाली सम्पत्ति उपनियम (1) में निर्दिष्ट प्रकृति की डिक्री से भिन्न डिक्री है, वहां कुर्की, उस डिक्री को जिसका निष्पादन चाहा गया है, पारित करने वाले न्यायालय द्वारा उस डिक्री के धारक को जिसकी कुर्की चाही गई है, ऐसी सूचना देकर कि वह उसे किसी भी प्रकार अन्तरित या पारित न करे और जहां ऐसी डिक्री किसी अन्य न्यायालय द्वारा पारित की गई वहां ऐसे अन्य न्यायालय को भी यह सूचना भेजकर कि वह उस डिक्री जिसकी कुर्की चाही गई है, निष्पादन करने से तब तक प्रविरत रहे जब तक ऐसी सूचना को वह न्यायालय रद्द न कर दे जिसने उसे भेजा है, की जाएगी।

    (5) इस नियम के अधीन कुर्क की गई डिक्री का धारक डिक्री का निष्पादन करने वाले न्यायालय को ऐसी जानकारी और सहायता देगा जो युक्तियुक्त रूप से अपेक्षित की जाए।

    (6) जिस डिक्री का निष्पादन किसी अन्य डिक्री की कुर्की द्वारा चाहा गया है उस डिक्री के धारक के आवेदन पर वह न्यायालय जो इस नियम के अधीन कुर्की का आदेश करे, ऐसे आदेश की सूचना उस निर्णीतऋणी को देगा जो कुर्क की गई डिक्री से आबद्ध है, और कुर्क की गई डिक्री का कोई भी ऐसे संदाय या समायोजन जो ऐसे आदेश का उल्लंघन करके निर्णीतऋणी [उसकी जानकारी रखते हुए या] ऐसे आदेश की सूचना की प्राप्ति के पश्चात् या तो न्यायालय की मार्फत या अन्यथा करता है, किसी भी न्यायालय द्वारा उस समय तक मान्य नहीं किया जाएगा जब तक कुर्की प्रवृत्त रहती है।

    नियम 53 में डिक्री की कुर्की करने का तरीका बताया गया है। उपनियम (1) में (1) धन के संदाय की डिक्री या (2) बन्धक या भार के प्रवर्तन (लागू करने) में विक्रय की डिक्री की कुर्की करने की व्यवस्था की गई है- (क) यदि दोनों डिक्रियाँ (कुर्क की जाने वाली और कुर्क करने वाली) एक ही न्यायालय द्वारा पारित की गई है, तो वह न्यायालय उस डिक्री की कुर्की का आदेश देगा तथा

    (ख) यदि वह कुर्क की जाने वाली डिक्री किसी दूसरे न्यायालय द्वारा पारित की गई है, तो उस न्यायालय को परिशिष्ट (3) के संख्यांक 22 में सूचना भेजी जावेगी कि वह अपनी डिक्री का निष्पादन निम्न शर्तों पर तब तक रोक दे- (i) जब तक न्यायालय उक्त सूचना को रद्द न कर दे, या (ii) (क) कुर्क करने वाली डिक्री का धारक या (ख) उसकी पूर्व सहमति से या कुर्क करने वाले न्यायालय की अनुज्ञा (अनुमति) लेकर निर्णीत ऋणी (यानी कुर्क डिक्री का डिक्रीदार) न्यायालय से आवेदन करे कि कुर्क की गई डिक्री का निष्पादन करे।

    दो प्रकार की डिक्रियां-धारा 60 में डिक्री को स्पष्ट रूप से कुर्की और विक्रय के लिए दायी सम्पत्ति नहीं बताया गया है। अतः यह अवशिष्ट उपबन्ध अन्य सभी विक्रय योग्य सम्पत्ति से आवृत होती है । अतः विक्रय-योग्य है, परन्तु आदेश 21 के नियम 53 का उपनियम (2) धनीय डिक्रियों या बंधक या भार की डिक्रियों को वसूल करने का विशेष तरीका बताता है। अतः उपनियम (2) के तरीके से ही इन पर कार्यवाही की जा सकती है । शेष डिक्रियों का एक डिक्री के निष्पादन में विक्रय किया जा सकता है।

    इस प्रकार नियम 53 के प्रयोजनार्थ डिक्रियाँ दो प्रकार की हैं-

    (1) धन के संदाय की डिक्रियां या बंधक या भार के प्रवर्तन में विक्रय के लिए डिक्रियां- इन डिक्रियों को उपनियम (1) के अनुसार कुर्क किया जा सकता है और उपनियम (2) के अनुसार उनकी वसूली की जा सकती है, परन्तु विक्रय नहीं किया जा सकता।

    (2) अन्य द्विक्रियां- इनको उपनियम (4) के अनुसार कुर्क किया जा सकता है, परन्तु इनकी वसूली के लिये इस नियम में कोई तरीका नहीं दिया गया है, अतः इन डिक्रियों को एक डिक्री के निष्पादन में विक्रय द्वारा वसूल किया जा सकता है। इस दूसरी श्रेणी में उदाहरण के रूप में (1) बंधक के पुरोबंध की डिक्री या (1) विभाजन की डिकी आती हैं।

    डिक्री के विक्रय की वैधता निष्पादन करने की बजाय एक डिक्री का यदि किसी दूसरी डिक्री के निष्पादन में विक्रय कर दिया जाता है, तो क्या ऐसा विक्रय शून्य है।

    इस पर न्यायालयों में मतभेद रहा है और दो मत पाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-

    (क) डिक्री का निष्पादन में विक्रय शून्य है, यह मत बम्बई और पटना उच्च न्यायालयों ने अपनाया है।

    (ख) विपरीत मत अपनाते हुए मद्रास न्यायालय ने ऐसे विक्रय को शून्य नहीं माना है।

    धन के संदाय की डिक्री-मतभेद-भागीदारी के विघटन की कार्यवाही में दी गई प्राथमिक डिक्री धन के संदाय की डिक्री है या नहीं? इस प्रश्न पर भी न्यायालयों में मतभेद है। एक मत कलकत्ता न्यायालय के अनुसार, ऐसी डिक्री जो धन के संदाय की डिक्री नहीं है, परन्तु इसके विपरीत बम्बई, पटना और मद्रास न्यायालय के अनुसार ऐसी डिक्री को एक धनीय संदाय की डिक्री मानते हैं, जिसे इस नियम के अधीन कुर्क तो किया जा सकता है, पर इसका विक्रय नहीं किया जा सकता।

    स्थगन का स्वरूप (उपनियम (1)) (ख) उपनियम (1) (ख) के अधीन स्थगन केवल एक सीमित स्थगन है और वह डिक्री निष्पादन चाहने वाले धारक या उसके निर्णीत-ऋणी को मूल डिक्री का निष्पादन चाहने से नहीं रोकते।

    परिसीमा के प्रश्न [आदेश 21, नियम 53 (1) (ख) (सपठित इण्डियन लिमिटेशन एक्ट, 198-धारा 15)] निष्पादन कालावधि-न्यायालय ने प्रत्यर्थी के निष्पादन आवेदन को नामंजूर कर दिया - निष्पादन के लिए प्रत्यर्थी का पश्चात्वर्ती आवेदन कालवर्जित नहीं है। निष्पादन आवेदन का मात्र नामंजूर किया जाना गुणागुण के आधार पर विनिश्चित किए गए आदेश पूर्ववर्ती आवेदन का सातत्य है।

    कुर्क की गई डिक्री के निष्पादन के लिए कुर्क करने के दिनांक से तीन वर्ष के भीतर आवेदन करना आवश्यक है, क्योंकि कुर्की निष्पादन की सहायता में एक कदम नहीं है और इससे परिसीमा की रक्षा नहीं होती।

    डिक्री का निष्पादन (उपनियम-२) इस प्रकार उपनियम (1) के खण्ड (क) या उसके खण्ड (घ) के अधीन निष्पादन-आवेदन प्राप्त करता है, तो वह उस डिक्री का निष्पादन करायेगा और शुद्ध-आगम (प्राप्त रकम, खर्चे आदि काटकर) को उस डिक्री की तुष्टि में लगाएगा, जिसका निष्पादन चाहा गया है।

    जहां डिक्री का निष्पादन चाहा गया है वह डिक्री और वह डिक्री जिसको कुर्क करना चाहा गया है, दोनों एक ही न्यायालय द्वारा पारित की गई हैं, तो उस न्यायालय को कुर्क करने का आदेश मात्र देना है परन्तु जहाँ ये दोनों डिक्रियां भित्र भित्र न्यायालयों द्वारा पारित की गई हैं, तो उनमें से एक को उसी न्यायालय में अन्तरित कर देने से ही काम नहीं चलेगा । इसके लिए उपनियम (2) में विहित तरीका अपनाना होगा, न कि उपनियम (1) (क) में दिया गया तरीका।

    अन्य प्रकार की डिक्रियों की कुर्की का निष्पादन उपनियम (3 से 5)- दूसरे प्रकार की डिक्रियों के निष्पादन में डिक्री का धारक (मूल डिक्रीदार) कुर्क की गई डिक्री के धारक (अर्थात् पहला डिक्रीदार दूसरे डिक्रीदार) का प्रतिनिधि है और वह उस डिक्री का निष्पादन करवा सकता है। इसके लिए, नियम (4) के अनुसार मूल डिकीदार व निष्पादन न्यायालय को सूचना देकर निष्पादन को रोकने की व्यवस्था की गई है कुकीं की गई डिक्री का पारक निष्पादन न्यायालय की मदद करेगा।

    उपनियम (3) के अनुसार धारा 41 के अर्थ में डिक्री को कुर्क कराने वाला व्यक्ति डिक्रीदार का प्रतिनिधि होता है। वह न तो समनुदेशिती है और न कुर्कीयुक्त डिक्री के धारक का विधिक प्रतिनिधि वह निर्णीत ऋणी द्वारा न्यायालय के बाहर दिये गये भुगतान को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि यह निष्पादन का मान्यता प्राप्त तरीका है, परन्तु वह समझौता करके देव राशि से कम राशि को स्वीकार नहीं कर सकता।

    एक मामले में एक कुर्क की गई डिक्री के निष्पादन का आवेदन अनुपस्थिति के कारण खारिज हो गया, परन्तु इससे कुर्की समान नहीं होती, क्योंकि नियम 53(1) (ख) कुर्की के समाप्त होने का प्रसंग होने नहीं देता वरन कुर्की को प्रभावी करने का एक तरीका बताता है।

    समनुदेशन का प्रभाव- एक डिकी की कुर्की हो जाने पर समनुदेशिती के अधिकारों में कटौती नहीं हो जाती। वह नियम 12 के अधीन आवेदन कर सकता है, किन्तु उसका निष्पादन उस समय तक निलम्बित (स्थगित) रहेगा, जब तक नियम 53 में बताई गई दो बातों में से कोई घटित न हो जाए। कुर्क की गई डिक्री का मूल डिक्रीदार कुर्की के लम्बित रहते उस डिक्री का निष्पादन करवा सकता है, परन्तु यह शर्त है कि वसूल की गई राशि न्यायालय में कुर्क करने वाले डिक्रीदार के हित के लिए जमा करादे।

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