सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 108: आदेश 21 नियम 16 के प्रावधान

Shadab Salim

29 Jan 2024 11:16 AM GMT

  • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 108: आदेश 21 नियम 16 के प्रावधान

    सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आदेश का नियम 16 डिक्री के अंतिरिति द्वारा निष्पादन हेतु आवेदन किये जाने का प्रावधान करती है। किसी डिक्री को ऐसे व्यक्ति के आवेदन पर भी निष्पादित किया जा सकता है जिसे डिक्रीधारी द्वारा डिक्री ट्रांसफर कर दी गई है, इस आलेख नियम 16 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

    नियम-16 डिक्री के अन्तरिती द्वारा निष्पादन के लिए आवेदन- जहां किसी डिक्री का या, यदि कोई डिकी दो या अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप से पारित की गई है तो डिक्री में किसी डिक्रीदार के हित का अन्तरण लिखित समनुदेशन द्वारा या विधि की क्रिया द्वारा हो गया है वहां अन्तरिती उस न्यायालय से, जिसने डिक्री पारित की थी डिकी के निष्पादन के लिए आवेदन कर सकेगा और डिक्री उसी रीति से और उन्हीं शर्तों के अधीन रहते हुए इस प्रकार निष्पादित की जा सकेगी मानो आवेदन ऐसे डिकीदार के द्वारा किया गया हो

    परन्तु जहां डिक्री के पूर्वोक जैसे हित का अन्तरण समनुदेशन द्वारा किया गया है वहां ऐसे आवेदन की सूचना अन्तरक और निर्णीतऋणी को दी जाएगी और जब तक न्यायालय ने डिक्री के निष्पादन के बारे में उनके आक्षेपों को (यदि कोई हो) न सुन लिया हो तब तक वह निष्पादित नहीं की जाएगी।

    परन्तु यह और भी कि जहां दो या अधिक व्यक्तियों के विरुद्ध धन के संदाय की डिक्री उनमें से एक को अन्तरित की गई है वहां वह अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध निष्पादित नहीं की जाएगी।

    [स्पष्टीकरण- इस नियम की कोई बात धारा 146 के उपबन्धों पर प्रभाव नहीं डालेगी और उस सम्पत्ति में जो वाद की विषयवस्तु है, अधिकारों का कोई अन्तरिती डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन, इस नियम द्वारा यथा अपेक्षित डिकी के पृथक् समनुदेशन के बिना, कर सकेगा।]

    इस नियम में डिक्री के अन्तरिती द्वारा डिक्री के निष्पादन का तरीका दिया गया है। डिक्री के अन्तरिती द्वारा निष्पादन के लिए आवेदन- (क) आवश्यक शर्तें-जब तक निम्नलिखित शर्तें पूरी नहीं होती है, तब तक डिक्री के अन्तरिती द्वारा दिये गये निष्पादन के आवेदन पर कोई आदेश नहीं दिया जावेगा। ये शर्तें आज्ञापक हैं-

    डिक्री का या संयुक्त डिक्री में किसी डिक्रीदार के हित का अन्तरण किया गया है,

    ऐसा अन्तरण (1) लिखित में समनुदेशन द्वारा या (2) विधि को क्रिया (Operation of law) द्वारा किया गया है। उस डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन डिक्री पारित करने वाले न्यायालय में किया गया है।

    ऐसी डिक्री का निष्पादन उन्हीं शर्तों के अधीन रहते हुए किया जायेगा, मानो ऐसा आवेदन ऐसे डिक्रीदार द्वारा किया गया हो। जहाँ ऐसी डिक्री समनुदेशन द्वारा अन्तरित की गई हो, तो इस आवेदन की सूचना (नोटिस) अन्तरक (मूल डिक्रीदार) और निर्णीत-ऋणी को दे दी गई हो और न्यायालय ने डिक्री के निष्पादन के बारे में उनके आक्षेपों को (यदि कोई हो) सुन लिया हो। इसके बाद उस निष्पादन आवेदन पर आगे कार्यवाही की जाएगी।

    उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अधिकारों का कोई अन्तरिती डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन आदेश 21 नियम 16 द्वारा यथा अपेक्षित डिक्री के पृथक् समनुदेशन के बिना कर सकेगा।

    (ख) अपवाद-(परन्तुक दो)-

    परन्तु यह भी है कि जहाँ दो या अधिक व्यक्तियों के विरुद्ध धन के संदाय की डिक्री उनमें से एक को अन्तरित की गई है यहाँ यह अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध निष्पादित नहीं की जाएगी।

    (ग) स्पष्टीकरण - यह नियम धारा 146 के उपबंधों पर प्रभाव नहीं डालेगा और डिक्री का निष्पादन धारा 146 के अनुसार किया जा सकेगा।

    संयुक्त आवेदन पर यह नियम लागू नहीं - यह नियम उस समय लागू नहीं होता है, जहाँ अन्तरक और अन्तरिती दोनों निष्पादन के लिए एक संयुक्त आवेदन करते हैं।

    अन्तरिती कौन- इस नियम के अधीन डिक्रीदार के डिक्री में हित का अन्तरण या समनुदेशन दो प्रकार से बताया गया है।

    (1) लिखित समनुदेशन द्वारा अतः मौखिक समनुदेशन यहां पर्याप्त नहीं माना जावेगा। यह समनुदेशन लिखित में होना आवश्यक है। इस प्रकार एक समनुदेशिती अन्तरिती होगा, जो इस नियम के अधीन आवेदन कर सकेगा।

    (2) विधि की क्रिया द्वारा समनुदेशन (by operation of law) उदाहरण के लिए-

    मृत डिक्रीदार के विधिक प्रतिनिधि

    एक दिवालिया डिक्रीदार का शासकीय समनुदेशिती (Official Assignees)

    डिक्रीदार के विरुद्ध डिक्री के निष्पादन में नीलामी में डिक्री का क्रेता (खरीददार)

    ऊपर बताये गये दो प्रकार के समनुदेशितियों का समनुदेशीति भी इसमें सम्मिलित है, चाहे वह तुरन्त या अन्तःकालीन किसी प्रकार का हो। इसी प्रकार डिक्री के अंश का अन्तरिती भी इसमें सम्मिलित माना गया है।

    डिक्री का अंशतः निष्पादन एक डिक्री के भाग का जब किसी दूसरे व्यक्ति को अन्तरण (ट्रान्सफर) कर दिया जाय, तो ऐसा अन्तरिती डिक्रीदार बन जावेगा और डिक्री का निष्पादन करा सकेगा। डिक्री को विभाजित करना या भागों में डिक्री का निष्पादन करवाना अनुज्ञेय है। जब डिक्री के एक भाग का अन्तरण कर दिया गया और अन्तरिती को निष्पादन की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति दे दी गई, तो उक्त कार्यवाही में से मूल डिक्रीदार का नाम हटा देने की आवश्यकता नहीं है।

    डिक्री के कुर्क हो जाने पर समनुदेशिती / अन्तरिती का अधिकार- हालांकि समनुदेशिती (एसाइनी) को समनुदेशक (एसाइनर) के विरुद्ध अधिकार समनुदेशन के दिनांक को ही उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु वह समनुदेशिती इस नियम के अपीन आवेदन देने के बाद ही डिक्री की कुर्की पर एतराज कर सकता है।

    एक ऐसी डिक्री का अन्तरिती (ट्रान्सफरी) जो कुर्क हो गई है, उसके निष्पादन के लिए आवेदन कर सकता है। परन्तु यह उन्हीं शर्तों के अधीन होगा, जिन पर कुर्क की गई डिक्री का धारक स्वयं उसे निष्पादित कर सकता है।

    सहडिक्रीदार द्वारा आवेदन-

    एक अन्तरिती का यह आवेदन कि उसे एक सह-डिक्रीदार के रूप में जोड़ा जाए, डिकीदार द्वारा उठाये गये एतराजों और निस्तारणीय (निपटारे योग्य) नहीं है पर विचार किए बिना विचारणीय आदेश 21 नियम 16 के उपबंध शक्तिदाता हैं। डिक्री का अन्तरिती, यदि वह ऐसा चाहे, स्वयं को मूल डिक्रीदार के स्थान पर डिक्रीदार के रूप में पक्षकार बना सकता है। जब तक ऐसा नहीं कर लिया जाता, मूल डिक्रीदार उस डिक्री का निष्पादन करवाने के लिए अधिकृत है।

    डिक्री के निष्पादन में डिक्री के अन्तरिती द्वारा सह डिक्रीदार के रूप में जोड़ने के लिए आवेदन किया जाना-

    विचारण न्यायालय द्वारा अभिलेख पर आक्षेपों, दस्तावेजों और साक्ष्य पर विचार किए बिना आवेदन मंजूर किया जाना- उक्त आदेश 21, नियम 16 के अधीन पिटीशन में अभिलेख पर आक्षेपों, दस्तावेजों और साक्ष्य पर विचार किए बिना पारित आदेश त्रुटिपूर्ण और न्यायालय की अधिकारिता से बाहर होगा।

    यदि किसी डिक्री में मंजूर किए गए अनुतोष दो भिन्न और पृथक सम्पत्तियों के बारे में हो तो ऐसे मामले में डिक्री का निष्पादन प्रस्नगत सम्पत्तियों में से प्रत्येक की बाबत पृथक-पृथक रूप से करवाया जा सकता है।

    आदेश 21, नियम 16 के द्वितीय परन्तुक के अधीन जब कोई व्यक्ति डिक्रीधारक और निर्णीतऋणी दोनों के हित अर्जित कर लेता है, तब वह अपने विरुद्ध निष्पादन नहीं करा सकता और इसलिए कब्जे के प्रत्युद्धरण की डिक्री का निर्वापन हो जायेगा। अतः यदि मूल निर्णीत ऋणी पट्टेदार ने उपपट्‌टा देकर उस सम्पत्ति पर कोई अधीनस्थ हित सृष्ट किया हो तो उन उप-पट्‌टेदारों के विरुद्ध डिक्री का अलग से निष्पादन नहीं किया जा सकता।

    जब पूर्व न्याय लागू होगा- निष्पादन में डिक्री के एक भाग का अन्तरण किया गया और निर्णीत-ऋणी के कथन पर मूल डिक्रीदार के स्थान पर अन्तरिती का नाम प्रतिस्थापित कर दिया गया। इसके बाद निर्णीत-ऋणी द्वारा इस पर किया गया आक्षेप पूर्व न्याय के सिद्धान्त पर वर्जित हो गया।

    विधिक-प्रतिनिधियों द्वारा निष्पादन को जारी रखना यह अब सुस्थापित विधि है कि जब निष्पादन-आवेदन के लम्बित रहते डिक्रीदार की मृत्यु हो जाती है, तो उसके विधिक-प्रतिनिधियों को इस नियम के अधीन अभिलेख पर लाकर बिना किसी नये निष्पादन आवेदन के कार्यवाही को जारी रखा जावेगा। डिक्रीदार की मृत्यु पर निष्पादन का उपशमन नहीं होता। उसके विधिक प्रतिनिधियों को विधि के प्रवर्तन के अधीन अधिकार स्थानान्तरित हो गया और उनको प्रतिस्थापित कर आगे कार्यवाही की जा सकती है। उनको निष्पादन का नया आवेदन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

    डिक्री का समनुदेशन तथा उसका निष्पादन

    एक मामले में मूल डिक्रीदार ने डिक्री का समनुदेशन अपीलार्थी के पक्ष में किया। जब एक बार डिक्रीदार समनुदेशन-विलेख द्वारा डिक्री में अपने हित का अन्तरण कर देता है और न्यायालय अन्तरण के आवेदन की सूचना अन्तरणकर्ता और निर्णीत ऋणी को दे देता है फिर न्यायालय द्वारा अन्तरण को मान्यता देना आवश्यक नहीं है और इसके बाद मूल डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी के बीच नियम 2 के अधीन किसी पश्चात्वर्ती (बाद के) समायोजन के बावजूद भी अन्तरिती डिक्री के निष्पादन के लिए समावेदन कर सकता है।

    इस मामले में डिक्रीदार और निर्णीत-ऋणी ने निष्पादन न्यायालय से डिक्री की पूर्ण तुष्टि लेखबद्ध करने के लिए समावेदन किया। यह कहा गया था कि पक्षकारों ने एक समझौता किया था और यह प्रस्थापना की गई थी कि डिक्री की तुष्टि निर्णीत ऋणी द्वारा मूल डिक्रीदार को 1,000 रुपए की नकद राशि का संदाय करके की जाए। रकम का संदाय खुले न्यायालय में किया गया था और डिक्री की तुष्टि निष्पादन न्यायालय द्वारा 27 मई, 1984 को अभिलिखित की गई थी।

    निर्णीत ऋणी द्वारा उच्च न्यायालय को आगे अपील करने पर यह अभिनिर्धारित किया गया था कि डिक्री के समनुदेशीति के पास तब तक डिक्री को निष्पादित करने का कोई अधिकार नहीं था जब तक कि उस समनुदेशन को न्यायालय द्वारा मान्यता न प्रदान कर दी जाए। यह अभिनिर्धारित किया गया था कि ऐसा किए जाने तक मूल डिक्रीदार को डिक्री का निष्पादन करने की छूट थी; निर्णीत ऋणी को डिक्रीदार को अन्य समायोजन द्वारा संदाय करके डिक्री की पूर्ण रूप से तुष्टि करने की भी छूट भी।

    तथापि उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर कोई मत अभिव्यक्त नहीं किया था कि समनुदेशन विलेख द्वारा डिक्रीदार के अधिकार अपीलार्थियों को समनुदेशित कर दिए गए थे या नहीं। डिक्री के समनुदेशितियों ने संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन विशेष इजाजत लेकर यह अपील की है। अपील मंजूर करते हुए, अभिनिर्धारित किया कि- सिविल प्रक्रिया संहिता की पारा 2(3) में डिक्रीदार की परिभाषा किसी ऐसे व्यक्ति के अर्थ में की गई है जिसके पक्ष में कोई डिक्री पारित कर दी गई हो या निष्पादन योग्य आदेश कर दिया गया हो।

    धारा 51 में यह उपबन्ध किया गया है कि न्यायालय डिक्रीदार के आवेदन पर विभिन्न तरीकों से डिक्री के निष्पादन का आदेश कर सकता है। धारा 146 में यह उपबन्ध किया गया है कि जब किसी व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही की जा सकती हो या आवेदन किया गया हो, तब उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही या आवेदन किया जा सकता है।

    सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 21 डिक्रियों और आदेशों के निष्पादन के सम्बन्ध में है और विशेषकर नियम :16 आदेश 21 में न्यायालय के बाहर संदाय का समायोजन करने के लिए तथा यथास्थिति पूर्ण अथवा आंशिक रूप से न्यायालय द्वारा डिक्री की तुष्टि को अभिलिखित करने के लिए उपबंध किया गया है।

    नियम 16 आदेश 21 का ऐसा निर्वचन नहीं किया जा सकता जो प्रत्यर्थी के विद्वान काउन्सेल की इस आधारभूत उपधारणा के लिए आधार बन सकता हो कि किसी डिक्री में सम्पत्ति समनुदेशन के अधीन अन्तरिती को तब तक नहीं मिलती है जब तक कि अन्तरण को न्यायालय द्वारा मान्यता प्रदान न दी जाए। डिक्री में की सम्पत्ति समनुदेशन विलेख के अधीन अन्तरिती को मिल जानी चाहिए जब समनुदेशन विलेख के पक्षकारों का आशय ऐसी सम्पत्ति को देने का हो। यह न्यायालय की अंतरण की मान्यता पर निर्भर नहीं करता है।

    नियम 16, आदेश 21 में न तो अभिव्यक्त और न विवक्षित तौर पर यह उपबन्ध किया गया है कि किसी डिक्री का समनुदेशन न्यायालय द्वारा मान्यता दिए जाने तक प्रभावी नहीं होता। यह सत्य है कि जबकि नियम 16 आदेश 21 डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के लिए अन्तरिती को समर्थ बनाता है तो नियम 16 आदेश 21 का प्रथम परन्तुक यह व्यादेश देता है कि ऐसे आवेदन की सूचना अन्तरणकर्ता और निर्णीत ऋगी को दी जाएगी और यह कि डिक्री का निष्पादन तब तक नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय ने उसके निष्पादन के सम्बन्ध में उनके आक्षेपों पर, यदि कोई हो, सुनवाई न कर ली हो।

    यह कहना एक बात है कि अन्तरिती द्वारा डिक्री का निष्पादन उस समय तक नहीं किया जा सकता जब तक कि अन्तरणकर्ता और निर्णीत ऋणी के आक्षेपों की सुनवाई न कर ली गई हो और यह कहना पूर्ण रूप से भिन्न है कि समनुदेशन का तब तक कोई परिणाम नहीं होता है जब तक कि आक्षेपों की सुनवाई और विनिश्चय न कर लिया गया हो। मूल डिक्रीदार और अन्तरिती के बीच का अन्तरण समनुदेशन विलेख के द्वारा प्रभावी किया जाता है। यदि निर्णीत ऋणी को अन्तरण की सूचना है तो उसे अन्तरणकर्ता के साथ समायोजन करके अन्तरिती के अधिकारों को चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

    उच्च न्यायालय का यह अभिनिर्धारित करना गलत था कि निर्णीत ऋणी और अन्तरणकर्ता डिक्रीदार के बीच, नियम 16 आदेश 21 के अधीन आवेदन की सूचना दिए जाने के पश्चात् ही डिक्री का समायोजन अन्तरिती द्वारा डिक्री के निष्पादन को विवर्जित कर देता है। यह प्रश्न कि क्या समनुदेशन विलेख के अधीन डिक्री का कोई अन्तरण किया गया था, इसका विनिश्चय उच्च न्यायालय में नहीं किया गया था।

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