Begin typing your search above and press return to search.
जानिए हमारा कानून

क्या अदालत अग्रिम जमानत के लिए नगद राशि जमा कराने का आदेश दे सकती है? जानिए सुप्रीम कोर्ट की राय

LiveLaw News Network
9 Dec 2019 6:19 AM GMT
क्या अदालत अग्रिम जमानत के लिए नगद राशि जमा कराने का आदेश दे सकती है? जानिए सुप्रीम कोर्ट की राय
x

केरल हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ही याचिकाकर्ता की चार याचिकाओं की संयुक्त सुनवाई करते हुए कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 (2) के तहत अग्रिम जमानत देने की शर्त के रूप में नकदी जमा करने की अनुमति है, लेकिन इस तरह के अधिकार का इस्तेमाल पूर्ण संयम से साथ किया जाना चाहिए तथा जमा की जाने वाली राशि अत्यधिक या दुष्कर नहीं होनी चाहिए।

मौजूदा मामले में महिला याचिकाकर्ता भारतीय दंड संहिता की धारा 420 के तहत अपराध की अभियुक्त थी। यह आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता ने कारोबार के उद्देश्य से चार व्यक्तियों से बहुत बड़ी राशि ली थी और उसने यह वायदा किया था कि वह अपने निकटस्थ संबंधियों के लिए वीजा की व्यवस्था करेगी, लेकिन उसने न तो कोई वीजा बनवाया, न ही पैसे लौटाये। इस प्रकार उसने धोखाधड़ी का अपराध किया था।

याचिकाकर्ता ने इन मामलों में अग्रिम जमानत के लिए अलापुजा की सत्र अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत चार अर्जी लगायी थी। उसके बाद, सत्र न्यायाधीश ने कुछ शर्तों के साथ उसे अग्रिम जमानत मंजूर कर ली थी, जिनमें से एक शर्त थी कि जमानती बॉण्ड के निष्पादन से पहले प्रत्येक मामले के लिए उसे पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये (यानी कुल एक लाख रुपये) जमा कराने होंगे।

इसके बाद याचिकाकर्ता ने नकदी जमा कराने संबंधी शर्त में संशोधन करने अथवा उसे रद्द करने के लिए सत्र अदालत से गुहार लगायी थी। हालांकि, यह अर्जी खारिज कर दी गयी थी। उसके बाद उसने सत्र अदालत द्वारा थोपी गयी शर्त को निरस्त करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

हाईकोर्ट के समक्ष सुनवाई के दौरान, याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि नकद जमा कराने संबंधी शर्त के अनुपालन के लिए याचिकाकर्ता की न तो कोई आमदनी है, न ही उसके पास धन है। यह भी दलील दी गयी कि 25,000/- प्रति मुकदमे के हिसाब से नकद जमा कराने का निर्देश गैर-कानूनी है तथा दुष्कर एवं अतार्किक शर्त है।

दूसरी ओर सरकारी वकील ने दलील दी थी कि चूंकि याचिकाकर्ता ने चार व्यक्तियों से भारी राशि प्राप्त की है और इसका दुरुपयोग किया है, इसके मद्देनजन सत्र न्यायाधीश द्वारा यह निर्देश जारी किया जाना सही है।

सीआरपीसी की धारा 438(दो) कहती है : -

"जब उपधारा (एक) के तहत हाईकोर्ट या सत्र अदालत निर्देश देते हैं, तो ये अपने विवेक से किसी खास मामले के तथ्यों के प्रकाश में इस तरह की शर्तें जोड़ सकते हैं।"

हाईकोर्ट के पास विचारणीय मसला था कि क्या सीआरपीसी की धारा 438(एक), सहपठित 438(दो) के तहत अग्रित जमानत की शर्त के तौर पर अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए याचिकाकर्ता को नगद राशि जमा कराने का निर्देश जारी करना उचित और वैध है।

केरल हाईकोर्ट के न्यायाधीश आर नारायण पिशराडी ने कहा कि मामले की जांच प्रभावित करने की संभावना को दरकिनार करने के लिए उपरोक्त प्रावधान के तहत एक अदालत उचित शर्तें लगाने के लिए अधिकृत है। हालांकि, कोई भी ऐसी शर्त, जिसमें जांच या सुनवाई की निष्पक्षता या औचित्य का कोई संदर्भ नहीं है, कानून के तहत अभिव्यक्ति नहीं हो सकती तथा अदालत को अपने अधिकार का इस्तेमाल बहुत ही संयम के साथ करना चाहिए, क्योंकि 'कोई भी शर्त' लगाने का उसे मुकम्मल अधिकार नहीं है।

हाईकोर्ट ने विभिन्न मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि यद्यपि जमानत के लिए आरोपी के समक्ष नकद जमा कराने का सामान्यतया कोई शर्त नहीं रखा जा सकता, लेकिन कुछ अपवाद भी हैं।

'सुमित मेहता बनाम राज्य' (2013)15 एससीसी 570' मामले में शीर्ष अदालत के निष्कर्षों का उल्लेख करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि धोखाधड़ी, वित्तीय घोटालों, सफेदपोश अपराध आदि मामलों में अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए इस तरह की शर्तें लगाने की अनुमति है, इसलिए कानून की नजर में यह अनुचित नहीं है। हालांकि, कोर्ट को इस बात की सावधानी बरतनी चाहिए कि इस तरह के मामलों में जमा करायी जाने वाली राशि बहुत अधिक न हो या दुष्कर न हो तथा इसके कारण आरोपी को जमानत के लाभ से वंचित न रहना पड़े।

इस मामले के तथ्यों के संदर्भ में कोर्ट ने कहा कि

" कोर्ट ने मामले के तथ्यों के संबंध में कहा कि आरोप सही हैं या नहीं, इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता क्योंकि महज याचिकाकर्ता द्वारा कारोबार के नाम पर उधार लिये हुए पैसे न चुकाने को धोखाधड़ी नहीं कहा जा सकता। इस मामले में पुलिस को सूचित करने में भी बेवजह देरी हुई थी।"

इस प्रकार मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि सत्र न्यायाधीश ने महिला याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए जो शर्त रखी वह न्यायोचित नहीं थी। याचिकाओं को मंजूर करते हुए कोर्ट ने नकद जमा कराने का आदेश दरकिनार कर दिया और अग्रिम जमानत का सत्र अदालत का आदेश बरकरार रखा।

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट ने 'सुमित मेहता बनाम सरकार (2013) 15 एससीसी 570' मामले में व्यवस्था दी थी कि सीआरपीसी की धारा 438 के तहत निहित शक्तियों का इस्तेमाल करते वक्त व्यक्तिगत आजादी और पुलिस के जांच के अधिकारों के बीच संतुलन बनाये रखना कोर्ट की जिम्मेदारी होती है। इस तरह की शर्तें लगाने का उद्देश्य होना चाहिए- जांच को प्रभावित करने की आशंका को खत्म करना। इस प्रकार कोई भी ऐसी शर्त, जिसमें जांच या सुनवाई की निष्पक्षता या औचित्य का कोई संदर्भ नहीं है, कानून के तहत अभिव्यक्ति नहीं हो सकती तथा अदालत को अपने अधिकार का इस्तेमाल बहुत ही संयम के साथ करना चाहिए।

"हम यह भी स्पष्ट करते हैं कि अग्रिम जमानत मंजूर करते वक्त न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे आरोपों की प्रकृति एवं गम्भीरता, याचिकाकर्ता के पूर्ववृत्त, यथा- ऐसे अपराधों में उसकी पहले की संलिप्तता तथा याचिकाकर्ता के न्याय की पहुंच से दूर भागने जैसे पहलुओं को ध्यान में रखे और विचार करे। यह सुनिश्चित करना भी कोर्ट का दायित्व है कि कहीं आवेदक के खिलाफ आरोप उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने या गिरफ्तार करके उसे नीचा दिखाने के लिए तो नहीं मढे गये हैं? यहां यह उल्लेख करना जरूरी नहीं कि कोर्ट संहिता की धारा 438 की उपधारा दो के तहत उपयुक्त शर्तें लगाने के लिए बाध्य है।"


"इस प्रकार, इस मामले में अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए शिकायकर्ता के नाम पर छह माह के लिए एक लाख रुपये की सावधि जमा (एफडी) कराने और उसकी पर्ची जांच अधिकारी के पास रखने की शर्त निश्चित तौर पर दुष्कर और अतार्किक है। यह भी याद रखा जाना चाहिए कि कोर्ट ने अभी यह निष्कर्ष नहीं दिया है कि आरोप सही हैं या गलत। ये आरोप सही हैं या गलत, मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद ही सुनिश्चित होंगे। निश्चित तौर पर, बगैर किसी शब्द के हम यह सुझाव दे रहे हैं कि इस तरह की शर्तें लागू करने के अधिकार को पूरी तरह से अलग रखा गया है, यहां तक कि धोखाधड़ी, बिजली चोरी, सफेदपोश अपराधों या चिटफंड घोटाले आदि के मामलों में भी।"

कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी कि संबंधित प्रावधान में उपयुक्त शब्द 'कोई भी शर्त' का यह मतलब नहीं समझा जाना चाहिए कि कोर्ट के पास अपनी मर्जी से कोई भी शर्त लगाने का अधिकार उपलब्ध है।

'कोई भी शर्त' की व्याख्या परिस्थितियों की कसौटी पर खरा उतरने और व्यावहारिक दृष्टि से प्रभावी शर्त के रूप में की जानी चाहिए, जो स्वीकार्य हो, तथा जिससे जमानत मंजूर करने का उद्देश्य पूरा हो सके। हमारा मानना है कि मौजूदा मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के मद्देनजर इस तरह की शर्त लगाना वांछित नहीं है।

''रामथल एवं अन्य बनाम पुलिस इंस्पेक्टर एवं अन्य' (2009) 12 एससीसी 721" के मामले में सुप्रीम कोर्ट एक ऐसे ही आदेश पर विचार कर रहा था, जिसमें हाईकोर्ट ने इस शर्त के तहत अग्रिम जमानत दी थी कि यदि वह गिरफ्तार हो जाता है तो वह 32 लाख रुपये न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष जमा कराकर और एक लाख रुपये के निजी बांड तथा इतनी ही राशि के दो मुचलकों के साथ अभियुक्त जमानत पर रह सकते हैं।

इस मामले में संबंधित पक्षों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि :-

"13. उपरोक्त तथ्यों एवं परिस्थितियों से ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च न्यायालय द्वारा जारी किया गया आदेश संबंधित मामले के शिकायतकर्ता के हितों की रक्षा के इरादे से जारी किया गया था। हमारे सुविचारित मत है कि हाईकोर्ट का रवैया अनुचित था, क्योंकि उसने (हाईकोर्ट ने) अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए जो आधिकारिक शर्त रखी थी वह बहुत ही अतार्किक एवं दुष्कर थी।"

सुप्रीम कोर्ट ने 'अमरजीत सिंह बनाम दिल्ली सरकार (2009) 13 एससीसी 769' मामले में निम्न व्यवस्था दी थी :-

"7. मौजूदा मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई हिचक नहीं कि निचली अदालत के समक्ष एफडीआर के तौर पर 15 लाख रुपये जमा कराने की शर्त अतार्किक थी और इसलिए हम अपीलकर्ता-अभियुक्त को अग्रिम जमानत मंजूर करने के लिए उपरोक्त शर्त को निरस्त करते हैं।"

पिछले माह जारी एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर दोहराया कि जमानत के लिए भारी रकम जमा कराने की शर्त नहीं हो सकती, ऐसी शर्त जो याचिकाकर्ता की औकात से बाहर हो।


आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



Next Story