संपत्ति की निजी प्रतिरक्षा (Private Defence) का अधिकार आखिर किन मामलों में किसी हमलावर की मृत्यु कारित करने की अनुमति देता है?: प्रमुख निर्णयों के साथ समझें
SPARSH UPADHYAY
24 July 2019 3:40 PM IST
हमने इस श्रृंखला के पिछले लेख में मृत्यु कारित करने तक के शरीर के निजी प्रतिरक्षा अधिकार के बारे में बात की और उसे कई प्रसिद्ध वादों के दृष्टिकोण से समझा। मौजूदा लेख में हम संपत्ति के सापेक्ष निजी प्रतिरक्षा के अधिकार को समझेंगे और यह जानेंगे कि आखिर किन परिस्थितियों में इस अधिकार का प्रयोग किस सीमा तक किया जा सकता है।
जैसा कि हम भली भाँती जान चुके हैं कि आपराधिक मामलों में प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार एक अहम् एवं जरुरी अधिकार है। यह अधिकार व्यक्ति विशेष को शरीर के या किसी संपत्ति के विरुद्ध हो रहे या हो सकने वाले अपराध को रोकने में मदद करता है। यह अधिकार, स्व संरक्षण (self-preservation) के सिद्धांत पर आधारित है। हम इस श्रृंखला में यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि यह अधिकार किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आता है, यह कहाँ से शुरू एवं कहाँ खत्म होता है एवं इसकी सीमाएं क्या हैं।
जैसा कि हम यह जानते हैं कि हर व्यक्ति को संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध है [धारा 97 (2)]। यह अवश्य है कि यह अधिकार संहिता की धारा 99 के उपबंधो के अधीन है, अर्थात संपत्ति के बचाव हेतु प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार केवल उन मामलों में उपलब्ध है जहाँ उस अधिकार का अभ्यास धारा 99 में तय की गयी सीमाओं के भीतर रहकर किया जाए। धारा 99 के बारे में बात, हम इस श्रृंखला के प्रथम लेख में कर चुके हैं।
हमे यह भी हमे समझना होगा कि इस धारा के अंतर्गत किसी संपत्ति के ऊपर खतरा कारित करने वाले हमलावर से बचने/खतरा टालने के लिए हमारा कानून हमें अपने प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के तहत उस व्यक्ति की मृत्यु कारित करने तक की छूट देता है, हालाँकि इसकी कुछ सीमाएं हैं और यह कुछ ही दशाओं में लागू है जिसे हम इस लेख में आगे समझेंगे।
इसके अलावा, संपत्ति के मामलों में यह अधिकार दोनों, चल एवं अचल संपत्ति के लिए उपलब्ध है। भले ही वह संपत्ति आपकी हो या किसी और की, आप उसके बचाव हेतु इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं, हालाँकि यह जरुर है कि जिस संपत्ति के बचाव हेतु इस अधिकार का अभ्यास किया जाना है वह संपत्ति व्यक्ति के कब्जे में अवश्य होनी चाहिए।
जैसा कि धारा 97 में बताया गया है, जब संपत्ति पर खतरे की प्रकृति, दंड संहिता में बताये गए अपराध जैसे चोरी (theft), लूट (robbery), रिष्टि (mischief) या आपराधिक अतिचार (criminal trespass) या इनके प्रयास की होती है तब ही प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार किसी व्यक्ति को मिलता है। आइये चलिए सबसे पहले शुरुआत करते हैं उन मामलों से जहाँ प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मॄत्यु कारित करने तक का होता है।
आखिर कब कब संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मॄत्यु कारित करने तक का होता है?
दंड संहिता की धारा 103 इस विषय में साफ़ तौर पर कहती है कि वह परिस्थितियां क्या होंगी जहाँ एक व्यक्ति संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अभ्यास में किसी हमलावर की मृत्यु कारित कर सकता है। आइये सबसे पहले हम धारा को समझते हैं
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार, धारा 99 में वर्णित निर्बन्धनों के अध्यधीन दोषकर्ता की मॄत्यु या अन्य अपहानि स्वेच्छया कारित करने तक का है, यदि वह अपराध जिसके किए जाने के, या किए जाने के प्रयत्न के कारण उस अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, एतस्मिन पश्च्यात प्रगणित भांतियों में से किसी भी भांति का है, अर्थात्:--
पहला--लूट ;
दूसरा-- रात्रि गॄह-भेदन ;
तीसरा--अग्नि द्वारा रिष्टि, जो किसी ऐसे निर्माण, तंबू या जलयान को की गई है, जो मानव आवास के रूप में या संपत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में लाया जाता है ;
चौथा--चोरी, रिष्टि या गॄह-अतिचार, जो ऐसी परिस्थितियों में किया गया है, जिनसे युक्तियुक्ति रूप से यह आशंका कारित हो कि यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग न किया गया तो परिणाम मॄत्यु या घोर उपहति होगा।
इस धारा से यह बात स्पष्ट होती है कि प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का विस्तार मॄत्यु कारित करने तक का तब होता है जब निम्नलिखित अपराध किये जाते हैं या उन्हें करने का प्रयास किया जाता है
(1) लूट (robbery)
(2) रात्रि गॄह-भेदन (house breaking by night)
(3) अग्नि द्वारा किसी ऐसे निर्माण, तंबू या जलयान में की गई रिष्टि (mischief), जिसका उपयोग मानव आवास (human dwelling) के रूप में या संपत्ति की अभिरक्षा के स्थान के रूप में उपयोग में लाया जाता है
(4) चोरी, रिष्टि या गॄह-अतिचार का ऐसी परिस्थिति में किया जाना कि जिससे युक्तियुक्ति (reasonable) रूप से यह आशंका कारित हो कि यदि प्राइवेट प्रतिरक्षा के ऐसे अधिकार का प्रयोग न किया गया तो परिणाम मॄत्यु (death) या घोर उपहति (grievious hurt) होगा।
इसी के साथ यदि हम धारा 104 को पढ़ें तो हमे धारा 101 का स्मरण हो सकता है। धारा 104 कहती है:-
यदि वह अपराध, जिसके किए जाने या किए जाने के प्रयत्न से निजी प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रयोग का अवसर आता है, ऐसी चोरी, कुचेष्टा या आपराधिक अतिचार है, जो पूर्वगामी धारा में प्रगणित भांतियों में से किसी भांति का न हो, तो उस अधिकार का विस्तार स्वेच्छया मॄत्यु कारित करने का नहीं होता किन्तु उसका विस्तार धारा 99 में वर्णित निर्बंधनों के अध्यधीन दोषकर्ता की मॄत्यु से भिन्न कोई क्षति स्वेच्छया कारित करने तक का होता है।
दरअसल धारा 104 के अंतर्गत दिया हुआ प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार, किसी हमलावर की मृत्यु कारित करने की इजाजत नहीं देता है, हालाँकि मृत्यु कारित करने के सिवा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में कुछ भी कृतयु किया जा सकता है। इसके अंतर्गत वह सभी मामले आते हैं जो धारा 103 में नहीं दिए हुए हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी हमलावर की मृत्यु (शरीर की प्रतिरक्षा में) केवल धारा 100 में उल्लेखित मामलों के अंतर्गत कारित की जा सकती है, और धारा 101 यह कहता है कि अन्य मामलों में कोई भी चोट या हानि पहुंचाई जा सकती है (मृत्यु कारित करने को छोड़कर)। यह फिरसे कह देना आवश्यक है कि किसी भी स्थिति में प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अभ्यास में जरुरत से अधिक अपहानि कारित करने की अनुमति नहीं है ।
अली मिया [AIR 1926 Cal। 1012] के मामले में यह अभिनिर्णित किया गया था कि ऐसी परिस्थितियां होनी चाहिए, जो इस बात की आशंका पैदा कर सकती हैं कि इस अधिकार का उपयोग न करने पर परिणाम मृत्यु या घोर उपहति होगा। हालाँकि उत्तर प्रदेश राज्य बनाम शिव मूरत [1982 Cri। L।J। 2003 (All।)] के मामले में यह तय किया गया कि ये प्रावधान, यह दर्शाते हैं कि जब हमे यह जानना हो कि आत्मरक्षा के अधिकार के कथित अभ्यास में पीड़ित को चोट पहुंचाने हेतु आरोपियों की कार्रवाई उचित थी या नहीं, और क्या उस अधिकार के इस्तेमाल ने किए गए अपराध को शून्य (या तर्कसंगत) कर दिया था, हमे यह जानने की आवश्यकता होगी कि क्या इस तरह की चोटें कारित करने या हमला करने के पीछे अभियुक्त का आशय 'बोना फाईड' था या नहीं।
धारा 103 से जुड़े कुछ प्रमुख मामले
पाटिल हरी मेघजी बनाम गुजरात राज्य (AIR 1983 SC 488) के वाद में अभियुक्त द्वारा प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में एक व्यक्ति को जमीन पर गिरा दिया गया, और जब वह निहत्था हो गया और उसके द्वारा अपहानि कारित करने की सभी संभावनाएं खत्म हो गयी, उसके बाद भी अभियुक्त द्वारा उसपर हमला करना जारी रखा गया, इस मामले में यह माना गया कि अभियुक्त के पास प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलब्ध नहीं था।
गुरदत्त मल (AIR 1965 SC 257) के मामले में जिन लोगों की मृत्यु कारित की गयी थी उनके पास किसी प्रकार के जानलेवा हथियार नहीं थे, और वो लोग खेत में शांतिपूर्वक पुलिस की सुरक्षा के अंतर्गत कार्य कर रहे थे। अभियुक्त, जो उस खेत की फसलों पर अपना दावा कर रहा था उसने लोक अधिकारी से मदद मांगने के बजाए पुलिस कर्मियों को वहां से हटा दिया और उसके बाद मृत व्यक्तियों पर बन्दूक एवं अन्य जानलेवा हथियार से हमला कर दिया और उन्हें बहुत करीब से गोली मार दी। यह अभिनिर्णित किया गया कि मृत व्यक्ति लूट कारित नहीं कर रहे थे और इसलिए अभियुक्त के पास उनको जान से मरने का अधिकार नहीं था।
क्याव जान हला [(1904) 1 Cri LJ 997] के मामले में एक चोर गन्ने के खेत में घुसा और डाह (एक धारदार एवं जानलेवा हथियार) से गन्ने को काटने लगा। गन्ने के खेत का मालिक (अभियुक्त) कटाई की आवाज़ सुनकर वह सामने आये और उसने आड़ी कमान (CROSSBOW) से उस चोर पर, जिस ओर से आवाज़ आ रही थी उस ओर हमला करदिया और मौके पर उसकी मृत्यु हो गयी। यह अभिनिर्णित किया गया कि चूँकि चोर के पास एक डाह था, तो अभियुक्त द्वारा अपने संपत्ति के बचाव में चलाया गया आड़ी कमान, यह सोचकर नहीं चलाया गया कि उससे उस चोर की मृत्यु हो जायेगी बल्कि इसलिए कि अभियुक्त द्वारा सद्भावपूर्वक अपनी संपत्ति के बचाव में वह चलाया गया था और अदालत ने उसके इस कृत्य को तर्कसंगत माना।
इसी प्रकार 'अ' एक रात को 'ब' के घर चोरी करने के उद्देश्य से जाता है। 'ब' उसके सर पर लाठी से वार करता है जिसके चलते 'अ' नीचे बेहोश होकर गिर जाता है। 'ब' उसके सर पर एक और वार करता है जिससे 'अ' के शरीर से काफी भारी मात्र में खून बहने लगता है और इसके बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। यहाँ इस मामले में 'ब' को अपनी संपत्ति के बचाव करने हेतु 'अ' की मृत्यु कारित करने की अनुमति नहीं थी क्यूंकि कोई भी चोरी का अपराध जो मृत्यु अथवा घोर उपहति की आशंका कारित नहीं करता है, उसके सापेक्ष मृत्यु कारित करने तक के प्राइवेट प्रतिरक्षा अधिकार का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
कुंवर सेन बनाम वीरसेन [(1969) Cri LJ 76) के मामले में, एक व्यक्ति एक रास्ते से जा रहा था, वह रास्ता किसी दूसरे व्यक्ति के खेत से गुजरता था। जब वह उस रस्ते के मध्य में था तो कुछ लोग आये और उससे पूछने लगे कि वो उस रास्ते से क्यूँ गुजर रहा है, इसपर उस व्यक्ति ने माफ़ी मांगी और कहा कि वो आगे से ऐसा नहीं करेगा, लेकिन जो लोग उससे पूछताछ करने आये थे और कुछ लाठी और हथियार साथ लाये थे, उन्होंने उसपर धावा बोल दिया और उसके हाथ की हड्डियाँ तोड़ दी। इस मामले में यह माना गया कि अभियुक्तों ने अपने संपत्ति के निजी प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमा को पार किया और घोर उपहति कारित करने हेतु उन्हें दोषी ठहराया गया।
अतिचारक (TRESPASSER) को हासिल निजी प्रतिरक्षा का अधिकार क्या है?
मुंशी राम बनाम दिल्ली प्रशासन (AIR 1968 SC 702) के मामले के बाद से यह अच्छी तरह से तय कानून हो चुका है कि तत्काल वास्तविक कब्जे (immediate actual possession) के हकदार व्यक्ति को भी किसी अतिचारक (trespasser) को बाहर निकालने का कोई अधिकार नहीं है, यदि वह अतिचारक भूमि के बंदोबस्त/स्थापित कब्जे (settled possession) में है और कानून द्वारा संपत्ति के प्रतिरक्षा का अधिकार शून्य नहीं कर दिया गया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि इस मामले में इस बात पर भी विचार हुआ कि जो संपत्ति के मालिक के विरुद्ध कब्जे का बचाव करने का अधिकार है, वह अधिकार एक संपत्ति पर लंबे समय की अवधि तक फैले हुए कब्जे के कारण होना चाहिए और संपत्ति के असल मालिक द्वारा प्राप्त किया जाना चाहिए।
ऐसे मामलों में यह उम्मीद की जाती है कि व्यक्ति (असल मालिक) द्वारा trespasser को कानूनी तरीकों से संपत्ति से निर्वासित किया जायेगा न कि कानून स्वयं के हाथ में लेते हुए [राम रतन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 1977 SC 619)]।
वहीँ पूरन सिंह बनाम पंजाब राज्य (AIR 1975 SC 1674) के मामले में कब्जे की प्रकृति की बात की गयी, जो संपत्ति और व्यक्ति की निजी रक्षा के अधिकार का उपयोग करने के लिए एक अतिचारक को हकदार बनती हैं, ऐसा कहा गया कि इसमें निम्नलिखित विशेषताएं होनी चाहिए:
(i) यह कि अतिचारक (TRESPASSER) पर्याप्त अवधि के दौरान संपत्ति के वास्तविक भौतिक कब्जे में होना चाहिए;
(ii) कि कब्जे के सम्बन्ध में स्वामी की व्यक्त या निहित सहमती होनी चाहिए अथवा उसे इसका ज्ञान होना चाहिए, जिसमें 'animus possidendi' का एक तत्व होता है।
(iii) Trespasser द्वारा संपत्ति के असल मालिक का संपत्ति से पूर्ण और अंतिम निर्वासन (disposession) किया जाना चाहिए; तथा'
(iv) खेती योग्य भूमि के मामले में, स्थापित कब्जे (settled possession) की गुणवत्ता निर्धारित करने के लिए सामान्य परीक्षणों में से एक यह होगा कि कब्जे प्राप्त कर लेने के बाद, कथित अतिचारक (trespasser) ने वहां कोई फसल उगाई थी या नहीं। यदि फसल को trespasser द्वारा उगाया गया था, तब संपत्ति के असल मालिक को trespasser द्वारा उगाई गई फसल को नष्ट करने और जबरन कब्जे में लेने का कोई अधिकार नहीं है, उस स्थिति में trespasser के पास निजी बचाव का अधिकार होगा और ऐसा कोई अधिकार असल मालिक के पास नहीं होगा।
धारा 97 हमे यह बताती है कि संपत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार आपराधिक अतिचार (Criminal trespass) के मामलों में उपलब्ध है। हमे यह समझना होगा कि जहाँ एक व्यक्ति केवल किसी दूसरे की संपत्ति में प्रवेश करता है, वह trespasser हो जाता है, हालाँकि जब उस प्रवेश के पीछे का आशय धारा 441 में बताये अपराध को करने के चलते हो तो वह प्रवेश आपराधिक अतिचार (Criminal trespass) हो जाता है। और संपत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार केवल आपराधिक अतिचार (Criminal trespass) के मामलों में उपलब्ध है।
धारा 441 कहती है,
यदि कोई ऐसी संपत्ति में या ऐसी संपत्ति पर, जो किसी दूसरे के कब्जे में है, इस आशय से प्रवेश करता है, कि वह कोई अपराध करे या किसी व्यक्ति को,जिसके कब्जे में ऐसी संपत्ति है; भयभीत, अपमानित या परेशान करे, अथवा ऐसी संपत्ति में या ऐसी संपत्ति पर, विधिपूर्वक प्रवेश करके वहां विधिविरुद्ध रूप में इस आशय से बना रहता है कि तद्द्वारा वह किसी ऐसे व्यक्ति को भयभीत, अपमानित या परेशान करे या इस आशय से बना रहता है कि वह कोई अपराध करे, उसे आपराधिक अतिचार करना कहा जाता है।
चेरुबिन ग्रेगोरी बनाम बिहार राज्य (AIR 1964 SC 205) के मामले में मृतक, आरोपी के घर के पास ही रहता था। घटना के दिन से लगभग एक सप्ताह पहले मृतक के घर के शौचालय की दीवार गिर गई थी और इसलिए अन्य लोगों के साथ मृतक ने आरोपी के शौचालय का उपयोग करना शुरू कर दिया। आरोपियों ने उनके वहां आने का विरोध किया। मौखिक चेतावनी, हालांकि, अप्रभावी साबित हुई और इसलिए उन्होंने यह तय किया उसके पास जाने वाले मार्ग में नंगे तांबे के तार शौचालय पर लगाया जाए और उस तार से विद्युत को प्रवाहित किया जाए जो उनके घर की वायरिंग से जुड़ा था। घटना वाले दिन, मृतका अपीलकर्ता के शौचालय में गयी और वहां उसने पहले से रखा हुआ नंगा तार छू लिया जिसके परिणामस्वरूप उसकी तुरंत ही मृत्यु हो गई। अदालत ने इसे संपत्ति की अभिरक्षा में किया गया कार्य नही माना और कहा कि एक अतिचारक एक डाकू नहीं है। केवल इसलिए कि एक अतिचारक भूमि में प्रवेश करता है, वह प्रत्यक्ष हिंसा के लिए खुदको नहीं सौंपता है। तार से निकलता हुआ करंट का वोल्टेज इस बात को नकारता है कि यह निजी संपत्ति की सुरक्षा के लिए एक उचित सावधानी थी।
संपत्ति की प्रतिरक्षा का अधिकार कब से शुरू एवं कब खत्म होता है?
धारा 105 इस बारे में बात करती है और कहती है कि,
सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार तब प्रारंभ होता है, जब सम्पत्ति के संकट की युक्तियुक्त आशंका प्रारंभ होती है।
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार, चोरी के विरुद्ध अपराधी के संपत्ति सहित पहुंच से बाहर हो जाने तक अथवा या तो लोक प्राधिकारियों की सहायता अभिप्राप्त कर लेने या संपत्ति प्रत्युद्धॄत हो जाने तक बना रहता है।
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार लूट के विरुद्ध तब तक बना रहता है, जब तक अपराधी किसी व्यक्ति की मॄत्यु या उपहाति, या सदोष अवरोध कारित करता रहता या कारित करने का प्रयत्न करता रहता है, अथवा जब तक तत्काल मॄत्यु का, या तत्काल उपहति का, या तत्काल वैयक्तिक अवरोध का, भय बना रहता है।
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आपराधिक अतिचार या रिष्टि के विरुद्ध तब तक बना रहता है, जब तक अपराधी आपराधिक अतिचार या रिष्टि करता रहता है।
संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार रात्रौ गॄह-भेदन के विरुद्ध तब तक बना रहता है, जब तक ऐसे गॄहभेदन से आरंभ हुआ गॄह-अतिचार होता रहता है।
कस्बे में रहने वाले कुछ सिंधी शरणार्थियों और स्थानीय मुसलमानों के बीच 5 मार्च, 1950 को कटनी में एक सांप्रदायिक दंगा हुआ। घटनास्थल पर यह पाया गया कि उस इलाके में मुस्लिम लोगों की दुकानों में सामान बिखरे हुए थे। यह भी सबूत है कि कुछ मुसलमानों ने अपनी जान गंवाई और उन दुकानों को लूटा गया। इसी इलाके में अपीलकर्ता की दुकान भी थी, जो ज़ांडा बाज़ार (जहा यह घटनाएं हुई) के पश्चिम में स्थित है। यह साबित किया गया कि जब ज़ांडा चौक में दंगे भड़क उठे तो अपीलकर्ता के इलाके में दहशत फैल गयी और अपीलकर्ता सहित वहां के लोग अपनी दुकानें बंद करने लगे। भीड़ अंततः इस इलाके में पहुंची और पूर्व की ओर स्थित इमारत के उस हिस्से में घुस गई जिसमें अपीलकर्ता के भाई की दुकान स्थित है और उसे लूट लिया गया। परिवार के अन्य सदस्य अपीलकर्ता के पास आये और उससे शरण मांगने लगे। भीड़ उसके दरवाजे पर लगातार लाठियों से तोड़ फोड़ करने लगी। उच्चतम अदालत ने यह माना कि यह पर्याप्त था कि भीड़ वास्तव में घर के दूसरे हिस्से में घुस गई थी और उसे लूट लिया था, जिसके बाद उनके परिवार की महिला और बच्चे अपने जीवन की सुरक्षा के लिए अपीलकर्ता के पास भाग गए और भीड़ वास्तव में उनके दरवाजे पर लाठियां बरसा रही थी, वहीँ मुस्लिम दुकानें पहले ही लूट ली गई थीं और आस-पास के इलाके में मुस्लिम मारे गए थे। अपीलकर्ता के लिए यह जानना असंभव था कि क्या उसकी दुकान को भी लूटा जायेगा या नहीं और उसे भी उसी तकलीफ का सामना करना पड़ेगा या नहीं। उसके पास प्रतिरक्षा का अधिकार था और वास्तव में वह अपने परिवार की रक्षा करने के लिए बाध्य था। अदालत ने आगे यह भी कहा कि धारा 102 एवं 105 के अंतर्गत प्राइवेट प्रतिरक्षा का अधिकार वहां शुरू होता है जहाँ शरीर अथवा संपत्ति पर संकट की युक्तियुक्त आशंका प्रारंभ होती है। [अमजद खान बनाम राज्य (AIR 1952 SC 165)]।
जैसा कि हम जानते हैं कि संपत्ति की रक्षा के सापेक्ष प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल मौके पर होना चाहिए न कि बाद में। उदाहरण के लिए, जहाँ एक व्यक्ति किसी के गले का हार छीन कर भागता है, उसके पीछे लोग भागते हैं पर उसे पकड़ नहीं पाते, यदि अगले दिन उस हार का मालिक उस व्यक्ति को कहीं देख लेता है और उसकी हत्या कारित करदेता है तो उसे प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अभ्यास के अंतर्गत तर्कसंगत नहीं माना जाएगा।
निजी प्रतिरक्षा का अधिकार: उपसंहार
जैसा कि हम यह जानते हैं कि जब किसी व्यक्ति पर हमला होता है (शरीर या संपत्ति पर) तो उसे यह अधिकार होगा कि वह अपने ऊपर या अपनी संपत्ति पर हो रहे हमले से बचाव करे और अपने या किसी अन्य के शरीर पर अपने या किसी अन्य की संपत्ति पर हो रहे हमले के विरुद्ध निजी प्रतिरक्षा का इस्तेमाल करे और पनप रहे या पनप चुके खतरे को खत्म करदे। हमारा कानून हमे कायरों की तरह खतरे से भाग खड़े होने की इजाजत नहीं देता है और न ही बदला लेने की इजाजत देता है [दर्शन सिंह बनाम पंजाब राज्य (AIR 2010 SC 1212)]।
अमजद खान बनाम राज्य (AIR 1952 SC 165) एवं बूटा सिंह बनाम पंजाब राज्य [(1991) 2 SCC 612] के मामलों में यह साफ़ किया गया कि जब किसी व्यक्ति के शरीर पर या संपत्ति पर कोई गंभीर खतरा पनपता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह 'गोल्डन स्केल' पर चीज़ों को तौलने बैठे कि क्या वह अपने हमलावर के ऊपर किस हद तक हमला करे, और उसके बाद वह निजी प्रतिरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल करे। अंत में हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह समस्त अधिकार धारा 99 के उपबंधो के अधीन है। हमने इस लेख में मृत्यु कारित करने तक के संपत्ति के प्रतिरक्षा अधिकार के बारे में बात की और उसे कई प्रसिद्ध वादों के दृष्टिकोण से समझा।
इसके अलावा हमने वह मामले भी देखे जहाँ मृत्यु कारित करने का अधिकार उपलब्ध नहीं है, इसके अलावा हमने इस अधिकार की सीमाओं को भी समझा। आशा है कि यह लेख आपको ज्ञानप्रद लगा होगा। आप हमारे साथ 'जानिए हमारा कानून' श्रृंखला से जुड़े रहें जिससे आपको अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर समेकित जानकारी मिलती रहे।