क्या पुलिस अभियुक्त के बयान के आधार पर FIR दर्ज कर सकती है? इसका साक्ष्य में मूल्य क्या है?

Live Law Hindi

9 Jun 2019 5:53 AM GMT

  • क्या पुलिस अभियुक्त के बयान के आधार पर FIR दर्ज कर सकती है? इसका साक्ष्य में मूल्य क्या है?

    पुलिस किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दर्ज कर सकती है, चाहे वह व्यक्ति आरोपी ही क्यों न हो और भले ही उसका बयान Confession (संस्वीकृति) हो या नहीं।

    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 प्रथम सूचना रिपोर्ट के पंजीकरण से संबंधित है (हालांकि यह धारा 'प्रथम सूचना रिपोर्ट' या 'FIR' शब्द का उपयोग नहीं करती है)। इसमें कहा गया है कि संज्ञेय अपराध (cognizable offence) के कमीशन से जुड़ी हर जानकारी, अगर किसी थाने के प्रभारी अधिकारी को मौखिक रूप से दी जाती है, तो उसके द्वारा या उसके निर्देशन में किसी और के द्वारा उस जानकारी को लिखा जाएगा, और जानकारी देने वाले को पढ़कर सुनाया जायेगा; और इस तरह की हर जानकारी, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या लिखित रूप में कर दी गई हो, जानकारी देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी, और उस जानकारी के पदार्थ को किसी पुस्तक में इस तरह के अधिकारी द्वारा, इस रूप में रखा जायेगा जैसा राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाये।

    धारा में आगे कहा गया है कि एक पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी (Officer in charge of a police station), मुखबिर (informant) की स्थिति पर ध्यान दिए बिना, संज्ञेय अपराध के कमीशन से संबंधित हर जानकारी को दर्ज कर सकते हैं। ललिता कुमारी मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह माना है कि यदि सूचना, संज्ञेय अपराध के कमीशन का खुलासा करती है तो धारा 154 के तहत FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
    इसलिए पुलिस किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर FIR दर्ज कर सकती है, चाहे वह व्यक्ति आरोपी ही क्यों न हो और भले ही उसका बयान 'संस्वीकृति' (Confession) हो या नहीं।
    FIR साक्ष्य के रूप में

    FIR अपने आप में ठोस प्रमाण नहीं है। इसका उपयोग, जब मुखबिर को गवाह के रूप में बुलाया जाता है, तब साक्ष्य अधिनियम की धारा 157 के तहत मुखबिर की पुष्टि करने के लिए या अधिनियम की धारा 145 के तहत उसका विरोधाभास करने के लिए किया जा सकता है।
    दोष-स्वीकृति FIR की स्थिति (साक्ष्य मूल्य)

    सुप्रीम कोर्ट ने अघ्नू नागेशिया बनाम बिहार राज्य के मामले में दोष-स्वीकृति FIR (confessional FIR) की स्थिति एवं इसके साक्ष्य मूल्य के सवाल की जाँच की थी। उक्त मामले में अघ्नू नागेशिया पर अपनी चाची रत्नी, उसकी बेटी, चमीन, उसके दामाद सोमरा एवं सोमरा के बेटे दिलु की हत्या का आरोप था (धारा 302 के तहत).
    अभियोजन का मामला यह था कि 11 अगस्त, 1963 को सुबह 7 बजे से 8 बजे के बीच अपीलार्थी (अघ्नू नागेशिया) ने सोमरा की हत्या डुंगरीहरन हिल्स में और बाद में केसरी गढ़ा मैदान में चमीन और फिर जामटोली गाँव में रतनी के घर पर रतनी और दिलू की हत्या कर दी थी।
    घटना की प्रथम सूचना खुद आरोपी ने पुलिस स्टेशन पालकोट में दर्ज कराई थी। प्रभारी अधिकारी द्वारा उसके द्वारा दी गयी जानकारी को लिखा गया था। सब-इंस्पेक्टर और अभियुक्त ने रिपोर्ट पर अपने बाएं अंगूठे का निशान लगाया। सब-इंस्पेक्टर ने तुरंत उसे गिरफ्तार कर लिया।
    अगले दिन, आरोपी के साथ सब-इंस्पेक्टर रतनी के घर गए, जहाँ आरोपी ने रत्नी और दिलु के शवों की ओर इंगित किया और उस स्थान को भी दिखाया जो रत्नी के बाग में एक जगह थी, जो झाड़ियों और घास से ढकी थी जहाँ उसने एक टांगी छुपाया था। फिर वह सब इंस्पेक्टर और गवाहों को कसारी गरहा खेत में ले गया और घुंघु से ढके एक गड्ढे में पड़े चमन के मृत शरीर की ओर इंगित किया।
    अभियुक्तों की ओर से यह दलील दी गई कि यह पूरा बयान एक पुलिस अधिकारी के समक्ष दिया गया बयान है और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के संबंध में, इसे अपीलकर्ता के खिलाफ साबित नहीं किया जा सकता है। अभियोजन पक्ष की ओर से कहा गया कि धारा 25, केवल बयान के उन हिस्सों की रक्षा करती है जो अपीलकर्ता द्वारा की गयी हत्या का खुलासा करते हैं और शेष बयान इस धारा द्वारा संरक्षित नहीं है।
    साक्ष्य अधिनियम में संस्वीकृति (Confession) से संबंधित कानून

    भारतीय साक्ष्य अधिनियम "संस्वीकृति" (Confession) को परिभाषित नहीं करता है। लंबे समय तक, भारत के न्यायालयों ने स्टीफन के डाइजेस्ट ऑफ़ द लॉ ऑफ़ एविडेंस के अनुच्छेद 22 में दी गई "संस्वीकृति" की परिभाषा को अपनाया।
    उस परिभाषा के अनुसार, एक संस्वीकृति किसी भी समय, किसी अपराध के आरोपित व्यक्ति द्वारा किया गया Admission (स्वीकृति) है, यह बताते या सुझाव देते हुए कि उसने वह अपराध किया है। यह परिभाषा
    पाकला नारायणस्वामी बनाम सम्राट
    , [66 Ind App 66 p. 81: (AIR 1939 PC 47 p. 52)] में न्यायिक समिति द्वारा त्याग दी गई थी।
    लॉर्ड एटकिन ने देखा: "....... कोई भी बयान जिसमें self exculpatory तत्व शामिल हैं, संस्वीकृति (Confession) नहीं हो सकता है, यदि exculpatory बयान किसी ऐसे तथ्य को लेकर है, जो यदि सत्य हो तो वह कथित अपराध (जिसके सम्बन्ध में संस्वीकृति दी जा रही है) को झुटला दिया जाएगा। इसके अलावा, एक संस्वीकृति, या तो किये गए अपराध को स्वीकारे, या उस अपराध के सन्दर्भ में सभी तथ्य, जो उस अपराध का गठन करते हैं, को स्वीकार करे। एक गंभीर रूप से अभियोगात्मक (incriminating) तथ्य का, यहां तक कि एक निर्णायक रूप से अभियोगात्मक (incriminating) तथ्य की स्वीकृति (Admission), स्वयं एक संस्वीकृति (Confession) नहीं है, उदाहरण के लिए, एक स्वीकृति कि अभियुक्त उस चाकू या रिवाल्वर का मालिक है जिससे हत्या हुई, और वह चाकू या रिवाल्वर हाल में उसके कब्जे में थी, बिना किसी अन्य व्यक्ति के उस चाकू या रिवाल्वर के कब्जे के स्पष्टीकरण के।"
    इन टिप्पणियों को पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (1), 1953 SCR 94 p. 104; (AIR 1952 SC 354 at p. 357) के मामले में इस न्यायालय की स्वीकृति प्राप्त हुई। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम देवमन उपाध्याय, 1961 (1) SCR 14 p. 21: (AIR 1960 SC 1125 pp. 1128-1129) के मामले में जस्टिस शाह ने संस्वीकृति को एक व्यक्ति द्वारा दिए गए बयान के रूप में संदर्भित किया कि उसने अपराध किया है।
    एक संस्वीकृति (Confession) को अपराध के लिए आरोपित व्यक्ति द्वारा अपराध की स्वीकृति (Admission) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। एक बयान जिसमें self exculpatory तत्त्व शामिल हैं, एक संस्वीकृति (Confession) नहीं हो सकती है, यदि exculpatory बयान उस तथ्य से सम्बंधित है, जो यदि सही है, तो कथित अपराध (जिसके सम्बन्ध में संस्वीकृति दी जा रही है) को नकार देगा। यदि किसी अभियुक्त की स्वीकृति को उसके विरुद्ध उपयोग किया जाना है, तो इसको पूर्ण रूप से साक्ष्य के रूप में दिया जाना चाहिए और यदि स्वीकृति का एक भाग exculpatory और एक भाग inculpatory है, तो अभियोजन पक्ष केवल inculpatory भाग को साक्ष्य में उपयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। (देखें: अघ्नू नागेशिया बनाम बिहार राज्य [AIR 1966 SC 119], हनुमंत गोविंद बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1952 SCR 1091 p. 1111: (AIR 1952 SC 343 p. 350) और 1953 SCR 94: (AIR 1952 SC 354)।
    यदि संस्वीकृति का सबूत दिया जाना, कानून के किसी प्रावधान जैसे कि साक्ष्य अधिनियम S.24, S.25 और S.26 के बाहर रखा गया है, तो उसके सभी भागों में संपूर्ण संस्वीकृति बयान (Confessional statement) जिसमे मामूली incriminating तथ्य शामिल हैं, को भी इससे बाहर रखा जाना चाहिए, जब तक कि किसी अन्य प्रावधान द्वारा जैसे कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27, के तहत इसके प्रमाण की अनुमति नहीं दी जाती है। यदि एक confessional statement में incriminating तथ्यों की स्वीकृति (Admission) के प्रमाण की अनुमति दी जायेगी, तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 24, 25 और 26 का कोई ख़ास मतलब नहीं रह जायेगा।
    कभी-कभी, एक बयान में एक वाक्य, संस्वीकृति के अंतर्गत नहीं आता है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304A के तहत आरोपित एक व्यक्ति और उसके द्वारा एक पुलिस अधिकारी को दिए गए एक बयान के एक मामले पर अगर गौर किया जाये, जिसमे वह कहता है, "मैं नशे में था: मैं 80 मील प्रति घंटे की गति से कार चला रहा था। मैं 'A' को 80 गज की दूरी से सड़क पर देख सकता था; मैंने हॉर्न नहीं बजाया: मैंने कार को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, कार ने 'A' को ठोकर मार दिया।" इस कथन में एक भी वाक्य एक संस्वीकृति (Confession) नहीं है; लेकिन यदि यह सम्पूर्ण कथन एक साथ पढ़ा जाए तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 304A के तहत अपराध की संस्वीकृति के अंतर्गत आयेगा, और प्रत्येक वाक्य को अलग-अलग एक non-confessional statement के रूप में सबूत के रूप में स्वीकार करने की अनुमति नहीं होगी।
    फिर से, एक ऐसे मामले को लीजिये जहां एक बयान में एक वाक्य अपराध की स्वीकृति के अंतर्गत आता है। 'A' कहता है, "मैंने 'B' को एक टंगी के साथ मारा और उसे चोट पहुंचाई।" चोट के परिणामस्वरूप 'B' की मृत्यु हो गई। 'A' ने अपराध किया है और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत उस पर आरोप लगेगा। जब तक वह अपने मामले को मान्यता प्राप्त साधारण अपवादों में से एक के भीतर नहीं लाता है, तब तक उसका बयान अपराध की स्वीकृति माना जायेगा, लेकिन बयान के अन्य भाग जैसे कि मकसद, तैयारी, उकसावे की अनुपस्थिति, हथियार को छुपाना और बाद के आचरण, सभी अपराध और अभियुक्त के इरादे और ज्ञान की गंभीरता पर प्रकाश डालते हैं, और निजी रक्षा, दुर्घटना और अन्य संभावित बचावों के अधिकार को नकारते हैं। Confessional statement में निहित incriminating तथ्य के प्रत्येक की स्वीकृति (Admission), संस्वीकृति (Confession) का हिस्सा है।
    ऊपर उल्लिखित अघ्नू नागेशिया मामले में, एक विस्तृत चर्चा के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने निम्नानुसार अभिनिर्णित किया:
    यदि आरोपी द्वारा एक पुलिस अधिकारी को प्रथम सूचना रिपोर्ट दी जाती है और वह एकConfessional statement की श्रेणी में आता है, तो संस्वीकृति का प्रमाण साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 द्वारा प्रतिबंधित है। संस्वीकृति में केवल अपराध की स्वीकृति ही शामिल नहीं है, बल्कि अपराध से संबंधित घटनाओं के incriminating तथ्य जो उस Confessional statement में मौजूद हैं, उनकी स्वीकृति भी शामिल है। Confessional statement का कोई भी हिस्सा साक्ष्य में प्राप्य नहीं है, सिवाय इसके कि धारा 25 का प्रतिबंध, धारा 27 द्वारा हटा दिया गया हो।

    क्या धारा 27 साक्ष्य अधिनियम के तहत, किसी सूचना के एक हिस्से से हुई खोज प्राप्य (admissable) है?

    अघ्नू नागेशिया मामले ने उपरोक्त प्रश्न का उत्तर दिया है;
    "धारा 27, केवल एक पुलिस अधिकारी की हिरासत में किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति से प्राप्त जानकारी पर लागू होती है। अब, सब-इंस्पेक्टर ने कहा कि उसने अपीलकर्ता द्वारा दी गयी प्रथम सूचना रिपोर्ट से उसके जरिये की गयी खोज के बाद अपीलकर्ता को गिरफ्तार कर लिया। इसलिए प्रथम दृष्टया, अपीलकर्ता ने जब रिपोर्ट दी, तब वह एक पुलिस अधिकारी की हिरासत में नहीं था (जब तक यह नहीं कहा जा सकता कि वह तब रचनात्मक हिरासत में था)। इस सवाल पर, कि जब कोई व्यक्ति जो सीधे पुलिस अधिकारी को जानकारी दे रहा है, और जहाँ उस जानकारी को उसके खिलाफ सबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, तब क्या यह माना जाए कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अर्थ के भीतर, वह पुलिस अधिकारी की हिरासत में खुद को प्रस्तुत कर रहा है, इस पर मतभेद है। जस्टिस शाह और जस्टिस सुब्बा राव की (1961) 1 SCR 14 की टिप्पणियों को देखें। : (AIR 1960 SC 1125)। मामले के प्रयोजनों के लिए, हम यह मान लेंगे कि अपीलकर्ता रचनात्मक रूप से पुलिस हिरासत में था और इसलिए, प्रथम सूचना रिपोर्ट में शामिल जानकारी, जिससे शवों एवं टंगी की खोज की गयी, वह सबूत में प्राप्य है।
    "
    क्या एक अभियुक्त सीधे अपनी संस्वीकृति दर्ज करने के लिए मजिस्ट्रेट से संपर्क कर सकता है?

    जस्टिस के. टी. थॉमस और आर. पी. सेठी की 2 जजों की बेंच ने महाबीर सिंह बनाम हरियाणा राज्य के मामले में इस सवाल पर विचार किया। इस वाद में, हत्या के एक मामले में अभियुक्त ने सुबह के समय अपने आप को एक अदालत में पेश किया, वहां चाकू का प्रदर्शन किया और मजिस्ट्रेट से उसका बयान दर्ज करने के लिए कहा।
    न्यायालय ने कहा कि एक आरोपी व्यक्ति मजिस्ट्रेट के सामने पेश हो सकता है और यह आवश्यक नहीं है कि इस तरह के आरोपी को पुलिस द्वारा संस्वीकृति (Confession) की रिकॉर्डिंग के लिए पेश किया जाए।
    लेकिन यह आवश्यक है कि इस तरह की उपस्थिति कोड (दण्ड प्रक्रिया संहिता) के अध्याय XII के तहत एक अन्वेषण (Investigation) के दौरान होनी चाहिए। यदि मजिस्ट्रेट यह नहीं जानता है कि यह एक ऐसे मामले से सम्बंधित है जिसके लिए अध्याय XII के प्रावधानों के तहत अन्वेषण शुरू किया गया है, तो उसके लिए संस्वीकृति दर्ज करना स्वीकार्य नहीं है। यदि कोई भी व्यक्ति अदालत में जाता है और मजिस्ट्रेट से अपना कबूलनामा/संस्वीकृति दर्ज करने की मांग करता है, क्योंकि उसने एक संज्ञेय अपराध किया है, तो मजिस्ट्रेट के लिए यह खुला है कि वह इसके बारे में पुलिस को सूचित करे। इसके बाद पुलिस को कोड के अध्याय XII में परिकल्पित कदम उठाने होंगे। मजिस्ट्रेट के लिए एक बयान/संस्वीकृति दर्ज करना तब संभव हो सकता है यदि उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि मामले में अन्वेषण शुरू हो गया है और वह व्यक्ति जो उसके समक्ष रिकॉर्डिंग की मांग कर रहा है, वह ऐसे मामले से सम्बंधित है। अन्यथा एक मजिस्ट्रेट की अदालत वह जगह नहीं है जिसमें कोई भी व्यक्ति जब चाहे आ जाये और मजिस्ट्रेट से यह मांग कर सके कि वह जो भी कहे, उसे मजिस्ट्रेट self-incriminatory बयान के तौर पर रिकॉर्ड करे।

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