शाह बानो से लेकर शबाना बानो तक: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं और धारा 125 CrPC के तहत रखरखाव का दावा करने का अधिकार

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29 July 2019 11:42 AM IST

  • शाह बानो से लेकर शबाना बानो तक: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं और धारा 125 CrPC के तहत रखरखाव का दावा करने का अधिकार
    "जब उसने संहिता के तहत अदालत में आना चुना है, तब यह नहीं कहा जा सकता है कि चूँकि वह एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला है इसलिए इस आधार पर उसे कानून के अंतर्गत ऐसी इजाजत नहीं है।"


    वर्ष 2009 में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि, भले ही एक मुस्लिम महिला को तलाक दिया गया हो, फिर भी वह अपने पति से आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत, इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद भी, जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती है, भरण-पोषण की मांग कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानून को साफ़ किए जाने के एक दशक बाद भी, कई अदालतें अभी भी तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं द्वारा संहिता की धारा 125 के तहत दायर आवेदनों की स्थिति को लेकर उलझन में हैं।
    हाल ही में, पटना उच्च न्यायालय ने एक निचली अदालत के एक आदेश को पलट दिया जिसमे एक मुस्लिम महिला द्वारा दायर एक गुजारा भत्ता (maintenance) आवेदन को खारिज कर दिया गया था। ऐसा लगता है कि अदालत ने पति की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि चूंकि पत्नी ने तलाक स्वीकार कर लिया है, इसलिए उसे Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act के प्रावधानों द्वारा निर्देशित किया जाएगा, और संहिता की धारा 125 के तहत उसकी याचिका बरक़रार नहीं रह सकती है।
    इस आदेश के खिलाफ दायर पुनर्विचार याचिका पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने देखा:
    "याचिकाकर्ता के पास या तो अधिनियम के अंतर्गत या संहिता के तहत मेंटेनेंस की मांग करने का विकल्प है। जब उसने संहिता के तहत अदालत में आना चुना है, तब यह नहीं कहा जा सकता है कि चूँकि वह एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला है इसलिए इस आधार पर उसे कानून के अंतर्गत ऐसी इजाजत नहीं है। यह माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शबाना बानो (सुप्रा), जिसमें पूर्ववर्ती निर्णयों के साथ-साथ संवैधानिक बेंच के निर्णय डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ का जिक्र भी शामिल है, सहित तमाम निर्णयों में निर्धारित कानून के विपरीत है."

    3 वर्ष पहले बॉम्बे हाईकोर्ट को भी निचली अदालत के ऐसे ही एक आदेश का सामना करना पड़ा, जिसे उसने पलट दिया था। उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि भले ही पार्टियां, मुस्लिम कानून द्वारा शासित हों और उनपर Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 के प्रावधान लागू हों, फिर भी मेंटेनेंस केवल इद्दत अवधि तक ही सीमित रखने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसका विस्तार उक्त महिला के पुनर्विवाह कर लेने तक होगा (मसलन, पुनर्विवाह के बाद नहीं)।
    देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून की अज्ञानता मामूली बात नहीं है, वो भी तब जब यह एक महिला के साथ, केवल इसलिए कि वह एक विशेष धर्म से संबंधित है, अन्याय करता हो। इस लेख का उद्देश्य धारा 125 CrPC के तहत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकार के दायरे के बारे में सभी भ्रमों और गलत धारणाओं/सूचनाओं/जानकारियों को दूर करना है।
    धारा 125 सीआरपीसी
    धारा 125 सीआरपीसी यह प्रदान करती है कि, यदि किसी व्यक्ति के पास पर्याप्त साधन हैं और वह अपनी पत्नी को, जो खुदको मेन्टेन करने में अक्षम है, बनाए रखने (maintain) से इनकार करता है, तब इस तरह की उपेक्षा या मेन्टेन करने से इनकार करने के सबूत पर, प्रथम श्रेणी का एक मजिस्ट्रेट, ऐसे व्यक्ति को उसकी पत्नी के रखरखाव के लिए, ऐसे मासिक दर जो पाँच सौ रुपये से अधिक नहीं है, मासिक भत्ता देने का आदेश दे सकता है। इस खंड के बारे में स्पष्टीकरण यह बताता है कि "पत्नी" के अंतर्गत एक वो महिला भी शामिल है, जिसका तलाक हो चुका है, या उसने अपने पति से तलाक ले लिया है और अभी तक दोबारा शादी नहीं की है।
    इस प्रावधान को प्रथम दृष्टया पढ़ने पर यह बात साफ़ होती है कि एक तलाकशुदा महिला, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, अगर वह खुद को मेन्टेन करने में असमर्थ है, तो वह इस प्रावधान के तहत रखरखाव का दावा कर सकती है।
    शाह बानो का ऐतिहासिक निर्णय

    तो धारा 125 सीआरपीसी के तहत रखरखाव का दावा करने से मुस्लिम महिलाओं को रोकने का क्या आधार है? इस सवाल का जवाब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम के नाम से प्रसिद्ध मामले में सामने आये तथ्यों और दलीलों में निहित है।
    इस मामले में, एक व्यक्ति जो एक वकील था, ने धारा 125 सीआरपीसी के तहत पारित एक आदेश को चुनौती दी कि जिसमे उसे अपनी तलाकशुदा पत्नी को रखरखाव का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था। उसका तर्क यह था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ ने उसकी तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण के लिए उसे कोई दायित्व नहीं दिया है।
    2 जजों की बेंच, जिसने उसके मामले को सुना, ने पहले के 2 निर्णयों, बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फ़िदल्ली चोथिया (1) और फ़ज़लुनबी बनाम के. खादेर वली
    (2) के औचित्य पर संदेह किया. इन निर्णयों में यह कहा गया था कि एक तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी धारा 125 के अंतर्गत रखरखाव के लिए आवेदन करने की हकदार है। इस प्रकार यह मामला बड़ी पीठ को भेजा गया था। इस मामले में 5 न्यायाधीशों की पीठ की अध्यक्षता न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड़ ने की-
    विभिन्न बातों का उल्लेख करते हुए, संविधान पीठ ने आखिरकार यह अभिनिर्णित किया:
    "हमने यह दिखाने का प्रयास किया है कि क़ानून की भाषा को अगर देखा जाए, तो यह निष्कर्ष निकालने से कोई बच नहीं सकता है कि एक तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी धारा 125 के तहत रखरखाव के लिए आवेदन करने की हकदार है और 'महर' वह राशि नहीं है, जो मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, तलाक होने पर देय है।"
    शाह बानो के फैसले से भारी हंगामा हुआ जिसने तत्कालीन सरकार को एक नया कानून, Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986 बनाने पर मजबूर किया। अधिनियम की धारा 3 (1) में यह प्रावधान है कि एक तलाकशुदा महिला को अपने पति से एक उचित अनुरक्षण प्राप्त करने का अधिकार होगा, जिसका भुगतान इद्दत अवधि के भीतर किया जाना है। धारा 3 (2) के तहत, तलाकशुदा मुस्लिम महिला मजिस्ट्रेट के सामने अर्जी दाखिल कर सकती है, यदि उसके पूर्व पति ने उसे देय उचित भत्ता और रखरखाव या महर का भुगतान नहीं किया है या उसकी शादी के समय या उससे पहले उसके रिश्तेदारों, या दोस्तों, या पति या उसके किसी रिश्तेदार या दोस्तों द्वारा दी गई संपत्तियों का वितरण नहीं किया है। धारा 3 (3) उस प्रक्रिया को प्रदान करती है जिसमें मजिस्ट्रेट ऐसी महिला के पूर्व पति को तलाकशुदा महिला को उचित रखरखाव भत्ते, जो उस तलाकशुदा महिला की जरूरतों एवं शादी के दौरान जी रही मानक जीवन का आनंद उठाने एवं पति की आर्थिक स्थिति के मुताबिक उचित हो, का भुगतान करने का निर्देश देने वाला एक आदेश पारित कर सकता है।
    संसद द्वारा अधिनियमित इस कानून को बाद में डेनियल लतीफी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी, जो शाह बानो के वकील थे। हालांकि इस चुनौती को खारिज कर दिया गया, पर संविधान पीठ ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणियां की:
    • एक मुस्लिम पति तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए उचित प्रावधान/प्रबंध करने के लिए उत्तरदायी है, जिसमें स्पष्ट रूप से उसका रखरखाव भी शामिल है। इद्दत अवधि के बाद भी प्रभावी रहने वाले इस तरह के उचित प्रावधान/प्रबंध को एक्ट की धारा 3 (1) (ए) के संदर्भ में इद्दत अवधि के भीतर पति द्वारा किया जाना चाहिए।
    • अधिनियम की धारा 3 (1) (ए) के तहत उत्पन्न होने वाले अपनी तलाकशुदा पत्नी को मुस्लिम पति की देयता (रखरखाव का भुगतान करने के लिए), इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है।
    • एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला जिसने पुनर्विवाह नहीं किया है और जो इद्दत अवधि के बाद खुद को मेंटेन रखने में सक्षम नहीं है, वह अधिनियम की धारा 4 के तहत, अपने ऐसे रिश्तेदारों के खिलाफ, जिसमे उसके बच्चे और माँ-बाप शामिल हैं, जो मुस्लिम कानून के अनुसार उसकी मृत्यु पर उसकी संपत्ति को प्राप्त करने के हकदार होंगे, आवेदन कर सकती है. यदि कोई भी रिश्तेदार रखरखाव का भुगतान करने में असमर्थ है, तो मजिस्ट्रेट अधिनियम के तहत स्थापित राज्य वक्फ बोर्ड को ऐसे रखरखाव का भुगतान करने का निर्देश दे सकता है।
    • अधिनियम के प्रावधान, भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के खिलाफ नहीं हैं।
    अधिनियम को बरकरार रखते हुए, पीठ ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण अवलोकन किया:
    "शाह बानो के मामले में इस अदालत ने स्पष्ट रूप से धारा 125 सीआरपीसी के पीछे के तर्क को समझाया है और कहा है कि यह धारा एक तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी को उसके रखरखाव हेतु उसके लिए भुगतान का प्रावधान करती है और यह स्पष्ट रूप से मुस्लिम महिला की योनिभोग या विनाश (vagrancy or destitution) से बचाने के लिए है। हमारे समक्ष यह विवाद मुस्लिम संगठनों की ओर से रखा गया है कि अधिनियम के तहत, योनिभोग या विनाश (vagrancy or destitution) से बचने का प्रावधान किया गया है, लेकिन पति को गलत तरह से दंडित करते हुए नहीं, बल्कि दूसरों के माध्यम से रखरखाव प्रदान करते हुए ऐसा किया गया है। यदि किसी कारण से अधिनियम की धारा 3 (1) (ए) और धारा 4 की भाषा पर हमारे द्वारा रखी गई व्याख्या स्वीकार्य नहीं है, तो हमें प्रावधानों के प्रभाव की जांच करनी होगी, जोकि यह है कि एक मुस्लिम महिला (जिसे तलाक दिया गया है), इद्दत की अवधि के बाद, पति से अनुरक्षण का अधिकार नहीं रख सकेगी, और यदि इसके बाद कुछ भी बचता है तो वह यह है कि इसके बाद रखरखाव केवल धारा 4 के अंतर्गत या वक्फ बोर्ड से ही वसूला जा सकता है। ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, 1985 (3) एससीसी 545, और मेनका गांधी बनाम भारत संघ, 1978 (1) एससीसी 248 में इस न्यायालय ने यह अभिनिर्णित किया कि संविधान में अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की अवधारणा की गारंटी है, जिसके अंतर्गत गरिमा के साथ जीने का अधिकार शामिल होगा। अधिनियम से पहले, एक मुस्लिम महिला, जिसे उसके पति द्वारा तलाक दिया गया था, उसे धारा 125 सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत अपने पति से भरण-पोषण का अधिकार दिया गया था, जब तक कि वह दोबारा शादी नहीं कर लेती है और ऐसा अधिकार, यदि खत्म किया गया है तो वह उचित नहीं होगा। इस प्रकार अधिनियम के प्रावधान, जो तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से भरण-पोषण मांगने के अधिकार से वंचित करते हैं और उसके रखरखाव के लिए पूर्व पति द्वारा भुगतान, केवल इद्दत की अवधि के लिए सीमित करते हैं और जिसके बाद उसे एक के बाद एक रिश्तेदारों और अंततः वक्फ बोर्ड के दरवाजे पर दस्तक देना होगा, वह धारा 125 सीआरपीसी के प्रावधानों का उचित विकल्प नहीं दिखता है। दंड प्रक्रिया संहिता के लाभकारी प्रावधानों के तहत अपने पूर्व पति से रखरखाव के अधिकार से मुस्लिम महिलाओं को इस तरह से वंचित करना जो अन्यथा भारत में अन्य सभी महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं, को उचित और निष्पक्ष कानून नहीं कहा जा सकता है, और यदि ये प्रावधान आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अध्याय IX के प्रावधानों से कम फायदेमंद हैं तो एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला के साथ स्पष्ट रूप से अनुचित रूप से भेदभाव किया गया है और उसे उस सामान्य कानून के प्रावधानों के संरक्षण से बाहर निकाल दिया गया है, जो कानून हिंदू, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाई महिलाओं या किसी अन्य समुदाय से संबंधित महिलाओं के लिए उपलब्ध हैं। इसलिए, यह प्रावधान प्रथम दृष्टया, संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत सभी लोगों को समानता और कानून की समान सुरक्षा के सापेक्ष हिंसक प्रतीत होता है, और यह संविधान के अनुच्छेद 15 का भी उल्लंघन करता है, जो धर्म के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकता है, क्यूंकि अधिनियम स्पष्ट रूप से केवल मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं पर लागू होगा और केवल इसलिए कि वे मुस्लिम धर्म से संबंधित है। यह अच्छी तरह से तय है कि निर्माण के नियम के आधार पर, जहाँ एक दिया गया क़ानून अल्ट्रा वाइरस या असंवैधानिक हो सकता है और इसलिए, वह शून्य होगा, जबकि वही कानून एक अन्य निर्माण जो अनुमेय है, के अनुसार प्रभावी रहता है, तब अदालत उसे प्रभावी रखने वाले पक्ष को वरीयता देगी क्यूंकि ऐसा माना जाता है कि विधानमंडल असंवैधानिक कानूनों को लागू करने का इरादा नहीं रखता है। हमें लगता है, बाद की व्याख्या को स्वीकार किया जाना चाहिए और इसलिए, हमारे द्वारा रखी गई व्याख्या से अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा जा सकता है। यह अच्छी तरह से तय है कि जब एक अधिनियम को उचित तरह से पढ़ने से उस अधिनियम की वैधता को बरकरार रखा जा सकता है, तो इस तरह की व्याख्या अदालतों द्वारा स्वीकार की जाती हैं।"
    अधिनियम की धारा 3 की व्याख्या करते हुए, बेंच ने आगे देखा:
    "अधिनियम की धारा 3 के शब्दों से पता चलता है कि पति के 2 अलग और विशिष्ट दायित्व हैं: (1) अपनी तलाकशुदा पत्नी के लिए एक उचित प्रबंध/प्रावधान करना, और (2) उसके लिए रखरखाव प्रदान करना। इस धारा का जोर किसी ऐसे प्रावधान या रखरखाव की प्रकृति या अवधि पर नहीं है, लेकिन इसका जोर उस समय पर है, जिसके भीतर ऐसा प्रावधान और रखरखाव के भुगतान की व्यवस्था को कर दिया जाना चाहिए, अर्थात्, इद्दत अवधि के भीतर। यदि प्रावधान को इस प्रकार से पढ़ा जाता है तो अधिनियम, इद्दत की अवधि के बाद के रखरखाव के लिए देयता से ऐसे व्यक्ति को बाहर रखता है, जो पहले से ही अपनी पत्नी के प्रति अपने कर्त्तव्य, उचित प्रावधान, रखरखाव हेतु एकमुश्त में इन राशियों का भुगतान करके एवं महर एवं अधिनियम की धारा 3 (1) (सी) और 3 (1) (डी) के अनुसार दहेज़ रिस्टोर करके, का निर्वहन कर चुका है।"
    अंत में, यह मुद्दा फिर से शबाना बानो बनाम इमरान खान में सामने आ गया, जिसमें यह कहा गया था कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी अपने तलाकशुदा पति से रखरखाव का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती है। यह आगे कहा गया कि धारा 125 Cr.P.C के तहत एक याचिका को, जब तक महिला पुनर्विवाह नहीं करती है, तब तक पारिवारिक न्यायालय के समक्ष बनाए रखा जा सकेगा। Cr.P.C की धारा 125 के तहत प्रदान किए जाने वाले रखरखाव की राशि को, केवल इद्दत अवधि तक सीमित नहीं किया जा सकता है. यह कहा गया:
    "डेनियल लतीफी (सुप्रा) और इकबाल बानो (सुप्रा) में इस अदालत के निर्णयों के प्रासंगिक अंशों को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं करती है। चूँकि यह एक लाभकारी कानून है इसलिए इसका लाभ तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को मिलना चाहिए।"
    शाहबानो से लेकर शबाना बानो तक

    शबाना बानो में, सुप्रीम कोर्ट ने मूल रूप से मुस्लिम महिलाओं के अधिकार के सवाल पर वर्ष 1985 में, शाह बानो में धारा 125 सीआरपीसी के तहत रखरखाव का दावा करने के विषय में जो अभिनिर्णित किया गया, उसे ही दोहराया है। यह काफी निराशाजनक है जब कुछ अदालतें ऐसी याचिकाओं को, बरक़रार न रख सकने योग्य कहते हुए खारिज कर देती हैं।

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