अगर पुलिस प्रथम दृष्टया रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से मना करें, तो क्या करें?

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22 July 2019 5:31 AM GMT

  • अगर पुलिस प्रथम दृष्टया रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने से मना करें, तो क्या करें?

    भारतीय दंड संहिता की धारा १५४ प्रथम दृष्टया रिपोर्ट (FIR) दर्ज़ करने से सम्बन्ध रखती है, हालाँकि यह धारा 'प्रथम दृष्टया रिपोर्ट' शब्द का प्रयोग नहीं करती है.

    धारा १५४(१) के अनुसार संज्ञेय अपराध किये जाने से सम्बंधित प्रत्येक सूचना, थानाधिकारी को अगर मौखिक दी गयी है तो उसे वह स्वयं या अपने निर्देशन में लेखबद्ध करवाएगा और यह सूचना, सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और उस पर उस व्यक्ति के हस्ताक्षर लिए जाएंगे एवं इस सूचना का सार राज्य सरकार के नियमों के अनुसार एक पुस्तक में प्रविष्ट किया जायेगा.

    FIR दर्ज़ करने की क्या पूर्व शर्तें हैं?

    FIR दर्ज़ करने की एकमात्र शर्त यह है कि दी गयी सूचना से संज्ञेय अपराध किये जाने का खुलासा किया गया हो.

    "संहिता की धारा १५४ की शर्त मात्र यह है कि रिपोर्ट द्वारा संज्ञेय अपराध किये जाने की सूचना प्रकाश में लाई गयी हो और यह अन्वेषण/जाँच पड़ताल की मशीनरी को हरकत में लाने के लिए पर्याप्त है."

    "संहिता की धारा १५४(१) में विधायिका ने अपने सामूहिक निर्णय के आधार पर सावधानीपूर्वक 'सूचना' शब्द का प्रयोग किया है. संहिता की धारा ४१(१)(क) या (छ) के समान 'उचित सूचना' या 'विश्वसनीय सूचना' विशेषणों का प्रयोग धारा १५४(१) में नहीं किया गया है. साफ़ तौर पर, ४१(१)(क) या (छ) से भिन्न धारा १५४(१) में 'सूचना' के पहले इन विशेषणों की अनुपस्थिति स्पष्ट करती है कि क्यों पुलिस को संज्ञेय अपराध किये जाने की सूचना रजिस्टर करने से इंकार नहीं करना चाहिए और क्यों कोई केस इस आधार पर रजिस्टर करने से मना नहीं करना चाहिए कि पुलिस अधिकारी के मतानुसार सूचना विश्वसनीय या उचित नहीं है. दी गयी सूचना की 'उचितता' या 'विश्वसनीयता' उस सूचना को दर्ज़ करने की पूर्व शर्त नहीं है." (ललिता कुमारी)

    तपन कुमार सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि FIR इनसाइक्लोपीडिया नहीं होती जिसमें घटित अपराध के सारे/ सम्पूर्ण तथ्यों का ब्यौरा विस्तृत रूप से दिया जाए.

    "कोई भी व्यक्ति अपराध घटित होने की रिपोर्ट दायर करवा सकता है फिर चाहे उसे पीड़ित और हमलावर का नाम न पता हो. वह शायद यह भी न जाने कि घटना कैसे घटित हुई. सूचना देने वाले व्यक्ति प्रत्यक्षदर्शी गवाह हो जो घटना का सम्पूर्ण वृतांत दे सके, ऐसा जरुरी नहीं है. जरुरी यह है कि दी गयी सूचना से संज्ञेय अपराध घटित होने की बात उजागर होनी चाहिए और उसके आधार पर पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध होने का संशय हो."

    इस स्टेज पर यह पर्याप्त है कि दी गयी सूचना के आधार पर पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध घटित होने का संशय हो. शर्त यह बिलकुल नहीं है कि दी गयी सूचना के आधार पर पुलिस अधिकारी पूर्णरूपेण संतुष्ट हो कि संज्ञेय अपराध घटित हुआ ही है. दी गयी सूचना के आधार पर पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध घटित होने का संशय हो तो यह उसका कर्तव्य है कि सूचना रिकॉर्ड करें और तफ्तीश शुरू करें. इस स्टेज पर यह जरुरी नहीं है कि पुलिस अधिकारी, दी गयी सूचना की सत्यता पर पूर्णत: निश्चित हो.

    क्या धारा १५४ (१) अनिवार्य है?

    "सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ललिता कुमारी मामले में कहा है कि धारा १५४ के तहत FIR रजिस्टर करना अनिवार्य है."

    जब संज्ञेय अपराध के घटने की सूचना दी जाती है तो फिर FIR दर्ज़ की जाए या न, इसे पुलिस अधिकारी के विवेक पर छोड़ने का कोई कारण नहीं उपस्थित है. हर संज्ञेय अपराध की जाँच कानून के अनुसार तुरंत की जानी चाहिए और संज्ञेय अपराध के सन्दर्भ में मिलने वाली हर सूचना FIR के तौर पर दर्ज़ की जानी चाहिए ताकि उस पर कार्यवाही शुरू की जा सके.

    विधायिका का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है कि हर संज्ञेय अपराध की जाँच कानून के अनुसार तुरंत की जानी चाहिए. यह कानून की स्थिति है. इसका कोई कारण नहीं उपस्थित है कि जब संज्ञेय अपराध के घटने की सूचना दी जाये तो फिर FIR दर्ज़ की जाए या न, यह निर्णय पुलिस अधिकारी के विवेक पर छोड़ दिया जाए. हर संज्ञेय अपराध की जाँच कानून के अनुसार तुरंत की जानी चाहिए और संज्ञेय अपराध के सन्दर्भ में मिलने वाली हर सूचना FIR के तौर पर दर्ज़ की जानी चाहिए ताकि उस पर कार्यवाही शुरू की जा सके .

    प्रक्रिया, जब पुलिस संज्ञेय अपराध की सूचना देने पर भी FIR दर्ज से करने मना कर दे

    "कोई भी व्यक्ति जो किसी पुलिस थाने के इंचार्ज द्वारा धारा १५४ (१) के अनुसार दी गयी सूचना को दायर न करने की वजह से व्यथित है, वह ऐसी सूचना, लिखित में या डाक द्वारा सम्बन्ध पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) को भेज सकता है जो सूचना द्वारा संज्ञेय अपराध प्रकट होने की बात से संतुष्ट होने पर या तो स्वयं उसकी जाँच शुरू कर देता है या किसी अधीनस्थ पुलिस अधिकारी को नियमानुसार जाँच करने के आदेश दे सकता है. ऐसे अधिकारी को पुलिस स्टेशन के इंचार्ज के बराबर शक्तियाँ होती है." [धारा १५४(३)]

    धारा १५४(३) को समझाते हुए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ललिता कुमारी मामले में कहा है कि

    "अगर किसी मामले में, पुलिस थाने का इंचार्ज अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से मना करता है और संज्ञेय अपराध घटने की सूचना को रजिस्टर करने से मना करता है और अत: उसे सौपा गया वैधानिक कर्तव्य नहीं निभाता तब व्यथित व्यक्ति अपनी सूचना का सार लिखित रूप में या पोस्ट द्वारा सम्बन्ध पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) को भेज सकता है जो सूचना द्वारा संज्ञेय अपराध प्रकट होने की बात से संतुष्ट होने पर या तो स्वयं उसकी जाँच शुरू करेगा या किसी अधीनस्थ पुलिस अधिकारी को धारा १५४(३) के अनुसार जाँच करने के आदेश देगा.

    संशोधन द्वारा धारा १५४(३) को संहिता में जोड़ना विधायिका के उद्देश्य को दिखाता है कि संज्ञेय अपराध के घटने की कोई भी सूचना नज़रअंदाज़ नहीं की जानी चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए कि उस पर कोई एक्शन न लिया जाये अन्यथा अभियुक्त को अनुचित फायदा मिलेगा.

    अगर धारा १५४(३) के तहत प्रयास असफल रहे तो क्या समाधान उपलब्ध है?

    धारा १५४(१) और धारा १५४(३) के तहत उपलब्ध विकल्पों का प्रयोग करने के बाद व्यथित व्यक्ति धारा १५६(३) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष यह अर्ज़ी पेश कर सकता है कि मजिस्ट्रेट पुलिस को दायर करने के निर्देश दे.

    धारा १५६(३) कहती है कि मजिस्ट्रेट धारा १९० के तहत जाँच के लिए आर्डर दे सकता है.

    पर मजिस्ट्रेट को धारा १५६(३) के तहत कंप्लेंट फॉरवर्ड करने में 'पोस्ट ऑफिस ' की तरह कार्य नहीं करना चाहिए, इसका मतलब यह है कि जाँच के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा दिए जाने वाले आदेश यंत्रवत रूप में नहीं पास किये जाने चाहिए.

    सुप्रीम कोर्ट ने प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश सरकार में कहा है कि-

    "धारा १५६(३) के तहत दी गयी शक्ति के प्रयोग की यह शर्त है कि जुडिशल माइंड को अप्लाई किया जाए. मामला एक न्यायलय के समक्ष प्रस्तुत है, मामला पुलिस द्वारा १५४ के तहत कदम उठाने का नहीं है. एक नियमबद्ध और वास्तविक तौर पर पीड़ित व्यक्ति के लिए जो न्यायलय के समक्ष बिना किसी खोट के साथ उचित इरादों से आये तो उसे कोर्ट की समुचित पहुँच प्राप्त होनी चाहिए. यह नागरिकों का संरक्षण करता है पर जब गलत इरादों वाले वादी इस तरीकें का इस्तेमाल अपने साथ नागरिकों को परेशान करने की दृष्टि से करते है तो ऐसे एक्शन को रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए."

    रामदेव फ़ूड प्रोडक्ट प्राइवेट लिमिटेड बनाम गुजरात सरकार मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) के तहत मजिस्ट्रेट की शक्तियों के सन्दर्भ में तीन जज बेंच ने कहा कि-

    "धारा १५६(३) के तहत कोई भी निर्देश यंत्रवत नहीं दिया जाना चाहिए, सोच विचार कर निर्देश दिए जाने चाहिए. जब मजिस्ट्रेट संज्ञान नहीं लेता है और प्रक्रिया को मुल्तवी करना जरुरी नहीं समझता और यह पाता है कि आगे एक्शन लेने के लिए मामला मुनासिब है, इस धारा के तहत निर्देशन दिए जाते है. दूसरे शब्दों में जब दी गयी सूचना की विश्वसनीयता के आधार पर या फिर न्याय के हित में सीधे-सीधे जाँच के आदेश देना उचित माना जाता है तब यह निर्देशन जारी किये जा सकते है. वह मामले जहाँ मजिस्ट्रेट संज्ञान लेता है और प्रक्रिया को मुल्तवी करता है, वह वो मामले है जहाँ मजिस्ट्रेट को अभी इस बात पर निश्चित करना शेष है कि आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं."

    एफिडेविट दायर करने की जरुरत

    प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) के तहत दायर की गयी एप्लीकेशन में प्रार्थी द्वारा शपथ लेते हुए एफिडेविट भी दायर किया जाना चाहिए.

    यह भी कहा गया कि उचित मामलों में मजिस्ट्रेट को मामले और लगाए गए आरोपों की सत्यता परखने की भी शक्ति है.

    "हम यह कहने के लिए बाधित है कि इस तरह की प्रार्थनाएँ गैर -जिम्मेदाराना तरीके से, आदतन रूप में कुछ लोगों को परेशान करने के लिए दायर की जा रही है. इसके अलावा मामला और भी गंभीर और चिंता का विषय बन जाता है जब व्यक्ति उन लोगों को चुने जो कानूनी प्रावधानों के तहत आर्डर पास कर रहा है जिन्हें अधिनियम के तहत या अनुच्छेद 226 के तहत चुनौती दी जा सकती है. पर यह आपराधिक कोर्ट में अनुचित फायदा उठाने के लिए नहीं किया जा सकता मानो कोई अपना हिसाब बराबर करने के लिए उतारू हो. हम यह पहले भी कह चुके है कि धारा १५६(३) के तहत अर्ज़ी दायर करने से पहले धारा १५४(१) और १५४(३) के तहत अर्ज़ी पेश करनी चाहिए. यह दोनों ही बातें एप्लीकेशन में साफ़ तौर पर लिखी जानी चाहिए और इससे सम्बंधित जरुरी कागज़ात भी लगाए जाने चाहिए. धारा १५(३) के तहत दायर की गयी अर्ज़ी के साथ एफिडेविट लगाने की आवश्यकता इसलिए होती है ताकि कोई झूठा एफिडेविट न दायर किया जा सके. अगर एफिडेविट झूठा पाया जाता है तो व्यक्ति कानून के अनुसार अभियोग झेलने के लिए जिम्मेदार होगा. इससे व्यक्ति गैर-जिम्मेदाराना रूप से धारा १५६(३) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष अर्ज़ी पेश करने से रुकेगा. इसके अलावा, हम यह पहले भी कह चुके है कि लगाए गए आरोपों की प्रकृति को देखते हुए मजिस्ट्रेट दी गयी सूचना की सत्यता की जाँच कर सकता है. हम यह कहने के लिए बाध्य है कि जैसा ललिता कुमारी मामले में दिखाया गया था वैसे कई वे मामले जो वित्तीय मामले, वैवाहिक मामले, पारिवारिक मामले, व्यावसायिक अपराध सम्बन्धी मामले, मेडिकल नेग्लिजेंस मामले, भ्रष्टाचार मामले और वे मामले जहाँ मामला दायर करने में लम्बी देरी हुई हो, भी दायर हो रहे है. इसके अतिरिक्त, मजिस्ट्रेट को FIR दायर करने में हुई देरी के प्रति भी सजग रहना चाहिए."

    धारा १५६(३) के तहत शिकायत मिलने पर मजिस्ट्रेट के समक्ष क्या विकल्प है?

    सुप्रीम कोर्ट ने पद्मसी बनाम भारत सरकार मामले में कहा कि जब पुलिस को कोई सूचना दी जाती है पर उस पर कोई एक्शन नहीं लिया जाता तो शिकायतकर्ता धारा १९० और २०० के अनुसार उस मजिस्ट्रेट के समक्ष, जिसे उस अपराध के सम्बन्ध में अधिकार क्षेत्र दिया गया हो, उसे शिकायत प्रस्तुत कर सकता है और फिर मजिस्ट्रेट अनिवार्यत: अध्याय २५ के तहत शिकायत की इन्क्वायरी करेगा. अगर मजिस्ट्रेट साक्ष्य रिकॉर्ड करने के बाद प्रथम दृष्टया अगर मामला पाता है तो आदेशिका जारी ( issue of process) करने के बजाय, अधयाय १२ के तहत पुलिस को अपराध की जाँच कर रिपोर्ट पेश करने के आदेश दे सकता है. अगर वह पाता है कि आगे एक्शन लेने के लिए शिकायत से कोई अपराध प्रकट नहीं हो रहा है तो वह संहिता की धारा २०३ के तहत शिकायत खारिज कर सकता है. अगर वह यह पाता है कि दी गयी शिकायत या साक्ष्यों में प्रथम दृष्टया अपराध प्रकट हो रहा है तो वह अपराध का संज्ञान लेते हुए आदेशिका जारी कर सकता है.

    "दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) में 'कर सकेगा' शब्द का प्रयोग हुआ है वही धारा १५४(३) में 'करेगा' शब्द का प्रयोग हुआ है, और धारा १५६(३) में 'कर सकेगा' शब्द का प्रयोग विधायिका के उद्देश्य को स्पष्ट करता है. अगर विधायिका का उद्देश्य मजिस्ट्रेट के समक्ष उपलब्ध विकल्प बंद करने का होता तो 'करेगा' शब्द का प्रयोग हुआ होता. बजाय उसके 'कर सकेगा' शब्द का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है और 'कर सकेगा' शब्द का प्रयोग साफ़ तौर पर स्पष्ट भी करता है कि मजिस्ट्रेट इन मामलों में स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है और मजिस्ट्रेट उचित मामलों में रजिस्ट्रेशन से मना भी कर सकता है. "

    "मजिस्ट्रेट पुलिस को केस दायर करने और जाँच करने का आदेश दे सकता है या वह उसे शिकायत की तरह देखते हुए अध्याय १५ के तहत आगे कार्यवाही कर सकता है. मजिस्ट्रेट को अपना जुडिशल माइंड लगाना चाहिए. मजिस्ट्रेट या तो धारा १९० के तहत संज्ञान ले सकता है या पुलिस को धारा १५६(३) के तहत जाँच करने के लिए निर्देशन दे सकता है."

    सुखवासी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में इलाहबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि यह जरुरी नहीं कि मजिस्ट्रेट हर मामले में जहाँ संज्ञेय अपराध प्रकट हुआ है, FIR दायर करने के आदेश दे. मजिस्ट्रेट उसे कंप्लेंट की तरह मानकर कार्यवाही कर सकता है.

    क्या पुलिस धारा १५६(३) के तहत FIR दर्ज़ करने के लिए बाध्य है?

    सुरेश चंद्र जैन बनाम मध्य प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जहाँ धारा १५६ (३) के तहत जाँच के आदेश देते समय मजिस्ट्रेट स्पष्ट रूप से यह नहीं भी कहे कि FIR दर्ज़ की जानी चाहिए तब भी पुलिस थाने के इंचार्ज का यह कर्तव्य है कि वह शिकायतकर्ता द्वारा संज्ञेय अपराध के सन्दर्भ में दी गयी सूचना दर्ज़ करें क्योंकि पुलिस अधिकारी आगे की कार्यवाही संहिता के अध्याय १२ के तहत उसके बाद ही कर सकता है.

    मोहम्मद युसूफ बनाम श्रीमती अफाक जहां मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित बात कही-

    अत: स्थिति यह है कि कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट, किसी भी अपराध का संज्ञान लेने से पूर्व संहिता की धारा १५६(३) के तहत जाँच के आदेश दे सकता है. अगर वो ऐसा करता है तो उसे शिकायतकर्ता को ओथ पर एक्सामिन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह किसी अपराध का संज्ञान नहीं ले रहा है. पुलिस द्वारा जाँच प्रारम्भ करवाने के लिए मजिस्ट्रेट के पास यह विकल्प है कि वह पुलिस को FIR दर्ज़ करने के निर्देश दे. ऐसा करने में कुछ भी गैर-कानूनी नहीं है.

    क्या पुलिस द्वारा FIR दर्ज़ नहीं किये जाने के विरुद्ध व्यक्ति हाई कोर्ट जा सकता है?

    सुधीर भास्कर राव ताम्बे बनाम हेमंत यशवंत धागे 2016 (6) SCC 277, मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सकरी वसु का उल्लेख करते हुए कहा कि अगर किसी व्यक्ति को शिकायत है कि पुलिस ने उसकी FIR दयार नहीं की है या अगर FIR दायर कर ली है तो उस पर उचित रूप से जाँच नहीं की तब ऐसे व्यक्ति के लिए उचित समाधान अनुच्छेद २२६ के तहत हाई कोर्ट जाना नहीं है बल्कि धारा १५६(३) के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी शिकायत रखना है.

    "हमने यह पाया है कि हाई कोर्ट में ऐसी याचिकाएँ बड़ी संख्या में दायर हो रही है जहाँ FIR रजिस्टर करने या उचित जाँच पड़ताल करने के आदेश देने की प्रार्थना की गयी है. हमारा ऐसा मानना है कि अगर हाई कोर्ट ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करता रहेगा तो फिर हाई कोर्ट में ऐसी याचिकाओं की बाढ़ आ जाएगी और हाई कोर्ट कोई अन्य कार्य कर ही नहीं सकेगें. इसीलिए हमारा यह कहना है कि शिकायतकर्ता को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) के तहत मजिस्ट्रेट के सामने अपनी शिकायत पेश करने के विकल्प का प्रयोग करना चाहिए और अगर वह ऐसा करता है तो मजिस्ट्रेट प्रथम दृष्टया संतुष्ट होने पर FIR दायर करना और उचित जाँच करवाना सुनिश्चित करेगा. वह जाँच को मॉनिटर भी कर सकता है."

    मद्रास हाई कोर्ट के धारा १५६(३) पर निर्देशन

    1. FIR दर्ज़ करने की प्रार्थना के साथ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ के तहत दायर की गयी याचिका स्वीकार्य नहीं होगी यदि वह ललिता कुमारी -४ एवं ५ में दी गयी समय सीमाओं का ख्याल नहीं रखती है.
    2. यह कोर्ट तमिलनाडु राज्य और पॉण्डिचेरी केंद्र शासित प्रदेश के हर स्टेशन हाउस ऑफिसर को निर्देश देता है कि आम नागरिकों द्वारा संज्ञेय अपराध के घटने की सूचना देने वाली हर शिकायत को करे और शिकायतकर्ता को तुरंत CSR रसीद (तमिलनाडु के मामले में) या पृथक रसीद ( पॉण्डिचेरी के मामले में ) जारी करे. पुलिस ललिता कुमारी- IV, V में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार स्टेशन जनरल डायरी में जरुरी एंट्री करने के बाद प्रारंभिक जाँच करें. ललिता कुमारी- IV सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए है कि प्रारंभिक जाँच करने के बाद यदि पुलिस इस निष्कर्ष पर आती है कि FIR दायर करने की आवश्यकता नहीं है तब पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह शिकायतकर्ता को क्लोजर रिपोर्ट की कॉपी उपलब्ध करवाएं. क्लोजर रिपोर्ट मिलने के बाद शिकायतकर्ता मामले के तथ्य बताते हुए मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी बात रखते हुए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा156(३) के तहत याचिका दायर कर सकता है या धारा १९०-२०० के तहत निजी शिकायत भी कर सकता है. ऐसी याचिका या निजी शिकायत में पुलिस द्वारा क्लोजर रिपोर्ट की बात प्रकट की जानी चाहिए. अपराध का संज्ञान लेते हुए मजिस्ट्रेट एक हद तक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा २०२ के तहत जाँच के आदेश दे सकता है. क्लोजर रिपोर्ट धारा ४८२ के तहत जुडिशल रिव्यु का विषय नहीं हो सकती.
    3. अगर स्टेशन हाउस अफसर शिकायत दायर करने से मना करता है तो शिकायतकर्ता को शिकायत एक कवर लेटर के साथ या पुलिस कमिश्नर को रजिस्टर्ड पोस्ट (पावती के साथ) धारा १५४ (३) के तहत भेजेगा.
    4. अगर स्टेशन हाउस ऑफिसर या पुलिस अधीक्षक द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की जाती तो शिकायत कर्ता सम्बंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १५६(३) के तहत अपना मामला पेश कर सकता है.
    5. मजिस्ट्रेट को शिकायत तमिल या अंग्रेज़ी में प्रथम पुरुष भाषा में एक रिप्रजेंटेशन के तौर पर दी जानी चाहिए.
    6. प्रियंका श्रीवास्तव केस के अनुसार शिकायत के साथ एफिडेविट भी दायर किया जाना चाहिए.
    7. शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट को १५ दिन के भीतर उस पर कार्यवाही करनी चाहिए. वह या तो निर्देश दे सकता है या शिकायत ख़ारिज कर सकता है.
    8. अगर मजिस्ट्रेट जाँच के आदेश देता है तो उसे आर्डर, जुडिशल आर्डर के तौर पर रिकॉर्ड शीट में देना चाहिए.
    9. मजिस्ट्रेट को आर्डर की कॉपी, वास्तविक शिकायत और एफिडेविट की कॉपी सम्बंधित पुलिस अधिकारी को जाँच के लिए फॉरवर्ड करनी चाहिए.
    10. अगर पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट का आर्डर मिलने के एक सप्ताह के भीतर FIR दायर नहीं करे तो मजिस्ट्रेट को उस अधिकारी के विरुद्ध डिस्ट्रिक्ट पुलिस एक्ट की धारा २१ और ४४ के तहत चीफ मेट्रोपोलिटिन मजिस्ट्रेट या चीफ जुडिशल मजिस्ट्रेट जिसका भी अधिकार क्षेत्र हो, के समक्ष अभियोग शुरू करना चाहिए.
    11. अगर पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के द्वारा धारा १५६(३) के तहत दिए गए आर्डर मिलने के एक सप्ताह के भीतर FIR दायर नहीं करे तो शिकायतकर्ता दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ के तहत हाई कोर्ट जा सकता है.
    12. सुप्रीम कोर्ट द्वारा ललिता कुमारी- ५ में दिए गए निर्देशों के अनुसार पुलिस ६ सप्ताह में प्रारंभिक जाँच (preliminary inquiry) करने में असफल रहती है तो शिकायतकर्ता हाई कोर्ट के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ और अनुच्छेद १४४ प्रस्तुत हो सकता है.
    13. समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता की धारा ४८२ और अनुच्छेद १४४ के तहत प्रस्तुत उपर्युक्त याचिका के साथ शिकायतकर्ता द्वारा एफिडेविट प्रस्तुत किया जाना चाहिए जिसके तहत पुलिस द्वारा ६ सप्ताह में जाँच पूरी नहीं की जाने को सिद्ध करती हुई पर्याप्त सामग्री पेश की जानी चाहिए. इस याचिका में कोर्ट शिकायत नहीं पड़ेगी बल्कि इस आधार पुलिस को दर्ज़ करने का निर्देश देगी कि पुलिस ललिता कुमारी- IV, V के निर्देशों के अनुसार ६ सप्ताह में जाँच पूरी करने में असफल रही. रजिस्ट्री धारा ४८२ के तहत दायर की गयी ऐसी याचिका जिसमें FIR दायर करने के निर्देश देने की प्रार्थना की गयी हो, का संख्यांकन नहीं करेगी अगर याचिका के साथ एफिडेविट नहीं पेश किया गया हो.
    14. उचित मामलों में कोर्ट ललिता कुमारी-IV, V के निर्देशों की अवहेलना करने वाले पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का आदेश भी दे सकती है.
    15. अगर पुलिस अधिकारी हाई कोर्ट के आदेश के बाद भी यदि FIR दायर करने में असफल रहता है तो वह अनुशासनात्मक कार्यवाही के अलावा न्यायिक अवमानना के लिए भी जिम्मेदार होगा.
    16. पीड़ित पार्टी न्यायिक सेवा प्राधिकरण को भी संपर्क कर सकता है, जिन्हें FIR दायर करवाने हेतु और शिकायतकर्ता को CSR रसीद जारी करवाने हेतु तुरंत कदम उठाने होंगे.
    17. हर पुलिस स्टेशन में स्थानीय न्यायिक सेवा प्राधिकरण का नाम और पता बताने वाला बोर्ड लगाया जाना चाहिए.

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