रोजगार विवाद में उद्योग का दर्जा स्थापित करने का बोझ याचिकाकर्ता पर: दिल्ली हाईकोर्ट
Amir Ahmad
14 Dec 2024 12:54 PM IST
जस्टिस गिरीश कथपालिया की एकल पीठ ने लेबर कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा, जिसमें एक कर्मचारी के बहाली के दावों को खारिज कर दिया गया।
कोर्ट ने माना कि कर्मचारी यह साबित करने में विफल रहा कि होलिस्टिक चाइल्ड डेवलपमेंट इंडिया (HCDI) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत एक उद्योग के रूप में योग्य है। न्यायालय को ऐसा कोई सबूत भी नहीं मिला, जिससे पक्षों के बीच नियोक्ता-कर्मचारी संबंध स्थापित हो।
इसने नोट किया कि याचिकाकर्ता को केवल सफाई कार्यों के लिए एक आकस्मिक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में नियुक्त किया गया था।
पूरा मामला
सतीश कुमार ने HCDI के खिलाफ श्रम न्यायालय में दावा दायर किया, जिसमें कहा गया कि उसके रोजगार को अवैध रूप से समाप्त कर दिया गया।
उन्होंने दावा किया कि वे 29 मार्च, 1995 से 3,120 रुपये प्रति माह के वेतन पर पूर्णकालिक कर्मचारी के रूप में काम कर रहे थे।
उन्होंने प्रस्तुत किया कि उनकी बर्खास्तगी अवैध थी और नियमितीकरण को लेकर हुए विवाद पर आधारित थी। उन्होंने बकाया वेतन के साथ बहाली के लिए दबाव डाला।
प्रतिवादी HCDI, एक रजिस्ट्रेशन सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है। इसने आरोपों से इनकार किया। तर्क दिया कि यह औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत एक उद्योग भी नहीं है।
इसने आगे कहा कि कुमार स्थायी रूप से कार्यरत नहीं थे। उन्हें आकस्मिक रूप से दिहाड़ी के आधार पर सफाई के लिए रखा गया था। प्रतिवादी ने बताया कि उनकी सेवाएँ इसलिए समाप्त कर दी गईं, क्योंकि वे स्वभाव से धमकाने वाले थे। एक कैलेंडर वर्ष में अनिवार्य 240 दिनों की सेवा पूरी करने में विफल रहे।
लेबर कोर्ट ने मुद्दों को इस प्रकार निर्धारित किया: पहला, क्या HCDI एक उद्योग था दूसरा, क्या कोई नियोक्ता-कर्मचारी संबंध मौजूद था, और तीसरा, क्या याचिकाकर्ता बहाली और बकाया वेतन पाने का हकदार था।
उन्होंने अंततः कुमार के खिलाफ फैसला सुनाया, HCDI को उद्योग के रूप में स्थापित करने या नियोक्ता-कर्मचारी संबंध साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं पाया। व्यथित होकर, कुमार ने एक रिट याचिका दायर की।
तर्क
कुमार ने प्रस्तुत किया कि उन्होंने एक दशक से अधिक समय तक HCDI के लिए पूर्णकालिक कर्मचारी के रूप में काम किया था।
उन्होंने तर्क दिया कि नियुक्ति पत्र की अनुपस्थिति मात्र से उनके नियमित रोजगार को नकार नहीं दिया जा सकता। कुमार ने कहा कि उनका काम स्थायी प्रकृति का था, आकस्मिक नहीं। उन्होंने तर्क दिया कि HCDI द्वारा उन्हें दैनिक वेतनभोगी के रूप में चित्रित करना उन्हें नियमितीकरण और ग्रेच्युटी के लाभों से वंचित करने का एक मात्र बहाना था।
इसके अतिरिक्त, कुमार ने तर्क दिया कि श्रम न्यायालय ने महत्वपूर्ण साक्ष्यों को नजरअंदाज कर दिया।
इसमें उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए भुगतान वाउचर शामिल थे, जिसके बारे में उन्होंने दावा किया कि वे उनकी निरंतर सेवा को दर्शाते हैं।
HCDI ने प्रस्तुत किया कि यह एक धर्मार्थ संस्था है। इसलिए औद्योगिक गतिविधियों में संलग्न नहीं है। इसने तर्क दिया कि अन्यथा साबित करने का भार याचिकाकर्ता पर था - जिसे वह पूरा करने में विफल रहा।
इसने यह भी तर्क दिया कि कुमार किसी औपचारिक रोजगार में नहीं था, उसका सफाई का काम छिटपुट था और उसे दैनिक आधार पर मुआवजा दिया जाता था।
अंत में, HCDI ने अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक पुनर्विचार के सीमित दायरे पर प्रकाश डाला, इस बात पर जोर देते हुए कि श्रम न्यायालय के निष्कर्षों में हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
न्यायालय का तर्क
न्यायालय ने सबसे पहले सवाल किया कि क्या HCDI को औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत "उद्योग" माना जा सकता है। इसने नोट किया कि HCDI एक धर्मार्थ ट्रस्ट है, जिसका उद्देश्य गरीब और अनाथ बच्चों को सहायता प्रदान करना है।
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि अन्यथा साबित करने का भार कुमार पर था, लेकिन इस संबंध में कोई सबूत नहीं दिखाया गया।
अदालत ने गुजरात राज्य बनाम प्रतामसिंह नरसिंह परमार, (2001) 9 एससीसी 713 पर भरोसा किया, जिसने स्पष्ट किया कि प्रतिवादी की गतिविधियों की औद्योगिक प्रकृति को स्थापित करने का दायित्व दावेदार पर है।
दूसरे, अदालत ने नियोक्ता-कर्मचारी संबंध के अस्तित्व की जांच की। इसने देखा कि कुमार अपनी नियुक्ति की प्रकृति को निर्दिष्ट करने या नियमित रोजगार व्यवस्था को साबित करने वाले दस्तावेजी सबूत पेश करने में विफल रहे हैं।
इसने नोट किया कि कुमार द्वारा प्रस्तुत भुगतान वाउचर से पता चला है कि उन्हें सफाई के काम के लिए दिन-प्रतिदिन के आधार पर भुगतान किया गया, जो एक आकस्मिक नियुक्ति को दर्शाता है। अदालत को स्थायी या निरंतर रोजगार व्यवस्था का कोई सबूत नहीं मिला।
अंत में, अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक समीक्षा की सीमित भूमिका की याद दिलाई।
संग्राम सिंह बनाम चुनाव न्यायाधिकरण, कोटाह (1955 एससीसी ऑनलाइन एससी 21) पर भरोसा करते हुए इसने नोट किया कि रिट कोर्ट अपीलीय कोर्ट नहीं बन सकता। हाईकोर्ट का अधिकार क्षेत्र केवल प्रक्रिया की त्रुटियों को सुधारने या पर्याप्त अन्याय की शिकायत को संबोधित करने के लिए है।
नतीजतन, अदालत ने रिट याचिका खारिज की और लेबर कोर्ट का फैसला बरकरार रखा।
केस टाइटल: सतीश कुमार बनाम होलिस्टिक चाइल्ड डेवलपमेंट इंडिया और अन्य