वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपने शिखर पर है लेकिन डायन-शिकार (Witch-Hunting) की प्रथा इस सदी में भी बहुत अधिक सक्रिय है: उड़ीसा हाईकोर्ट ने इसको लेकर समान कानून की वकालत की

SPARSH UPADHYAY

13 Aug 2020 10:06 AM GMT

  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपने शिखर पर है लेकिन डायन-शिकार (Witch-Hunting) की प्रथा इस सदी में भी बहुत अधिक सक्रिय है: उड़ीसा हाईकोर्ट ने इसको लेकर समान कानून की वकालत की

    Orissa High Court

    उड़ीसा राज्य में डायन-शिकार (Witch-Hunting) की अमानवीय और बर्बर प्रथा की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने हाल ही में देखा कि डायन शिकार, जो कि संस्कृति, धर्म और क्षेत्र में प्रचलन में है, वह मानव के तथाकथित सभ्य समाज के भयानक चेहरे को उजागर करता है और अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग इस प्रथा के नरम लक्ष्य हैं।

    न्यायमूर्ति एस. के. पाणिग्रही की पीठ ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि चुड़ैलों/डायनों या जादू टोना का विचार, आदिवासी समाज में वर्तमान शताब्दी में भी प्रचलित है, हालांकि आधुनिक डायन-शिकार का उद्देश्य अध्यात्मिक होने के बजाय जहरीला अधिक है।

    अदालत ने आगे कहा,

    "इसका मतलब यह है कि गरीब और अनपढ़ महिलाएं, जोकि सबसे अधिक असुरक्षित हैं, वे दुर्भाग्य से, इस अंधविश्वास से जुड़ी अमानवीय हिंसा की शिकार होती हैं। परेशान करने वाली बात यह है कि जिनपर डायन होने का आरोप/भ्रम है वे महिलाएं अपने रिश्तेदार की सक्रिय जानकारी और सहमति से क्रूर अत्याचार, गालियों और यहां तक कि हत्या तक का शिकार हो जाती हैं।"

    दरअसल पीठ एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रही थी जिसमें याचिकाकर्ताओं ने धारा 439 सीआरपीसी के संबंध में जमानत की मांग अदालत से की थी। दरअसल, उनके खिलाफ 'भारतीय दंड संहिता, 1860' की धारा 302, 307, 323, 324, 325, 326, 342, 34 और 'ओडिशा विच-हंटिंग की रोकथाम एक्ट 2013' की धारा 5 एवं 6 के तहत अपराध करने का आरोप है।

    मामले की पृष्ठभूमि

    अभियोजन पक्ष के मुकदमे के अनुसार, मृतका (साबरी मुर्मू), जो कुछ दिनों से ठीक महसूस नहीं कर रही थी, अपने मामा रमी मुर्मू (मौजूदा याचिकाकर्ताओं के पिता और स्वयंभू अलौकिक चिकित्सा विशेषज्ञ) के घर गयी थी जिससे की उसका किसी प्रकार का स्वदेशी उपचार हो सके।

    हैरानी की बात है कि 25.4.2018 को उपचार अभ्यास के एक भाग के रूप में (एक प्रकार का भूत भगाने के लिए), साम्बरी मुर्मू (मृतका) पर याचिकाकर्ता द्वारा त्रिसूल/त्रिशूल, रस्सी और लोहे की छड़ के माध्यम से किया गया था, जिसके कारण, उसे कई घातक चोटों का सामना करना पड़ा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।

    कथित तौर पर, याचिकाकर्ताओं का मानना था कि कुछ बुरी आत्मा मृतका के शरीर पर हावी हो गयी थी जिसके परिणामस्वरूप उसका व्यवहार असामान्य हुआ। "बुरी आत्मा" को बाहर निकालने के लिए, मुख्य आरोपी रमी मुर्मू ने अपनी पत्नी माही मुर्मू, बड़े बेटे सुकुल मुर्मू (मौजूदा याचिकाकर्ता नंबर 1), उसकी पत्नी सीता मुर्मू और छोटे बेटे नरसिंह मुर्मू (मौजूदा याचिकाकर्ता नंबर 2) के साथ मिलकर मृतका के हाथ और पैर बांधे और कई प्रकार के हथियारों से उसके साथ मारपीट शुरू कर दी।

    जब मामले का सूचनाकर्ता/informant (मृतका का भाई) वहां पहुंचा, तो उसने देखा कि उसकी बहन गंभीर रूप से घायल है और उन्होंने उसे अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस बुलाई। हालांकि, मृतका, साबरी मुर्मू ने अस्पताल ले जाते समय एम्बुलेंस में दम तोड़ दिया।

    न्यायालय का अवलोकन

    यह देखते हुए कि वर्तमान जादू टोना और डायन-शिकार का एक लंबा और चौंकाने वाला इतिहास है, अदालत ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि वर्तमान में, दुनिया के कुछ हिस्सों में कई कीमती जीवन, जादू टोना की वेदी पर बलिदान किए जाते हैं।

    अदालत ने कहा कि भारत एक दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास का प्रतिनिधित्व करता है, एक तरह उसकी तरक्की की वृद्धि/विकास दर है और दूसरी ओर दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से अंधविश्वास में घिरी हुई आबादी है।

    अदालत ने आगे उल्लेख किया कि भारत के विभिन्न राज्यों ने अंधविश्वास के चलते व्यापक रूप से व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने के लिए राज्य स्तर पर विभिन्न कानून बनाए हैं, लेकिन ये कानून, जो अपेक्षाकृत नए हैं, इस ओर संकेत देते हैं कि हमारा समाज आश्चर्यजनक रूप से अभी भी इस तरह के नासमझ और बेतुके व्यवहार से पीड़ित है।

    पीठ ने पाया कि बृहदारण्यक उपनिषद का छंद - असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय (अर्थ: मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो) उस काल के लोगों के सामूहिक रूप से विकसित सामाजिक मानसिकता को दर्शाता है, जो एक ज्ञान आधारित समाज में दृढ़ विश्वास रखते थे और अपेक्षाकृत स्वतंत्र और अपमानजनक अंधविश्वास से मुक्त थे।

    पीठ ने आगे कहा

    "वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपने शिखर पर है लेकिन डायन-शिकार (Witch-Hunting) इस सदी में भी बहुत अधिक सक्रिय है। तथ्य यह है कि केंद्रीय कानून के अभाव में देश भर में कानून के लागू होने में एकरूपता की कमी है। भारतीय दंड संहिता के प्रावधान, हालांकि अपराध से जुड़े अपराध के लिए लागू हैं, लेकिन यह कानून इन अपराधियों को रोकने में उतना कारगर साबित नहीं हुआ है।"

    अदालत ने आगे कहा कि इस तरह के अतिसंवेदनशील वर्गों के बीच जागरूकता उत्पन्न करने की आवश्यकता को महत्व दिया जाना चाहिए है और संबंधित अधिकारियों को इस तरह के आदिम विश्वासों और मानसिकता को दूर करने के लिए प्रभावी कदम उठाने होंगे, जो तर्क को धता बताते हैं।

    पीठ ने महत्वपूर्ण रूप से इस बात को रेखांकित किया कि,

    "डायन-शिकार जैसे अपराध उन समुदायों के सामूहिक विवेक को झटका देते हैं जो हमारे समाज के ज्यादातर आदिवासी और पिछड़े लोग हैं। अनुभव से पता चला है कि इन अन्यथा भोली आबादी के विश्वास का ऐसे शिकारियों द्वारा शोषण किया जाता है।"

    इस प्रकार, पीठ ने अपना विचार व्यक्त किया कि ऐसे मामलों में, अदालतों को जमीनी हकीकत और ऐसे अत्याचारों के अधीन व्यक्तियों की मानसिकता से अवगत होने की जरूरत है और यह साफ़ करने की जरुरत है कि ऐसे अपराधों से निपटने के लिए सख्त रुख अख्तियार किया जायेगा।

    गवाहों के पक्षद्रोही (Hostile) हो जाने के मुद्दे पर अदालत का विचार

    तात्कालिक मामले में, कई गवाह (भाई के साथ-साथ मृतका की मां भी) आरोपी व्यक्तियों के प्रभाव और क्षेत्र में उनकी प्रमुख स्थिति के कारण पक्षद्रोही गवाह (Hostile Witness) हो गए। इसके लिए, अदालत ने टिप्पणी की कि गवाह, किसी मामले में "न्याय का चेहरा रोशन करने के लिए सूरज" जैसी पवित्र भूमिका निभाते हैं।

    अदालत ने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि यदि डायन-शिकारी (Witch-doctors) के डर से गवाह पक्षद्रोही हो जाते हैं, तो परीक्षण (Trial) प्रक्रिया की गुणवत्ता का महत्व और प्रधानता खो जाएगी।

    गौरतलब है कि अदालत ने टिप्पणी की कि अगर गवाह खुद न्याय की आंख और कान के रूप में कार्य करने में अक्षम हो जाता है, तो मुकदमा पंगु हो जाता है, और तब "निष्पक्ष सुनवाई" नहीं हो सकती है।

    इस संदर्भ में, अदालत ने कहा,

    "इस अदालत का अनुभव, कई बार यह रहा है कि गवाहों ने अलौकिक शक्तियों से हमले के कथित डर के कारण, संभवतः अपने जीवन के लिए डर के कारण परीक्षण के चरण में पक्षद्रोही के रूप में व्यवहार किया है। इस पृष्ठभूमि के साथ यह अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि जांच एजेंसी यह सुनिश्चित करें कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 164 के तहत दर्ज गवाहों के बयान पर कोई आंच/बाधा न आये।"

    उपर्युक्त चर्चा को ध्यान में रखते हुए, और मामले में तथ्यों और परिस्थितियों के समग्र दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं को जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया। तदनुसार, अभियुक्त व्यक्तियों/याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर जमानत याचिका खारिज की गई।

    मामले का विवरण:

    केस का शीर्षक: जीतू मुर्मू @ सुकुल मुर्मू एवं एक अन्य बनाम ओडिशा राज्य

    केस नं .: BLAPL No. 3707 ऑफ़ 2020

    कोरम: न्यायमूर्ति एस. के. पाणिग्रही

    आदेश की प्रति डाउनलोड करेंं



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