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मध्यस्थता के तर्कहीन फ़ैसले मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत लोक नीति के विपरीत : कलकत्ता हाईकोर्ट

LiveLaw News Network
24 Jan 2020 3:30 AM GMT
मध्यस्थता के तर्कहीन फ़ैसले मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 34 के तहत लोक नीति के विपरीत : कलकत्ता हाईकोर्ट
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Calcutta High Court

“तर्क तथ्यों और निष्कर्षों के बीच संपर्क सूत्र है और वह आलोच्य मुद्दे के पीछे किस तरह का विचार काम कर रहा था, उसका परिचय देता है और यह नैरेटिव से निर्देश तक की यात्रा का पता देता है। तर्क किसी भी स्वीकार्य फ़ैसले की प्रक्रिया का जीवन-रक्त है और यह कि कोई फ़ैसले या आदेश तार्किक है कि नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है उनकी मात्रा नहीं बल्कि गुणवत्ता क्या है।”

कलकत्ता हाईकोर्ट ने मध्यस्थता के एक फ़ैसले को निरस्त कर दिया। अदालत ने कहा कि फ़ैसला तर्क से परे है और इसमें दिमाग़ का प्रयोग नहीं हुआ है। अदालत ने दावेदार पक्ष को क़ानून के अनुरूप दुबारा अपने दावे पर आदेश प्राप्त करे।

न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी और न्यायमूर्ति कौशिक चंदा की पीठ ने कहा कि अगर कोई फ़ैसला तर्कसंगत नहीं है तो यह एक ऐसा फ़ैसला होगा जो लोक नीति के ख़िलाफ़ होगा।

पीठ ने कहा,

"अगर कोई फ़ैसला किसी भी दावे के समर्थन में पर्याप्त कारण नहीं देता है तो यह फ़ैसला टिकाऊ नहीं हो सकता। इस तरह का आधार अधिनियम की धारा 34 के तहत आम नीति के ख़िलाफ़ भी होगा।"

सड़क बनाने के एक ठेके को रद्द किए जाने के बाद यह मामला शुरू हुआ। राज्य का कहना था कि दावेदार-प्रतिवादी ने जानबूझकर परियोजना में देरी की और उनसे अतिरिक्त राशि ऐंठ लिए। प्रतिवादी का कहना था कि परियोजना में देरी के लिए राज्य ज़िम्मेदार है, क्योंकि उसे सही समय पर ज़मीन नहीं उपलब्ध कराई गई।

प्रतिवादी के दावे को सही मानते हुए मध्यस्थ ने उसके पक्ष में फ़ैसला दिया और 10 मदों में उसे ₹15 करोड़ देने का आदेश दिया। इसके ख़िलाफ़ अपील में हाईकोर्ट ने प्रत्येक मदों की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि उद्देश्यपरक आधार नहीं होने के कारण कोई भी मद टिकाऊ नहीं है।

अदालत ने कहा कि ठेकेदार की दलील के नोट को आदेश में काफ़ी जगह दी गई और इस आदेश में आकलन या मध्यस्थता की बात का पता नहीं चलता है जबकि यह मध्यस्था की प्रक्रिया की मुख्य बात है।

अदालत ने कहा कि अगर ठेकेदार का दावा किसी अनुमान पर आधारित था, पर मध्यस्थ को यह बताना चाहिए था कि क्यों यह अनुमान उचित था।

अदालत ने राज्य की इस दलील को माना कि आदेश में कॉपी किए गए हिस्से को निकाल दिया जाए और इस बात का आकलन किया जाए कि आदेश में इसके बाद जो बचता है वह तर्क और उचित मध्यस्थता की जाँच पर खड़ा उतरता है। इस तरह, इस आदेश को स्वीकृति नहीं दी गई।

अदालत ने कहा,

"…अगर कॉपी करने के आधार पर इस आदेश के तीन हिस्से को नज़रंदाज़ किया जाता है, क्योंकि इस तरह के हिस्से में सिर्फ़ बातें और तथ्य हैं, तो इस आदेश के व्यावसायिक ध्येय को टिकने का आधार ही नहीं मिलेगा अगर ठेकेदार के नोट से जो कॉपी किया गया है उसे निकाल दिया जाए और आदेश के तार्किक हिस्से का उस आधार पर आकलन किया जाए।"

इसलिए यह कहते हुए कि यह आदेश लोक नीति के ख़िलाफ़ है, हाईकोर्ट इस आदेश को ख़ारिज करता है और ठेकेदार को निदेश देता है कि वह उस सारी राशि को ब्याज सहित लौटा दे जिसका भुगतान उसे किया गया है। उसे यह भी निर्देश दिया गया कि वह मध्यस्थ और अदालत के समक्ष मुक़दमे पर हुए ख़र्चे का वहन भी करेगा।

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