ख़ुद पर प्रतिबंध लगाने का सिद्धांत अनुच्छेद 227 पर उसी तरह से लागू नहीं होता जैसे अनुच्छेद 226 पर : बॉम्बे हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
5 Jan 2020 2:39 PM IST

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि ख़ुद पर प्रतिबंध लगाने का सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 227 पर उस तरह लागू नहीं होता जैसे कि यह अनुच्छेद 226 पर लागू होता है।
न्यायमूर्ति दामा शेशाद्रि नायडू ने जसराज ओसवाल की याचिका पर यह फ़ैसला दिया। ओसवाल एक मामले में अपना बचाव कर रहे हैं, जिसमें प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता को अपनी परिसंपत्ति से एक किरायेदार के रूओप में हटाए जाने की मांग की है। उस मामले में याचिकाकर्ता ने वादी के रूप में सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 के तहत इस याचिका को ख़ारिज करने की मांग की है।
याचिकाकर्ता ने कहा कि शिकायत में कार्रवाई का कोई कारण नहीं बताया गया है और इसलिए इसे सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 के तहत ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए। हालाँकि, निचली अदालत ने 16 सितम्बर 2017 को दिए अपने एक आदेश में इस आवेदन को ख़ारिज कर दिया। इस आदेश के बाद उसने इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती दी।
दलील
वादी के वक़ील एसआर रोंघे ने गजानन बनाम मोहम्मद ज़मील मोहम्मद अहमद मामले में आए फ़ैसले को अपने दलील का आधार बनाया। उन्होंने कहा कि इस याचिका को अनुच्छेद 227 के तहत स्वीकार नहीं किया जा सकता।
याचिकाकर्ता के वक़ील वेंकटेश शास्त्री ने कहा कि उसकी याचिका एक विशेष परिस्थिति की याचिका है। उन्होंने कहा कि सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 के तहत अगर यह एक विशिष्ट आवेदन है तो याचिकाकर्ता को सीपीसी की धारा 115 के तहत उपचार मिलेगा लेकिन इस मामले की जो परिस्थिति थी उसके तहत नहीं।
शास्त्री ने कहा कि याचिकाकर्ता इस आदेश को आंशिक रूप से ख़ारिज करने की माँग करता है। उनका कहना था कि चूँकि यह एक मिश्रित फ़ैसला है, अनुच्छेद 227 के तहत राहत की माँग करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
फ़ैसला
अदालत ने भारतीबेन शाह मामले में पूर्ण पीठ के फ़ैसले की पड़ताल करने के बाद कहा-
" भारतीबेन शाह मामले में अदालत ने कहा है कि जल्दी सुनवाई के लिए विधायिका की चिंता के संदर्भ में धारा 38 यह संकेत देता है कि धारा 34(4) की भाषा जिस तरह का संकेत देती है वैसा व्यापक समीक्षयोग्य आदेश की बात विधायिका नहीं करता है।
इसके बाद फ़ैसले से यह प्रश्न उठता है कि समीक्षयोग्य आदेश से पक्षकारों के किस तरह के अधिकार और देनदारियां प्रभावित होंगी। इसका उत्तर था -
(i) सिर्फ़ किराया अधिनियम के तहत अधिकार और देनदारियां
(ii) किसी भी नियम, आम क़ानून और यहाँ तक कि प्रक्रियात्मक क़ानून के तहत अधिकार और देनदारियां
(iii) किराया क़ानून या किसी भी वृहत क़ानून के तहत अधिकार या देनदारियाँ लेकिन किसी प्रक्रियात्मक क़ानून के तहत नहीं।"
न्यायमूर्ति नायडू ने कहा,
" हम यह नहीं कह सकते कि सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 के तहत आवेदन अगर ख़ारिज भी हो जाता है तो भी यह प्रक्रियात्मक क़दम ही होगा। आवेदन पर किसी भी तरह से विचार किया जाए, यह अंततः किसी न किसी रूप में पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित करता है। इसलिए इसकी समीक्षा की जा सकती है। और यह रिवीज़न महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 की धारा 34 के अधीन होनी चाहिए।
"परिणामतः, मेरी राय में, समीक्षा का आवेदन न तो अनुच्छेद 227 के तहत और न ही सीपीसी की धारा 115 के तहत स्वीकार्य है; यह रिवीज़न महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम, 1999 की धारा 34 के अधीन ही हो सकता है।"
न्यायमूर्ति नायडू ने रजिस्ट्री को इस रिट याचिका को याचिकाकर्ता को लौटा देने का निर्देश दिया और कहा,
"अदालत इस रिट याचिका को ख़ारिज करने के बजाय इसे वापस कर रहा है क्योंकि अदालत ऐसे मामले को ख़ारिज नहीं करना चाहता जिसकी सुनवाई का उसको अधिकार नहीं है। मैं इस बात को मानता हूँ कि ख़ुद पर प्रतिबंध लगाने का सिद्धांत अच्छेद 227 पर वैसे ही लागू नहीं होता जिस तरह से यह अनुच्छेद 226 पर लागू होता है।"
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