COVID उपचार के संबंध में अस्पताल में आंदोलन की खबर के प्रकाशन के पीछे विद्वेषपूर्ण आशय का होना नहीं कहा जा सकता: कलकत्ता हाईकोर्ट ने संपादक को अग्रिम ज़मानत दी
SPARSH UPADHYAY
18 Aug 2020 5:51 PM IST
कलकत्ता हाईकोर्ट ने सोमवार (17 अगस्त) को 'आनंदबाजार पत्रिका' के एक पूर्व संपादक को जमानत देते हुए कहा कि COVID रोगियों के उपचार के संबंध में एक सरकारी अस्पताल में सार्वजनिक आंदोलन को लेकर समाचार आइटम का प्रकाशन, विद्वेषपूर्ण आशय (Malicious Intention) से नहीं कहा जा सकता है।
न्यायमूर्ति कौशिक चंद्रा एवं न्यायमूर्ति जोय्मल्या बागची की खंडपीठ ने यह बात उस मामले में कही, जहाँ संपादक/याचिकाकर्ता ने एक समाचार आइटम/रिपोर्ट का प्रकाशन किया था।
क्या था यह मामला?
दरअसल संपादक/याचिकाकर्ता ने उक्त समाचार रिपोर्ट में निजी सुरक्षा उपकरणों (पीपीई/PPE) की अनुपलब्धता और COVID महामारी से लड़ने के लिए आवश्यक अन्य सुविधाओं के संबंध में चिकित्सा कर्मियों सहित स्वास्थ्य कर्मियों की शिकायतों पर प्रकाश डाला गया था।
राज्य की ओर से यह दलील दी गयी कि उक्त समाचार रिपोर्ट गलत है और प्राथमिक तथ्यों को सत्यापित किए बिना, संपादक ने गलत और असंवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की, जिससे महामारी से लड़ने के लिए राज्य के प्रयास में अनावश्यक व्यवधान पैदा हुआ।
आगे यह कहा गया कि, इसके परिणामस्वरूप, भारतीय दंड संहिता के विभिन्न प्रावधानों के तहत संपादक/याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। इसके बाद, डिजास्टर मैनेजमेंट अधिनियम के तहत अपराधों को भी जोड़ा गया।
राज्य ने यह भी आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने मामले के अन्वेषण में सहयोग नहीं किया और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 ए के तहत नोटिस का जवाब देने में भी वे विफल रहे।
याचिकाकर्ता एवं राज्य सरकार की दलीलें
याचिकाकर्ता के लिए पेश वकील ने यह दलील दी कि रिपोर्ट की सामग्री गलत नहीं है। उनका तर्क यह रहा कि मामले के तथ्यों में, संपादक/याचिकाकर्ता के खिलाफ कथित अपराधों की सामग्री का खुलासा नहीं किया गया है।
उन्होंने कहा कि, याचिकाकर्ता, संपादक के रूप में सार्वजनिक हित में अस्पताल में आंदोलन से संबंधित समाचार रिपोर्ट प्रकाशित करने में पूरी तरह से न्यायोचित था। प्रेस की स्वतंत्रता को गिरफ्तारी और बेवजह के अन्वेषण से दबाया नहीं जा सकता है।
इसके जवाब में, राज्य के लिए पेश एडवोकेट जनरल ने यह कहा कि अन्वेषण को एक निष्पक्ष तरीके से आयोजित किया गया है और राज्य को एफ.आई.आर. इसलिए दर्ज करनी पड़ी, क्योंकि याचिकाकर्ता/संपादक द्वारा प्रकाशित समाचार रिपोर्ट की सामग्री असत्य थी।
उन्होंने आगे यह कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि अस्पताल में सार्वजनिक आंदोलन हुआ था, लेकिन वह आन्दोलन, उक्त अस्पताल को COVID अस्पताल घोषित करने पर असंतोष के कारण था, और वायरस से लड़ने के लिए सुविधाओं की कमी के कारण नहीं, जैसा कि संपादक/याचिकाकर्ता द्वारा कहा गया है।
अदालत का अवलोकन
अदालत ने अपने आदेश में यह देखा कि,
"इस तरह का आंदोलन, भले ही चिकित्सा सुविधाओं की अपर्याप्त आपूर्ति के कारण था, उदाहरण के लिए, पीपीई या किसी अन्य कारण से, वह समाचार पत्र के संपादक द्वारा आंदोलन के तथ्य को प्रकाशित करने या उससे सम्बंधित व्यक्तियों के विचारों को प्रकट करने के रास्ते में बाधा नहीं बन सकता।"
अदालत ने साफ़ किया कि COVID रोगियों के उपचार के संबंध में एक सरकारी अस्पताल में सार्वजनिक आंदोलन को लेकर समाचार आइटम का प्रकाशन, विद्वेषपूर्ण आशय (Malicious Intention) से किया गया हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
उपरोक्त तथ्यों के मद्देनजर और याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोप की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए, अदालत का यह विचार रहा कि तात्कालिक मामला, हिरासत में पूछताछ के लिए उपयुक्त नहीं है।
जहाँ तक याचिकाकर्ता के अन्वेषण में सहयोग की कमी का आरोप था, इसके संबंध में, अदालत ने यह देखा कि याचिकाकर्ता ने पूछताछ के लिए खुद को, सोशल डिस्टेंसिंग मानदंडों का पालन करते हुए अपने कार्यालय में पेश किया।
इस पृष्ठभूमि में, राज्य की इस प्रस्तुति को स्वीकार नहीं किया गया कि याचिकाकर्ता ने अन्वेषण की प्रगति के लिए एक बाधावादी तरीके से व्यवहार किया था।
सभी परिस्थितियों के प्रकाश में, याचिकाकर्ता को 500/- रुपये के निजी रिहाई बांड प्रस्तुत करने पर अग्रिम जमानत दी गयी।
गौरतलब है कि कलकत्ता हाईकोर्ट ने गुरुवार (13 अगस्त) को एक मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए यह कहा था कि यदि जिम्मेदारी से कार्य कर रहे पत्रकार समाचार का प्रसार नहीं कर पाएंगे तो लोकतंत्र का मौलिक चरित्र खो जायेगा।
न्यायमूर्ति संजीब बनर्जी एवं न्यायमूर्ति अनिरुद्ध रॉय की पीठ ने आगे यह भी कहा कि, "समान रूप से, पत्रकारों के लिए अपने कार्य के प्रति ईमानदार होना और एक बात रखने के लिए तथ्यों पर अधिक भरोसा करना महत्वपूर्ण है।"