20 सप्ताह की अवधि के बाद गर्भावस्था की समाप्ति : दिल्ली हाईकोर्ट का निर्देश, मामले में शामिल जोखिमों को देखने के लिए एम्स मेडिकल बोर्ड का गठन करे
LiveLaw News Network
19 April 2020 9:15 AM IST
दिल्ली हाईकोर्ट ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को निर्देश दिया है कि वह एक मेडिकल बोर्ड का गठन करे,जो इस बात की जांच करें कि क्या 23 सप्ताह की गर्भावस्था को समाप्त करने में कोई चिकित्सकीय जोखिम हैं।
गर्भावस्था की समाप्ति के लिए दायर एक तत्काल याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जे.आर मिधा और न्यायमूर्ति ज्योति सिंह की खंडपीठ ने मेडिकल बोर्ड को निर्देश दिया है कि वह अपनी रिपोर्ट को सीलबंद कवर में कोर्ट के समक्ष पेश करें। इस रिपोर्ट में भ्रूण की चिकित्सा असामान्यता का विश्लेषण भी शामिल होना चाहिए। वहीं स्वास्थ्य मंत्री द्वारा जारी किए गए दिशानिर्देशों के ज्ञापन में उल्लिखित विस्तृत दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए बोर्ड अपना विचार भी इस रिपोर्ट में शामिल करें।
यह आदेश एक रिट याचिका पर सुनवाई के बाद दिया गया है। जिसमें मांग की गई थी कि प्रतिवादियों को निर्देश जाए कि वह याचिकाकर्ता को उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दें। इस याचिका में यह भी मांग की गई थी कि मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेगनेंसी एक्ट की धारा 3 (2) (बी) और धारा 5 (1) को संविधान के अल्ट्रा वायर्स या शक्ति से बाहर के रूप में घोषित किया जाए।
कई स्कैन कराने के बाद, याचिकाकर्ता और उसके पति को डॉक्टरों ने बताया था कि यदि बच्चा पैदा होता है, तो उसे ठीक करने के लिए कई सर्जरी की आवश्यकता होगी। वहीं यह कहना भी मुश्किल है कि इन सर्जरी के बाद भी बच्चा पूरी तरह से ठीक हो जाएगा या नहीं। हालाँकि, डॉक्टरों ने यह भी कहा था कि गर्भावस्था की इस अवस्था में भ्रूण की चिकित्सीय स्थिति /असामान्यता की सीमा का पूरी तरह से पता नहीं लगाया जा सकता है।
याचिकाकर्ता की तरफ से पेश वकील विकास वालिया ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता की उम्र लगभग 29 वर्ष है और यह उसकी पहली प्रेगनेंसी है। भ्रूण की चिकित्सा स्थिति को देखते हुए, यह उचित नहीं है कि वह इस गर्भावस्था को जारी रखें और एक ऐसे बच्चे को जन्म दे जो अपने जन्म के बाद विभिन्न असामान्यताओं से ग्रसित हो।
यह भी दलील दी गई कि रिपोर्ट के अनुसार भ्रूण को इकोेजेनिक आंत्र और यकृत कैल्सीफिकेशन से ग्रसित माना गया है। इसलिए भ्रूण की यह स्थिति याचिकाकर्ता और उसके पति के लिए चिंता का कारण बन गई है।
वालिया ने तर्क दिया कि पूरे मामले को देखते हुए एक निर्णय लिया गया है कि याचिकाकर्ता गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति करवा ले। यह निर्णय इस समय मां और बच्चे के सर्वोत्तम हित में है।
हालाँकि वकील वालिया ने अदालत को सूचित किया कि याचिकाकर्ता इस समय वैधानिक रूप से अपनी गर्भावस्था की समाप्ति नहीं करवा सकती है। चूंकि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट की धारा 3 (2) (बी) और धारा 5 (1) के तहत एक पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर केवल तभी गर्भावस्था की समाप्ति कर सकता है,जब इस गर्भावस्था की अवधि 12 सप्ताह से अधिक हो गई है लेकिन 20 सप्ताह से अधिक नहीं न हो। वही इसके लिए इस धारा में कारणों का भी उल्लेख किया गया है।
वालिया ने यह भी तर्क दिया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने कुछ मामलों में परिस्थितियों की आवश्यकता को देखते हुए निर्देश जारी किए हैं कि 20 सप्ताह के बाद भी गर्भावस्था की चिकित्सा समाप्ति की अनुमति दी जाए।
एम्स,केंद्र सरकार व दिल्ली सरकार की तरफ से पेश वकीलों ने अदालत को सूचित किया कि उन्हें याचिकाकर्ता की जांच करने में कोई आपत्ति नहीं है। ताकि भ्रूण की चिकित्सीय स्थिति का पता लगाने के साथ-साथ इस समय गर्भावस्था की समाप्ति में शामिल जोखिमों का भी पता लगाया जा सके।
अदालत को स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी ज्ञापन के बारे में भी बताया गया। जिसके अनुसार एक स्थायी मेडिकल बोर्ड गठित करने का प्रावधान है,जिसमें संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाएगा। इन बोर्ड का काम यह है कि यह न्यायालय के निर्देशों का जवाब दें और गर्भावस्था की समाप्ति के लिए आई महिला या नाबालिग लड़की की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट पेश करें।
केंद्र सरकार की तरफ से पेश राजेश गोगना ने कहा कि इन मेडिकल बोर्ड की एक भूमिका अल्ट्रासाउंड मशीनों आदि के माध्यम से यह निर्धारित करना भी है कि यदि बच्चे का जन्म हुआ तो क्या भ्रूण में असामान्यता इतनी ज्यादा है कि वह या तो जीवन के साथ असंगत है या महत्वपूर्ण रुग्णता या अस्वस्थता से जुड़ी है या बच्चे की मृत्यु दर से जुड़ी है। मेडिकल बोर्ड द्वारा अपनी राय दिए जाने के बाद उसे न्यायालय में भेज दिया जाएगा, ताकि न्यायालय मामले में अंतिम निर्णय ले सके।
एमटीपी अधिनियम के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता के बारे में, श्री गोगना ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता को इस स्तर पर ऐसी कोई दलील नहीं देनी चाहिए क्योंकि संशोधन विधेयक लोकसभा द्वारा पहले ही पारित किया जा चुका है और अभी संसद के उच्च सदन के समक्ष लंबित है।
इन दलीलों के मद्देनजर, अदालत ने एम्स को निर्देश दिया है कि वह एक मेडिकल बोर्ड का गठन करे ,जो याचिकाकर्ता और उसके भ्रूण की जांच करे। साथ ही साथ भ्रूण की मेडिकल स्थिति का भी निर्धारण करे। यह भी कहा गया है कि आदेश पारित होने से 3 दिनों की अवधि के भीतर उक्त सारी प्रक्रिया को पूरा कर लिया जाए।
अदालत ने यह भी निर्देश दिया है कि याचिकाकर्ता की जांच करने वाला मेडिकल बोर्ड निम्नलिखित तथ्यों पर भी अपनी राय दें-
-क्या गर्भावस्था को जारी रखने से याचिकाकर्ता को जोखिम होगा या किसी भी तरह से उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट आएगी?
-यदि इस स्तर पर गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन किया जाता है तो क्या कोई जोखिम है?