'नागरिकों की सुरक्षा करना राज्य की वैधानिक और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी ' : मद्रास हाईकोर्ट ने लाॅकडाउन की वैधता पर सवाल उठाने वाली जनहित याचिका को खारिज करते हुए 50,000 रुपये जुर्माना लगाया

LiveLaw News Network

23 Jun 2020 4:30 AM GMT

  • नागरिकों की सुरक्षा करना राज्य की वैधानिक और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी  : मद्रास हाईकोर्ट ने लाॅकडाउन की वैधता पर सवाल उठाने वाली जनहित याचिका को खारिज करते हुए 50,000 रुपये जुर्माना लगाया

    मद्रास हाईकोर्ट ने बुधवार को अनुकरणीय जुर्माने के साथ उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया है,जिसमें कहा गया था कि महामारी रोग अधिनियम, 1897 या आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत लाॅकडाउन लागू किया जा सके। इसलिए मनमाना होने के अलावा लाॅकडाउन लगाने का आदेश बिना किसी अधिकार के ही पारित कर दिया गया था।

    याचिका में तर्क दिया गया था कि भारत सरकार ने 24 मार्च को पहली बार लाॅकडाउन लागू किया था और उसे 31 मई को अंतिम रूप से बढ़ाया गया था। जो तमिलनाडु राज्य में अभी जारी है। परंतु व्यक्तियों की आवाजाही,धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर एकत्रित होने व रात के कर्फ्यू के संबंध में लगाए प्रतिबंध के मद्देनजर यह असंवैधानिक है। यह भी दलील दी गई थी कि यह लॉकडाउन भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (बी)(डी) , 21, 25 और 14 का उल्लंघन करने वाला है। वहीं राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन जैविक दिशानिर्देश 2008 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना, 2019 से भी मेल नहीं खा रहा था।

    उपर्युक्त प्रस्तुतिकरण का खंडन करते हुए, खंड पीठ ने कहा कि महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 2 के तहत राज्य सरकार को खतरनाक महामारी रोग के मामले में विशेष उपाय करने और विनियमों को निर्धारित करने की शक्ति दी गई है। उक्त अधिनियम की धारा 2 (डी) में ''आपदा'' को परिभाषित किया गया है जिसमें किसी भी क्षेत्र में हुई तबाही, दुर्घटना, आपदा या गंभीर घटना शामिल है, जो प्राकृतिक या मानव निर्मित कारणों से उत्पन्न हुई हो या दुर्घटना या लापरवाही से। वहीं जिसके परिणामस्वरूप मानव की मौत हुई हो या उनको परेशानी,संपत्ति का विनाश या क्षति, या फिर पर्यावरण क्षति हुई हो और फिर उस क्षेत्र को इस तरह से प्रभावित किया हो कि समुदाय उसका मुकाबला करने में सक्षम न हो।

    इसी प्रकार, आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अध्याय V में आपदा प्रबंधन के लिए सरकार द्वारा किए जाने वाले उपायों के बारे में बताया गया है। आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 35 (2) (डी) में विशेष रूप से यह प्रावधान है कि केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए उपाय करेगी कि भारत सरकार के मंत्रालय या विभाग तत्परता से और प्रभावी रूप से किसी भी खतरनाक आपदा स्थिति से निपटने की तैयारियों के लिए आवश्यक उपाय करें।

    इसके अलावा धारा 35 (2) (i) में यह प्रावधान किया गया है कि केंद्र सरकार इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से आवश्यक या व्यावहारिक उपाय करेगी।

    पीठ ने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि-

    ''इसलिए, ऐसा नहीं है कि प्रतिवादियों ने बिना किसी कानूनी अधिकार के लॉकडाउन लगाया है। लॉकडाउन लगाने की शक्ति पूर्वोक्त अधिनियमों के तहत अच्छी तरह उपलब्ध है। महामारी के प्रसारण पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिवादियों ने लॉकडाउन को एक उपाय के तौर पर अपनाया था।

    इसलिए प्रतिवादियों द्वारा महामारी के प्रसार को रोकने के उपाय के रूप में लगाए गए लॉकडाउन को मनमाना नहीं कहा जा सकता है।''

    पूरे मामले को देखने के बाद इस न्यायालय का मानना है कि लाॅकडाउन लगाना या उसमें ढील देने का काम सरकारी तंत्र का है। जो विभिन्न कारकों और जमीनी वास्तविकताओं पर ध्यान देने के बाद तय किया जाना चाहिए। ''भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए यह अदालत महामारी को रोकने के प्रयास में प्रतिवादियों द्वारा लिए गए निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।''

    पीठ ने यह भी कहा कि इस तरह की जनहित याचिकाएं पहले ही इस कोर्ट की अन्य पीठ द्वारा खारिज की जा चुकी हैं तो यह जनहित याचिका दायर करने का कोई औचित्य नहीं था-

    ''रिट याचिकाकर्ता ने हमारी राय में, यह रिट याचिका किसी भी सूरत में जनहित में नहीं बल्कि किसी अन्य कारण से दायर की थी।''

    पीठ ने आदेश देते हुए कहा कि-

    ''याचिकाकर्ता को वर्तमान रिट याचिका को जनहित याचिका के रूप में दायर नहीं करना चाहिए था। इस कारण इस याचिका पर कोर्ट का काफी समय नष्ट हो गया है। हमारा मानना है कि वर्तमान रिट याचिका को अनुकरणीय लागत के साथ खारिज किया जाना चाहिए। हमारे उपरोक्त निष्कर्ष के आलोक में, हम पचास हजार रुपये का जुर्माना लगाते हुए इस रिट याचिका को खारिज कर रहे हैं। जुर्माने की राशि माननीय मुख्य न्यायाधीश राहत कोष में जमा करा दी जाए।''

    पीठ ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि पूरी दुनिया एक असाधारण स्थिति देख रही है। इस Covid19 महामारी के फैलने के कारण बहुत सारे नागरिकों की आजीविका प्रभावित हुई है। भले ही युद्धस्तर पर प्रयास किए जा रहे थे परंतु यह तेजी से फैल रही है। इसके प्रसार को आसानी से कम नहीं किया जा सकता है।

    पीठ ने कहा कि-

    ''यह भी कहा जाना चाहिए कि राज्य का अपने नागरिकों की सुरक्षा करने के लिए वैधानिक दायित्व के साथ-साथ एक महत्वपूर्ण दायित्व भी बनता है। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए प्रतिवादियों ने लॉकडाउन लगाने के आदेश पारित किए हैं और नागरिकों की आवाजाही को प्रतिबंधित किया है। ऐसे में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का सवाल नहीं उठता है।''

    कोर्ट ने दोहराया कि लॉकडाउन लगाना प्रतिवादियों द्वारा अपने नागरिकों के हित में किए गए उपायों में से एक है और यह सुनिश्चित करना है कि उनके स्वास्थ्य और जीवन को किसी भी तरह खतरा न हो। प्रतिवादियों के अनुसार, इस समय देश जिस संकट का सामना कर रहा है उसके लिए लाॅकडाउन रामबाण के समान के है। लॉक डाउन का उद्देश्य केवल वायरस के प्रसार को रोकना है। याचिकाकर्ता के अनुसार भी लॉक डाउन के पहले चरण के दौरान प्रतिवादियों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को जनता के बड़े हित को ध्यान में रखते लगाया गया था।

    कोर्ट ने कहा कि,

    '' उसके बावजूद याचिकाकर्ता का यह तर्क था कि लाॅकडाउन ने आर्टिकल 19 (बी),(डी), 21, 25 और 14 के तहत गारंटीकृत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।''

    पीठ के समक्ष भारत के लिए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने दलील दी थी कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने Covid19 रोग को महामारी घोषित किया था। इसलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी किए गए दिशानिर्देशों के आधार पर और इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद, केंद्र सरकार और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने देशव्यापी लाॅकडाउन लगाने को उचित माना था। इसलिए आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2006 की धारा 8 (2) ( ii) और आपदा प्रबंधन अधिनियम की 10 (2) ( i ) के तहत प्रदत्त शक्ति का उपयोग करते हुए लाॅकडाउन की घोषणा की गई थी।

    महामारी से बड़े पैमाने पर नागरिकों के जीवन को बचाने के लिए लाॅकडाउन लगाना अनिवार्य था। इस तरह के संकट के समय अपने नागरिकों की सुरक्षा करना केंद्र सरकार का वैधानिक दायित्व है। इस प्रकार, यह तर्क दिया गया था कि नागरिकों की जान बचाने के लिए देशव्यापी लाॅकडाउन अनिवार्य हो गया था और भारत सरकार द्वारा 30 मई 2020 को पारित आदेश में कोई मनमानी शामिल नहीं है। जबकि उक्त याचिका में इस आदेश को मनमाना बताया गया है।

    राज्य के लिए पेश एडवोकेट जनरल ने कोर्ट का ध्यान डब्ल्यूपी नंबर 7655/2020 में 15 मई 2020 और डब्ल्यूपी नंबर 7602/2020 में 18 मई 2020 को दिए गए आदेशों की तरफ भी आकर्षित किया।

    उपर्युक्त दोनों रिट याचिका में, मंदिर, मस्जिद, चर्च और अन्य धार्मिक स्थलों को फिर से खोलने के लिए एक मंडामस या परमादेश जारी करने की मांग की गई थी। साथ ही कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए लगाए गए उचित प्रतिबंधों व सोशल डिस्टेंसिंग के साथ लोगों को उनके धर्म के अनुसार प्रार्थना, प्रवचन आदि करने की अनुमति देने की भी मांग की गई थी। पूर्वोक्त आदेशों में, इस न्यायालय ने यह कहते हुए रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया था कि धार्मिक पूजा के स्थानों को खोलने के लिए अनुमति देने से भीड़ एकत्रित होगी।

    यह विशेष रूप से कहा गया था कि भले ही डब्ल्यूपी नंबर7602/2020 को दायर करने वाला याचिकाकर्ता एक सामाजिक कार्यकर्ता होने का दावा कर रहा है परंतु वह इस बात का कोई समाधान नहीं बता पाया कि धार्मिक पूजा स्थल पर आने वाले व्यक्ति सोशल डिस्टेंसिंग के मानदंडों का कैसे पालन कर पाएंगे।

    इसी तरह, वर्तमान मामले में याचिकाकर्ता का यह तर्क था कि लॉकडाउन अनावश्यक है और इसने वायरस के प्रसार पर अंकुश नहीं लगाया है। परंतु याचिकाकर्ता ने यह तर्क बिना किसी आधार के दिया था। इस गंभीर स्थिति में यह प्रशासकों का काम है कि वह इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से परामर्श करने के बाद महामारी पर अंकुश लगाने के लिए कोई निर्णय ले और जरूरी कदम उठाएं।

    इस समय कई देशों में सोशल डिस्टेंसिंग को बनाए रखने और सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता एक वैश्विक आदर्श बन गई है और राज्य इसका अपवाद नहीं हो सकता है। महाधिवक्ता ने यह भी कहा है कि कई राज्यों ने लॉकडाउन लागू करने के लिए महामारी रोग अधिनियम, 1987 और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के प्रावधानों को लागू किया है।

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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