'यह सबसे हैरानी की बात है कि देश में आज भी बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाता है, जो अमानवीय है': मद्रास हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

7 March 2021 7:04 AM GMT

  • यह सबसे हैरानी की बात है कि देश में आज भी बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाता है, जो अमानवीय है: मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट (गुरुवार) ने कहा कि शारीरिक दंड (Corporal Punishment) को खत्म करने के लिए विधायी ढांचे के बावजूद भी देश भर के स्कूलों और संस्थानों में बच्चों को शारीरिक दंड दिया रहा है।

    कोर्ट ने एक स्कूली बच्चे की मौत के मामले में अवलोकन किया, जिसमें एक बच्चे को स्कूल में देरी से आने पर शारीरिक दंड दिया गया था, जबकि मेडिकल रिपोर्ट में पाया गया कि मौत प्राकृतिक कारणों से हुई है।

    न्यायमूर्ति एन. आनंद वेंकटेश ने कहा कि किसी बच्चे को शारीरिक दंड देना, दु:खद और अमानवीय प्रकृति है।

    शुरुआत में न्यायाधीश ने क्षेत्र में शोध का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि शारीरिक दंड के परिणाम गंभीर रूप से नकारात्मक होते हैं क्योंकि यह बच्चों में हिंसा को प्रोत्साहित करता है और यहां तक कि बच्चे पर इसका मनोवैज्ञानिक नुकसान भी पहुंच सकता है।

    इसके बाद उसने निम्नलिखित विधायी रूपरेखाओं को संदर्भित किया, जो शारीरिक दंड पर रोक लगाती हैं:

    1. बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन

    इस सम्मेलन के अनुसार, अनुच्छेद 3, 18 और 36, माता-पिता और वयस्क निजी क्षेत्र में बच्चे का रखरखाव की जिम्मेदारी और शोषण से सुरक्षा के अधिकार से संबंधित हैं। अनुच्छेद 19 बच्चों को सभी प्रकार के शारीरिक शोषण से बचाने के उपायों के लिए है और सदस्य राज्यों पर सभी प्रकार के शारीरिक या मानसिक हिंसा, चोट या दुरुपयोग से बच्चों की सुरक्षा के लिए एक दायित्व लागू करता है। भारत ने 1992 में इस कॉन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये हैं।

    2. भारत का संविधान

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार की रक्षा करता है और संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 21A के तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार और गरिमा के साथ जीवन के अधिकार को शामिल किया गया है।

    यह इस प्रकार, किसी बच्चे को शारीरिक दंड देना, उस बच्चे की स्वतंत्रता और गरिमा को ठेस पहुंचाना है।

    यह बच्चे के शिक्षा के अधिकार में भी हस्तक्षेप करता है क्योंकि शारीरिक दंड के डर से बच्चों को स्कूल आना बंद कर देता हैं या पूरी तरह स्कूल छोड़ने की संभावना होती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 (3), 39 (ई) और (एफ), बच्चों को दुर्व्यवहार से बचाने के लिए उत्तरोत्तर काम करने के लिए समानता और सुरक्षा की गारंटी देते हैं।

    3. बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009

    आरसीएफसीई अधिनियम के तहत, शारीरिक दंड, शिक्षा के अधिकार के साथ-साथ सम्मान के साथ जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। आरसीएफसीई अधिनियम की धारा 17 के अनुसार, 'किसी भी बच्चे को शारीरिक दंड या मानसिक उत्पीड़न के अधीन नहीं किया जाएगा।'

    4. बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति, 2013

    बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति अप्रैल 2013 में अपनाया गया। यह नीति बच्चों के खिलाफ होने वाली "सभी प्रकार की हिंसा" से सुरक्षा के लिए प्रदान करती है, लेकिन विशेष रूप से स्कूल में शिक्षा के संबंध में बच्चे को शारीरिक दंड से सुरक्षा प्रदान करती है। बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति 2013 के पैरा 4.6 के (xv) में कहा गया है कि शिक्षा के संबंध में, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि "कोई भी बच्चा किसी भी शारीरिक दंड या मानसिक उत्पीड़न के अधीन न हो" और "अनुशासन प्रदान करने के लिए सकारात्मक जुड़ाव को बढ़ावा दे ताकि बच्चों को एक अच्छी अनुभवी शिक्षा प्रदान की जा सके।"

    5. तमिलनाडु शिक्षा नियम

    तमिलनाडु शिक्षा नियम 51 कानूनी रूप से बच्चों को शारीरिक दंड से बचाता है।

    बेंच ने मार्च 2014 में सभी राज्य सरकारों को मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा लिखे गए एक पत्र का हवाला देते हुए उन्हें सभी शैक्षणिक संस्थानों में शारीरिक दंड की प्रथा को खत्म करने के लिए कहा था।

    इसके अलावा, पेरेंट्स फोरम फॉर मिनिंगफुल एजुकेशन एंड अन्य बनाम भारत संघ, 2001 (57) DRJ 456 (DB) मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले का उल्लेख किया, जहां दिल्ली स्कूल शिक्षा नियम, 1973 के नियम 37 (1) (a) (और) और (4) रद्द किया, जिसमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुचछेद 21 के उल्लंघन के रूप में शारीरिक दंड के लिए कानूनी मंजूरी दी गई थी।

    शारीरिक प्रशिक्षण कर्मचारियों के बीच जागरूकता

    मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में, अदालत ने देखा कि स्कूल में बच्चों को देरी से पहुंचने पर दंड के रूप में बच्चों को स्कूल के मैदान पर डक वॉक (बत्तख बनकर चलना) करना पड़ता है।

    कोर्ट ने आगे कहा कि कई शोध और अध्ययन से पता चला है कि डक वॉक हालांकि एक बार अनुशासन और फिटनेस व्यवस्था में नियोजित व्यायाम है, लेकिन वास्तव में घुटने में चोट लगने की अधिक संभावना है।

    इस पृष्ठभूमि में, स्कूलों के शारीरिक प्रशिक्षण कर्मचारियों की जिम्मेदारी के महत्व और प्रकृति पर जोर दिया। कहा कि,

    "वर्तमान मामला एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जो शारीरिक प्रशिक्षक और शिक्षक को स्वयं को अपडेट रखने के लिए बाध्य करता है और इसके साथ ही इनके द्वारा वैज्ञानिक विकास और संबंधित अनुसंधान निष्कर्षों के बारे में उन लोगों को सूचित किया जाना चाहिए हैं, जिन लोगों को ये शारीरिक प्रशिक्षण प्रदान करते हैं, क्योंकि इसका सीधा प्रभाव पड़ता है।"

    "किसी भी पेशेवर के पास इस विषय पर विशेष ज्ञान या जागरूकता नहीं है, लेकिन अपने स्वयं के क्षेत्रों में प्रगति के साथ लगातार अपडेट रखना और शारीरिक प्रशिक्षक के लिए जरूरी है। वास्तव में, उन्हें ऐसा करने के लिए ज़िम्मेदारी और सावधानी की एक उच्च सीमा होनी चाहिए, जैसा कि उनके निर्देश और ज्ञान या इसके अभाव, जैसा भी मामला हो, उनके प्रशिक्षुओं के शारीरिक स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करने की क्षमता है और इसलिए किसी भी चीज को अनदेका नहीं किया जा सकता है।"

    पृष्ठभूमि

    बेंच उन तीनों आरोपियों (शारीरिक प्रशिक्षण शिक्षक, हेडमास्टर और स्कूल के कॉरेसपांडेंट) द्वारा दायर एक आपराधिक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें तीनों आरोपियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 304A और ज्य़ुविनाइल जस्टिस एक्ट 2015 की धारा 75 के तहत दर्ज के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करने की मांग की गई है।

    याचिकाकर्ताओं का तर्क यहा है कि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी और यह किसी भी लापरवाही का परिणाम नहीं था। याचिकाकर्ता की ओर से पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया जिसमें डॉक्टर ने इस आशय की अंतिम राय दी कि मौत प्राकृतिक कारण से हुई है और मृत्यु का कोई सटीक कारण नहीं बताया जा सकता है।

    खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 ए के तहत मामला नहीं बनता है और इसलिए, कोई कानूनी दायित्व नहीं बनता है। "आईपीसी की धारा 304 ए के तहत एक आरोप को बनाए रखने के लिए कुछ ऐसे सबूत होने चाहिए कि आरोपी व्यक्तियों की ओर से कुछ ऐसा कृत्य किया गया और जिससे बच्चे की मौत हुई। दूसरे शब्दों में, आरोपी व्यक्तियों के कृत्य में मृत्यु का कारण होने चाहिए।

    हालांकि, खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से नैतिक दायित्व के रूप में पीड़ित परिवार को मुआवजा दिया जाना उचित समझा।

    कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को प्रतिवादी को 10,00,000 रुपये मुआवजे के रूप में भुगतान करने का निर्देश दिया।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "एक अपराध के पीड़ित और सर्वाइवर को वापस उसी जगह नहीं लाया जा सकता है, जहां वे घटना के समक्ष थे। इसलिए, आपराधिक न्याय प्रणाली के पीछे सरल अंतर्निहित सिद्धांत है कि अपराधी और समाज को सबक सिखाना है ताकि इस तरह के अपराधों को रोकने और पीड़ित को आघात से बचाने में मदद किया जा सके। कोर्ट ने प्रतिवादी नंबर2 यानी पीड़ित के पिता से कहा कि इस मामले को खत्म कर देना उचित होगा और इस चीज को बार-बार याद करने से केवल परिवार को निरंतर आघात पहुंचेगा।"

    केस का शीर्षक: एस. जय सिंह एंड अन्य बनाम राज्य और अन्य

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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