सुप्रीम कोर्ट का अजीबोग़रीब तर्क - तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण का भार छोड़े गए पति पर
LiveLaw News Network
2 Oct 2019 10:45 AM GMT
कैसे कोई पत्नी, सिर्फ़ अपनी वैवाहिक स्थिति में बदलाव के कारण दो विपरीत न्यायिक फ़ैसले का लाभ उठा सकती है जबकि मामला एक ही है। क्या यह मनमर्ज़ी इस बात की ताक़ीद नहीं करती कि इस मुद्दे पर संविधान के अनुच्छेद 14 की रोशनी में ग़ौर किया जाए?
अशोक कीनी
"यह कहना कि अगर कोई पत्नी पति को छोड़कर चली जाती है और पति को इस आधार पर तलाक़ लेने के लिए बाध्य करती है, उसे भरण-पोषण का ख़र्च प्राप्त करने का अधिकार है, ऐसा ना तो क़ानून कहता है और न ही न्याय और न ही यह समानता और तर्क पर आधारित है"।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस पूर्व के फ़ैसले को वापस लने से मना कर दिया कि अगर कोई पति जिसने अपनी पत्नी को इस आधार पर तलाक़ दिया है कि वह उसको छोड़कर चली गई है तो उसे फिर भी तलाकशुदा पत्नी को गुज़ारे की राशि देनी होगी। यह विचार और बाद में इसको सही ठहराने की बात से मुझे आश्चर्य हुआ है और इस आलेख में में इसका कारण बताना चाहता हूं।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125(4) किसी पत्नी को अपने पति से गुज़ारे की राशि प्राप्त करने से रोकती है अगर उसने अपने पति को छोड़ दिया है और यह कल्पना करना कि 'पत्नी के तहत तलाकशुदा पत्नी' भी आती है, अदालत ने डॉक्टर स्वपन कुमार बनर्जी बनाम बंगाल राज्य मामले में कहा कि यह प्रावधान सिर्फ़ धारा 125 के तहत लागू होगा न कि इसकी उप-धारा के तहत लागू होगा। लेकिन अदालत ने जिस बात पर ग़ौर नहीं किया या ग़ौर करने से मना कर दिया वह है इस कल्पना को पूरे अध्याय पर लागू करने की क़ानून की इच्छा और सिर्फ़ कुछ धारा और उप-धारा में ही नहीं।
धारा 125 इस तरह से है :
इस अध्याय के उद्देश्य के लिए "पत्नी" की परिधि में वह महिला भी शामिल है जो तलाकशुदा है, या अपने पति से तलाक़ ले चुकी है और फिर शादी नहीं की। एक क्षण के लिए, चलिए हम इस कल्पना को उप-धारा 4 पर लागू करते हैं। इसमें कहा गया है :
इस धारा के तहत कोई पत्नी (तलाकशुदा) अपने पति से गुज़ारे की राशि या अंतरिम गुज़ारे की राशि और प्रक्रिया पर हुआ ख़र्च प्राप्त करने की हक़दार है। इसके बावजूद कि वह किसी अन्य व्यक्ति के साथ रह रही है या बिना किसी पर्याप्त कारण के, वह अपने पति के साथ रहने से मना कर देती है या फिर वे दोनों आपसी सहमति से अलग-अलग रह रहे हैं।
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लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, इस तरह की बात अनर्गल है। वह कहता है कि तलाकशुदा पत्नी को पत्नी सिर्फ़ गुज़ारे की राशि प्राप्त करने भर के लिए माना जा सकता है और इस कल्पना को इस तर्कहीन हद तक नहीं खींचा जा सकता कि तलाकशुदा पत्नी अपने पूर्व-पति के साथ रहने के लिए बाध्य है।
तो फिर धारा 125(4) का क्या मतलब है? यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट है कि साथ छोड़ने वाली पत्नी को गुज़ारा भत्ता नहीं मिल सकता, लेकिन न्यायिक व्याख्या ने इस तरह की महिला के लिए गुज़ारे की राशि का दावा करना उस क्षण से संभव बना दिया है जिस क्षण से कोई पति अपनी पत्नी से पत्नी की ग़लती पर तलाक़ लेता है। इस कल्पना को उप-धारा 4 पर लागू करना और इसे शब्दशः स्वीकार करना युक्तिसंगत नहीं होगा। लेकिन अगर नहीं लागू करने से ज़्यादा असंगत और बेतुकी स्थिति पैदा होती है, तो क्या इसका समर्थन किया जा सकता है?
हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने धारा 125(4) की व्याख्या की और कहा कि जिस पत्नी को पति ने किसी और मर्द के साथ रहने के आधार पर तलाक़ दिया, पति को उसको गुज़ारे की राशि देनी होगी। अदालत ने धारा 125(4) के प्रावधान 'किसी अन्य मर्द के साथ रहने' के प्रावधान पर ग़ौर करते हुए यह बात कही।
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अदालत ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i) के तहत तलाक़ के लिए किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ एक बार भी स्वैच्छिक सहवास काफ़ी होगा जबकि धारा 125(4) के तहत गुज़ारे की राशि नहीं देने के लिए "किसी और मर्द के साथ रहना" ज़रूरी है। वैसे आप इस तर्क से सहमत नहीं हो सकते हैं, लेकिन यह स्पष्ट है कि जिस बात को ध्यान में रखकर यह क़ानून बनाया गया है, हाईकोर्ट का विचार उसमें परिलक्षित होता है। वैधानिक इच्छा का पता व्यभिचार के बारे में वाक्यविन्यास के अंतर को लेकर है जिसका प्रयोग तलाक़ और गुज़ारे की राशि के संदर्भ में हुआ है।
हिंदू विवाह अधिनयम की धारा 13 के अनुसार, तलाक़ उस आधार पर दिया जा सका है अगर पति या पत्नी में से किसी ने तलाक़ चाहने वाले को छोड़ दिया है और याचिका दायर करने की तिथि से कम से कम दो साल से अलग रह रहे हैं। इस प्रावधान की व्याख्या यह स्पष्ट करता है कि इस तरह साथ छोड़ने के लिए किसी तर्कसंगत कारण की ज़रूरत नहीं है। इसलिए, यह मानना कि पत्नी के साथ छोड़ जाने का कोई उचित कारण होगा (पत्नी की गुज़ारे की राशि के लिए याचिका) अनर्गल है।
अगर पारिवारिक अदालत को जो पता चलता है उससे पत्नी पीड़िता दिखती है तो वह इस बात का अपनी अपील में ज़िक्र कर सकती है, लेकिन यह कहना कि अपने पति को छोड़कर चले जानेवाली और फिर तलाक़ के लिए पति को बाध्य करने वाली पत्नी गुज़ारे की राशि प्राप्त कर सकती है, न तो न्याय के हित में है, न समानता या तर्क के और न क़ानून की यह मंशा रही होगी।
मनोज कुमार बनाम चम्पा देवी के मामले में तीन जजों की पीठ ने वनमाला बनाम एचएम रंगनाथ भट्ट और रोहतास सिंह बनाम रमेंद्री मामले में दो जजों की पीठ के फ़ैसले को कारणों का आकलन किए बिना सही ठहराया था। हमारी राय में, पीठ को चाहिए था कि वह इस मामले को किसी बड़ी पीठ को सौंप दे ख़ास कर तब जब उसे पता चला कि तीन जजों की पीठ ने अकारण ही दो जजों की पीठ के फ़ैसले को सही ठहरा दिया।
मनमानी करने का नमूना
परिदृश्य 1: एक पत्नी गुज़ारे की राशि के लिए आवेदन करती है। पति कहता है कि पत्नी उसके साथ रहने से मना कर रही है और इसके पक्ष में सबूत देता है। पत्नी का आवेदन रद्द हो जाएगा क्योंकि क़ानून उसको गुज़ारे की राशि का दावा करने की इजाज़त नहीं देता।
परिदृश्य 2: कुछ साल बाद, पति इस आधार पर तलाक़ लेने में सफल रहता है कि पत्नी साथ नहीं रहती है। तलाकशुदा पत्नी गुज़ारे की राशि के लिए अपील करती है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के कारण उसके आवेदन पर ग़ौर किया जाएगा।
कैसे कोई पत्नी, सिर्फ़ अपनी वैवाहिक स्थिति में बदलाव के कारण दो विपरीत न्यायिक फ़ैसले का लाभ उठा सकती है जबकि मामला एक ही है। क्या यह मनमर्ज़ी इस बात की ताक़ीद नहीं करती कि इस मुद्दे पर संविधान के अनुच्छेद 14 की रोशनी में ग़ौर किया जाए?
ये लेखक के निजी विचार हैं।