आवश्यक धार्मिक गतिविधियों के मामलों पर निर्णय के लिए बड़ी पीठ का गठन होने तक सुप्रीम कोर्ट सबरीमाला रिव्यू को लंबित रखेगा

LiveLaw News Network

15 Nov 2019 9:32 AM GMT

  • आवश्यक धार्मिक गतिविधियों के मामलों पर निर्णय के लिए बड़ी पीठ का गठन होने तक सुप्रीम कोर्ट सबरीमाला रिव्यू को लंबित रखेगा

    सुप्रीम कोर्ट ने वृहस्पतिवार को सबरीमाला मामले में 3:2 की सहमति से आए रिव्यू फ़ैसले को तब तक लंबित रखने का फ़ैसला किया है जब तक कि इस मामले में बड़ी पीठ इस मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश के बारे में कोई निर्णय नहीं ले लेता।

    इस मामले में मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति खानविलकर और इन्दु मल्होत्रा की राय एक थी कि आवश्यक धार्मिक गतिविधियों में अदालत हस्तक्षेप कर सकता है कि नहीं यह मामला बड़ी पीठ को सौंपी जाए जबकि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और नरीमन ने इसके ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला दिया।

    पर अदालत ने 28 सितम्बर 2018 के फ़ैसले पर किसी भी तरह की रोक नहीं लगाई है। इस फ़ैसले में सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की इजाज़त दी गई थी।

    आम सहमति के फ़ैसले में यह भी कहा गया कि शिरूर मठ और दरगाह कमिटी अजमेर मामले में आए फ़ैसले से इस फ़ैसले का विरोध है। शिरूर मठ मामले में कहा गया कि आवश्यक धार्मिक गतिविधि क्या है इसका निर्धारण वह धर्म ही कर सकता है जबकि अजमेर मामले में कहा गया कि अदालत धर्मनिरपेक्ष और धर्मांध विश्वासों को आवश्यक धार्मिक गतिविधियों से अलग कर सकता है।

    आम सहमति के फ़ैसले को पढ़ते हुए मुख्य न्यायाधीश गोगोई ने कहा कि दाऊदी बोहरा समुदाय में स्त्री जननांग के ख़तना की प्रथा, मुसलमान महिलाओं के मस्जिदों में प्रवेश, पारसी महिलाओं के अपने समुदाय के बाहर शादी करने के लिए अग्यारी में प्रवेश की अनुमति पर अदालत को फ़ैसला करना है।

    सबरीमाला मामले को भी इन्हीं मामलों के साथ नत्थी कर दिया गया है।

    न्यायमूर्ति नरीमन जिन्होंने ने आम सहमति के ख़िलाफ़ दिए फ़ैसले को पढ़ा, ने कहा, "पारसी और मुसलमान महिलाओं का मुद्दा सबरीमाला पीठ के समक्ष नहीं था और इसलिए इन मामलों को सबरीमाला मामले के साथ नहीं नत्थी किया जा सकता। इस बारे में मूल फ़ैसला जनहित याचिका की वैधता को लेकर था जिसमें महिलाओं को उनके शारीरिक क्रियाओं के आधार पर मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दिए जाने का मुद्दा उठाया गया था।"

    न्यायमूर्ति नरीमन ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर हुए भारी विरोध प्रदर्शन की भी कड़े शब्दों में आलोचना की। सुप्रीम कोर्ट की उचित आलोचना की अनुमति है पर फ़ैसले को पलटने के लिए संगठित प्रयास की अनुमति नहीं दी जा सकती है। जब किसी फ़ैसले की घोषणा कर दी जाती है तो यह अंतिम होता है और सबको इसे मानना होता है।

    न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा,

    "हर व्यक्ति को यह याद रखना चाहिए कि 'पवित्र ग्रंथ' भारतीय संविधान है और इसी पुस्तक को हाथ में लेकर भारत के लोग एक राष्ट्र के रूप में एकसाथ आगे बढ़ते हैं ताकि वे मानवीय प्रयासों के हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकें और "मैग्ना कार्टा" या "ग्रेट चार्टर ऑफ़ इंडिया" के द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।"

    बड़ी पीठ को जो मामले सौंपे गए हैं वे निम्न हैं -

    (i) धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से संबंधित अनुच्छेद 25 और 26 के बीच अंतरसंबंध और भाग III, विशेषकर अनुच्छेद 14.

    (ii) संविधानके अनुच्छेद 25(1) में "सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य" का क्या मतलब है।

    (iii) संविधान में 'नैतिकता' या 'संवैधानिक नैतिकता' को परिभाषित नहीं किया गया है। क्या यह प्रस्तावना के संदर्भ में ओवरआर्चिंग नैतिकता है या इसका संबंध धार्मिक मान्यताओं या विश्वासों से है। कहीं यह व्यक्तिपरक नहीं हो जाए इसलिए इसकी रूपरेखाओं का वर्णन ज़रूरी है।

    (iv) किस हद तक अदालत इस मामले की जाँच कर सकती है कि कोई विशेष धार्मिक गतिविधि उस धर्म या धार्मिक गतिविधि का अविभाज्य हिस्सा है कि नहीं और या क्या इस बारे में निर्णय का अधिकार उस धर्म के प्रमुखों पर छोड़ देनी चाहिए।

    (v) इस वाक्य "हिंदुओं के वर्गों" का क्या मतलब है। यह संविधान के अनुच्छेद 25(2)(b) में आया है।

    (v) किसी धर्म या उसके किसी वर्ग के 'आवश्यक धार्मिक गतिविधि' को अनुच्छेद 26 के तहत संवैधानिक सुरक्षा मिली हुई है कि नहीं।

    (vi) किसी धर्म के एक वर्ग की धार्मिक परिपाटियों पर ऐसे व्यक्ति द्वारा सवाल उठाने वाले पीआईएल को किस हद तक अनुमति दी जाएगी जो उस धर्म का नहीं है?

    बहुमत के निर्णय ने कहा कि बड़ी पीठ इन सभी मुद्दों पर ग़ौर करेगी जिसमें केरल हिंदू प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (ऑथरिज़ेशन टू एंट्री) रूल्ज़ 1956 की भी जाँच करेगी जिसके तहत सबरीमाला मंदिर प्रशासित है। बड़ी पीठ इस बात का भी निर्णय करेगी कि क्या सभी पक्षों को दुबारा सुना जा सकता है।

    इन मुद्दों के आलोक में बहुमत के फ़ैसले में कहा गया कि –

    "विषय की समीक्षा याचिका और रिट याचिका तब तक लंबित रहे गी जब तक कि इस मुद्दे पर बड़ी पीठ का फ़ैसला नहीं आ जाता जिसका गठन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश करेंगे।"

    मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा,

    "ऐसे क़ानूनी चौखटे में जहाँ अदालतों को कोई पत्रोचित क्षेत्राधिकार नहीं है, और धर्म से संबंधित मुद्दों जिसमें धार्मिक गतिविधियाँ शामिल हैं, उन्हें सीपीसी की धारा 9 या संविधान के अनुच्छेद 226/32 के तहत अपने अधिकार के तहत निर्णय होता है और इस पर अदालत को सतर्क रहने की ज़रूरत है। यह समयबद्ध सिद्धांत और चलन है"।

    सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सबरीमाला मामले में दायर पुनरीक्षण याचिकाओं पर अपना फ़ैसला सुरक्षित रखा था और इस बारे में याचिककर्ताओं की 6 फ़रवरी को पूरे दिन सुनवाई हुई थी।

    सीजेआई गोगोई, न्यायमूर्ति खानविलकर, नरीमन, चंद्रचूड़ और इन्दु मल्होत्रा की पीठ ने कई सारी याचिकाओं की सुनवाई की जिन्हें ट्रावनकोर देवस्वोम बोर्ड, पंडलम रॉयल फ़ैमिली और कुछ श्रद्धालुओं ने 28 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद दायर किया था और इसमें इस फ़ैसले को चुनौती दी थी। इस फ़ैसले में सभी उम्र की महिलाओं को इस मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई थी।

    इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिका दायर करने वालों की दलील है कि इस मंदिर के भगवान के क्वाँरे होने को ध्यान में रखते हुए यह धार्मिक चलन यहाँ लागू है।

    याचिकाकर्ताओं ने यह दलील भी दी कि संवैधानिक नैतिकता एक व्यक्तिपरक जाँच है और विश्वास के मामले में इसे लागू नहीं किया जा सकता। धार्मिक मान्यताओं की तर्क के आधार पर जाँच नहीं की जा सकती। पूजा के अधिकार को देवता की प्रकृति के अनुरूप और मंदिर के आवश्यक धार्मिक गतिविधि के अनुरूप होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि इस फ़ैसले में ग़लती से सबरीमाला मंदिर के संदर्भ में अनुच्छेद 17 के तहत 'छुआछूत' के मामले को ले आया गया और ऐसा करते हुए इसके ऐतिहासिक संदर्भ को नहीं समझा गया।


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