निःशुल्क कानूनी सेवा के लिए एक गरीब आरोपी का अधिकार तब तक ''भ्रम''रहेगा, जब तक कोर्ट इस अधिकार के बारे में उसे नहीं बताती : इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

19 Jan 2020 5:45 AM GMT

  • निःशुल्क कानूनी सेवा के लिए एक गरीब आरोपी का अधिकार तब तक भ्रमरहेगा, जब तक कोर्ट इस अधिकार के बारे में उसे नहीं बताती  :  इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया है कि एक ऐसे गरीब व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के दौरान जो वकील की सेवा लेने में समर्थ नहीं है, अदालत को उसे ''वास्तविक और सार्थक'' मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करनी चाहिए।

    न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने यह दोहराया और खत्री व अन्य बनाम बिहार राज्य, एआईआर 1981 एससी 928 मामले में दिए फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा कि-

    ''... यह राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि एक गरीब अभियुक्त को निःशुल्क कानूनी सेवा न केवल मुकदमे के स्तर या ट्रायल की स्टेज पर बल्कि उस समय भी प्रदान की जाएं जब उसे पहली बार मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। साथ ही जब उसे समय-समय पर रिमांड पर भेजा जाता है, लेकिन निःशुल्क कानूनी सेवाएं का यह अधिकार तब तक एक गरीब अभियुक्त के लिए भ्रामक या अवास्तविक रहेगा, जब तक कि मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश, जिनके समक्ष उसे पेश किया जाता है, उसे इस तरह के अधिकार के बारे में सूचित नहीं करते हैं।


    कानूनी जागरूकता की इतनी कमी है कि इसे हमेशा कानूनी साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए इस देश में चलाए जाने वाले कानूनी सहायता आंदोलन के कार्यक्रम की प्रमुख मदों या विषय-वस्तु में से एक के रूप में मान्यता दी जाती है। यह कानूनी सहायता का मजाक उड़ाना होगा, अगर एक गरीब अज्ञानी और अनपढ़ अभियुक्त पर यह छोड़ दिया जाए कि वह खुद से निःशुल्क कानूनी सेवाओं के बारे में पूछेगा या सहायता मांगेगा। इससे कानूनी सहायता महज एक कागजी वादा बन कर रह जाएगी और यह अपने उद्देश्य में विफल हो जाएगी।''

    अदालत ने आगे कहा कि यदि किसी अभियुक्त को मुकदमे के दौरान पर्याप्त कानूनी सहायता प्रदान नहीं की जाती है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके अधिकारों का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने कहा कि-

    ''दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 303 और 304 रिड विद इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा बनाए गए सामान्य नियमों (आपराधिक)१९७७ के नियम 37 में स्पष्ट रूप से अभियुक्तों के बचाव के लिए कानूनी सहायता प्रदान करने का प्रावधान है। जो एक अभियुक्त को दी जाने वाली वास्तविक और प्रभावी सहायता होनी चाहिए और निष्पक्ष ट्रायल के लिए इस आवश्यकता के उचित अनुपालन को सुनिश्चित करना ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य है।

    अब, यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 (1) के तहत एक मौलिक अधिकार है कि अभियुक्त को सक्षम वकील या प्रैक्टिशनर द्वारा अपना बचाव करने का अधिकार है।''

    विशेष न्यायाधीश (पॉक्सो) द्वारा पारित एक आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए दायर पुनरीक्षण याचिका को अनुमति देते हुए हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की थी। विशेष न्यायाधीश ने सीआरपीसी की धारा 311 के तहत दायर उस आवेदन को खारिज कर दिया था,जिसमें गवाहों को क्रॉस-एग्जामनेशन या प्रति-परीक्षण के लिए बुलाने की मांग की गई थी।

    संशोधनवादी या रीविशनिस्ट ने प्रस्तुत किया था कि चूंकि वह वकील की सेवा लेने की स्थिति में नहीं था, इसलिए उसे उसका बचाव करने के लिए राज्य के खर्च पर ट्रायल कोर्ट ने एमिकस क्यूरी उपलब्ध कराया था। हालाँकि, उक्त एमिकस क्यूरी ने गवाहों से जिरह करने के अवसर का लाभ नहीं उठाया और न ही इसके लिए उससे सलाह ली।

    अदालत ने पाया कि एमिकस क्यूरी की यह कार्रवाई या काम वास्तविक और प्रभावी नहीं था और माना गया कि लगाए गए आदेश को गलत आधार पर पारित किया गया था। संशोधनवादी द्वारा प्रस्तुत की गई दलीलों के साथ अदालत ने सहमति जताई, जिनमें कहा गया था कि सीआरपीसी की धारा 304 का उद्देश्य किसी अभियुक्त को वास्तविक और प्रभावी सहायता प्रदान करना है और इस आवश्यकता के उचित अनुपालन को सुनिश्चित करना ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य है क्योंकि अभियुक्त को भी निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार है।

    इसके लिए मोहम्मद हुसैन और जुल्फिकार अली बनाम राज्य सरकार (एनसीटी सरकार) दिल्ली, 2012 (9) एससीसी 408 मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया गया।

    अदालत ने कहा कि भारत में, ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 70 प्रतिशत लोग निरक्षर हैं और यहां तक कि इस प्रतिशत से कहीं अधिक लोगों को कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं है। इस प्रकार, यह माना जाता है कि अदालत इस कर्तव्य के लिए बाध्य थी कि वह गरीब अभियुक्त को उसके अधिकारों के बारे में सूचित करती और यह सुनिश्चित करती कि उनको ठीक से लागू किया जाए।

    मामले का विवरण-

    केस का शीर्षक- शादान अंसारी बनाम स्टेट ऑफ यूपी एंड अदर्स।

    केस नंबर-सीआरएल.रिविजन. नंबर 1393/2019

    कोरम-न्यायमूर्ति राजीव सिंह

    प्रतिनिधित्व- अधिवक्ता बिपिन कुमार तिवारी (संशोधनवादी के लिए),अतिरिक्त सरकारी अधिवक्ता अनिरुद्ध कुमार सिंह (राज्य के लिए)


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