बलात्कार के दोषी की उम्र और अदालत में नियमित उपस्थिति कानून के तहत न्यूनतम सजा से कम सजा देने का आधार नहीं हो सकती : बॉम्बे हाईकोर्ट
Manisha Khatri
21 Aug 2022 10:15 AM GMT
बॉम्बे हाईकोर्ट ने वर्ष 2005 में अपनी बहरी और मूक भाभी से बलात्कार करने के आरोपी एक व्यक्ति की जेल की सजा को बढ़ाते हुए कहा कि एक बलात्कार के दोषी की अधिक उम्र और अदालत की सुनवाई में नियमित उपस्थिति कानून के तहत न्यूनतम सजा से कम सजा देने कारण/आधार नहीं बन सकती।
आरोपी ने पीड़िता के साथ उस समय बलात्कार किया, जब परिवार के अन्य सदस्य बाहर गए हुए थे और उसने पीड़िता के अंधे पति (दोषी के भाई) को नुकसान पहुंचाने की धमकी भी दी।
कोर्ट ने कहा,
''एक बार जब निचली अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि अभियोजन पक्ष ने आरोपी द्वारा पीड़िता के साथ किए गए बलात्कार के अपराध को उचित संदेह से परे साबित कर दिया है, तो वैधानिक प्रावधान को टालने और कानून द्वारा निधारित सजा की तुलना में कम सजा देने का कोई कारण नहीं है।''
जस्टिस एएस गडकरी और जस्टिस मिलिंद जाधव की खंडपीठ ने 58 वर्षीय नासिक निवासी की जेल की अवधि को पांच साल से बढ़ाकर सात साल कर दिया, जो कि वर्ष 2018 के संशोधन से पहले आईपीसी की धारा 376 (1) के तहत बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा थी। पीठ ने उसे तत्काल प्रभाव से आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया है।
कोर्ट ने कहा कि,''अपीलकर्ता ने सबसे भयावह तरीके से व्यवहार किया है और हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया है।'' यह भी कहा कि ''एक विकलांग/असहाय महिला से ब्लात्कार करना,विशेष रूप से जब वह घर के अंदर अकेली हो'', उसके लिए पांच साल कारावास व 1000 रुपये जुर्माने की सजा देना पर्याप्त नहीं था।
पीठ ने कहा,''यह समझा जाना चाहिए कि कोई भी महिला संपत्ति के बंटवारे के लिए उससे बलात्कार करने के निराधार आरोप लगाने का जोखिम नहीं उठाएगी ... जब तक कोई ऐसी घटना न हुई हो या घटित न हुई हो, तब तक पीड़िता के पास ऐसा आरोप लगाने का कोई कारण नहीं था।''
हाईकोर्ट तीन कार्यवाहियों पर विचार कर रहा था - अभियुक्त द्वारा उसकी दोषसिद्धि के खिलाफ दायर आपराधिक अपील, सजा को बढ़ाने के लिए राज्य द्वारा अपील और अभियुक्त की सजा को बढ़ाने के लिए हाईकोर्ट द्वारा दर्ज एक स्वतःसंज्ञान याचिका।
आरोपी व्यक्ति को वर्ष 2005 में हुई घटना के लिए वर्ष 2013 में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार) और धारा 503 के तहत दोषी ठहराया गया था और पांच साल जेल की सजा सुनाई गई थी और 1000 रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
अभियोजन पक्ष का यह मामला था कि 16 नवंबर 2005 को आरोपी ने महिला के साथ उसके ससुराल में रात 9 बजे से 10 बजे के बीच बलात्कार किया, जबकि आरोपी की पत्नी और परिवार के अन्य सदस्य बाहर गए हुए थे। महिला ने कहा कि उसने अपने ससुर को सूचित करने की कोशिश की थी लेकिन उसने उसकी बात पर ध्यान देने की बजाय उसे उसकी मां के घर छोड़ दिया। पीड़िता ने इस बारे में अपनी मां को बताया,जिसके बाद ही एफआईआर दर्ज करवाई गई थी।
हाईकोर्ट के समक्ष अधिवक्ता आशीष सतपुते ने दलील दी कि पीड़िता ने संयुक्त परिवार को बांटने के लिए अपनी मां के कहने पर आरोपी को फंसाने के लिए झूठी शिकायत दर्ज कराई थी। उन्होंने दावा किया कि आरोपी परिवार के बाकी सदस्यों के साथ भजन-कीर्तन में गया था और एफआईआर दर्ज करवाने में तीन दिन की देरी हुई है। डॉक्टर कोे पीड़ित के निजी अंगों पर कोई चोट नहीं मिली थी और जांचकर्ता का बयान भी दर्ज नहीं करवाया गया।
अभियोजन पक्ष ने दलील दी कि घटना के दिन घर में केवल आरोपी, पीड़िता और उसका पति ही मौजूद थे। इसके अलावा, चिकित्सा और परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी आरोपी के अपराध की ओर इशारा करते हैं।
हालांकि, पीड़िता ने निचली अदालत में गवाही दी थी कि उसने गर्भाशय को हटाने के लिए एक सर्जरी करवाई थी और वह 6 महीने से अपनी मां के घर पर रह रही थी। वह घटना से 15 दिन पहले ही अपने ससुराल लौटी थी और उसका पति बाहर सो रहा था क्योंकि उसे सर्जरी के कारण सेक्स से दूर रहना था।
पीठ ने पीड़िता, उसकी मां और दुभाषिए के उन बयानों पर भरोसा किया, जिनके जरिए पीड़िता ने बयान दिया था। कोर्ट ने बचाव पक्ष के इस दावे को खारिज कर दिया कि आरोपों के पीछे एक लंबित संपत्ति के बटवारे का मुकदमा था, खासकर जब यह मुकदमा घटना के एक साल बाद दायर किया गया था।