अगर अपराध का इरादा नहीं है तो मकोका के तहत गिरफ़्तारी से संरक्षण दिया जा सकता है, पढ़िए बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

17 Sep 2019 2:24 AM GMT

  • अगर अपराध का इरादा नहीं है तो मकोका के तहत गिरफ़्तारी से संरक्षण दिया जा सकता है, पढ़िए बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

    महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के तहत किसी को गिरफ़्तारी से बचाव का यह पहला उदाहरण हो सकता है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस बारे में सुरजीतसिंह गंभीर की याचिका स्वीकार कर ली है।

    न्यायमूर्ति रंजीत मोरे और भारती डांगरे की खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता पर मकोका के तहत मामला दर्ज करने का फ़ैसला करने वालेआईजी और सीआईडी ने दिमाग़ से काम नहीं लिया है और यह मामला जानबूझकर अपराध करने का नहीं है। इसमें आपराधिक मनःस्थिति ( mens rea) का आभाव था।

    मकोका के तहत दर्ज हुए मामले में अग्रिम ज़मानत दिए जाने पर अधिनियम की धारा 21(3) के तहत पाबंदी है। प्रावधानों का उल्लेख करते हुए याचिकाकर्ता को सत्र अदालत ने गिरफ़्तारी-पूर्व ज़मानत नहीं दी । इसके बाद याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर की और मकोका की धारा 21(3) को चुनौती दी और गिरफ़्तारी से संरक्षण की मांग की।

    पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता गंभीर को अहमदनगर के सरकारी अस्पताल में साई भूषण कैंटीन को चलाने का ठेका मिला था। 12 फ़रवरी 2017 को पंचायत समिति और ज़िला परिषद का चुनाव जीतनेवाले उम्मीदवारों ने वहां रात्रि भोज का आयोजन किया था जिसमें लोगों को शराब परोसी गई जिसके बाद 9 लोगों की उस शराब को पीने के कारण मौत हो गई और 13 अन्य लोग गंभीर रूप से बीमार हो गए। पुलिस जांच से पता चला कि शराब पीने के कारण लोगों की मौत हुई और इस शराब को सरकारी अस्पताल के कैंटीन में ही बनाया जाता था।

    उक्त डिनर पार्टी में शामिल होने वाले लोगों में शिकायतकर्ता बबन अवहाड के दो भाई भी थे। इस मामले की एफआईआर मकोका की धारा 304, 328, 34, 65A, 65B, 65C, 65D, 65E, 68A और 68B तथा धारा 18(1) और (2) के तहत दर्ज किए गए।

    जांच में मिलीभगत की बात का पता चलने के बाद याचिकाकर्ता को इस मामले में आरोपी बनाया गया। याचिकाकर्ता के अलावा 19 अन्य लोगों को इस मामले में आरोपी बनाया गया और आरोपी के ख़िलाफ़ मकोका के तहत मुक़दमा चलाने का प्रस्ताव भेजा गया।

    इस प्रस्ताव के मिलने के बाद विशेष पुलिस महानिरीक्षक, सीआईडी, पुणे ने इसे अपनी स्वीकृति दे दी। इससे इस बात की पुष्टि हुई की आरोपी का चचेरा भाई जगजीतसिंह गंभीर ने संगठित अपराध सिंडिकेट बना रखा था और वह ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों में लिप्त था।

    इसके बाद 10 अगस्त 2017 को सीआईडी, पुणे के अतिरिक्त महानिदेशक ने भी उस पर मकोका के तहत मुक़दमा चलाने की अनुमति दे दी।

    फ़ैसला

    याचिकाकर्ता ने कहा कि संगठित अपराध का मामला उसके मामले में नहीं है और हाईकोर्ट उसके ख़िलाफ़ इसके तहत मामले को चलाने की प्रक्रिया को निरस्त करे।

    याचिकाकर्ता ने कहा कि उसे कैंटीन को चलाने का ठेका मिला था पर बैंक गारंटी नहीं देने और कई और शर्तों को नहीं मानने की वजह से यह कैंटीन उसको सुपुर्द नहीं किया गया था। यह भी कहा गया कि जांच से पता चला कि इस कैंटीन का चार महीने का किराया एक अन्य आरोपी ज़ाकिर शेख़ ने जमा कराया था। याचिकाकर्ता ने कहा कि उसका क्लाइंट कैंटीन के दैनिक कार्यों के देखरेख में शामिल नहीं था।

    दलीलों को सुनने के बाद अदालत ने कहा,

    "…साक्ष्यों और दस्तावेज़ों पर ग़ौर करने के बाद अभियोजन का कहना है कि याचिकाकर्ता को यह कैंटीन सौंपा गया पर उसे भौतिक रूप से यह कैंटीन कभी नहीं सौंपा गया … या अभियोजन की दलील पर ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जा सकता है कि कैंटीन याचिकाकर्ता को सौंपा गया पर उसने इसे तुरंत ही जगजीत सिंह गंभीर को दे दिया जो रिश्ते में उसका दूर का चचेरा भाई लगता है और जो इस कैंटीन को मोहन दुग्गल के साथ चला रहा था। उसने यह बयान दिया है कि उसने जीतू को 50 हज़ार रुपए दिए थे और ज़ाकिर शेख़ को इसका किराया दे रहा था।

    अभियोजन के पास इस तरह का कोई साक्ष्य नहीं है कि जब 2017 के फ़रवरी में यह घटना हुई उस समय याचिकाकर्ता साई भूषण कैंटीन को चलाने से किसी तरह जुड़ा था"।

    अदालत ने कहा,

    "…आपराधिक मनःस्थिति (mens rea) के बिना कोई अपराध नहीं हो सकता…और इसलिए किसी भी क़ानून के तहत अपराध के लिए यह ज़रूरी है कि मंशा ग़लत हो और इसके बिना किसी भी तरह के अपराध की बात को स्थापित नहीं किया जा सकता"।

    "…भारत शांतिलाल शाह एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य मामला, जिसमें मकोका की संवैधानिकता का निर्णय हुआ, इस अदालत की खंडपीठ ने इस अधिनियम की धारा 3 और 4 के प्रावधानों को सही ठहराया और कहा कि इनमें अपराध की नीयत अंतर्निहित है और इसे अपराध की आवश्यक रूप से मुख्य बात मानी जाएगी"।

    यह कहते हुए अदालत ने याचिका स्वीकार कर ली और कहा, "हम प्रथम दृष्ट्या इस बात से संतुष्ट हैं कि याचिकाकर्ता पर मकोका के प्रावधानों के तहत मुक़दमा चलाने की अनुमति देने का विशेष पुलिस महानिरीक्षक, सीआईडी, पुणे का फ़ैसला उचित नहीं था, क्योंकि इसके समर्थन में कोई ठोस साक्ष्य नहीं पेश किया गया…हमारी राय में याचिकाकर्ता अपनी गिरफ़्तारी से संरक्षण प्राप्त करने के योग्य है।"



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