प्रथम दृष्टया पुख्ता सबूत को लेकर आश्वस्त होने पर ही अदालत आरोपी को अदालत में पेशी के लिए बुलाए : इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
12 Nov 2019 1:21 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक ताज़ा फैसले में इस बात को दोहराया कि किसी आरोपी को अदालत में बुलाने को लेकर मजिस्ट्रेट के लिए यह जरूरी है कि वह इसके बारे में अपने आश्वस्त होने का उल्लेख करे।
अदालत ने यह फैसला आवेदनकर्ता की इस दलील पर दिया कि निचली अदालत ने शिकायतकर्ता और उसके गवाहों के बयानों के आधार पर सिर्फ एक निष्कर्ष रिकॉर्ड किया था कि प्रथम दृष्टया ऐसा करने का आधार है, लेकिन अदालत का यह निष्कर्ष सीआरपीसी की धारा 200 और 202 के तहत शिकायतकर्ता और उसके गवाहों के रिकॉर्ड बयानों पर हुई बहस के बाद नहीं आया।
अपने विचारों के समर्थन में न्यायमूर्ति राजीव मिश्रा ने कई फैसलों का जिक्र किया।
श्रीमती शिव कुमार एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य, 2017 (2) JIC, 589, (All) (LB),मामले में हाईकोर्ट ने आरोपी को यंत्रवत अदालत में बुलाये जाने के बारे में आगाह किया था। अदालत ने कहा था
"मजिस्ट्रेट को कम से कम अपने आदेश में यह बताने की जरूरत है कि वह आरोपी को बुलाने के बारे में प्रथम दृष्टया संतुष्ट है। इस आदेश से यह पता चलना चाहिए कि मजिस्ट्रेट ने खुद को शिकायत में लगाए गए आरोपों के बारे में आश्वस्त करने के बाद क़ानून के अनुरूप अपने अधिकार का प्रयोग किया है।
आरोपी को यंत्रत्व अदालत में सिर्फ यह लिखकर नहीं बुलाया जा सकता कि सीआरपीसी की धारा 200 और 202 के तहत बयान को पढ़ा गया है।"
इसी तरह, एसएमएस फार्मास्युटिकल्स लि. बनाम नीता भल्ला, (2005) 8 SCC 89 मामले में हाईकोर्ट ने आरोपी के खिलाफ कार्रवाई को लेकर पूर्ण संतुष्टि पर आवश्यक रूप से जोर दिया।
"संहिता की धारा 203 मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देता है कि वह इस शिकायत को प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही खारिज कर दे। इसमें "विचार के बाद" शब्द और "मजिस्ट्रेट की राय है कि इस मामले में आगे की कार्रवाई के लिए पर्याप्त आधार नहीं है" का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों से पता चलता है कि शुरू में ही किसी भी शिकायत के मुतल्लिक मजिस्ट्रेट को अपनी बुद्धि का प्रयोग करना होगा और यह देखना होगा कि इस व्यक्ति के खिलाफ मामला शिकायत के आधार पर इस प्रक्रिया के शुरू होने से पहले निर्धारित कर दिया गया है।
यह एक स्थापित सिद्धांत है कि किसी आरोपी को अदालत में बुलाने से पहले अदालत को प्रथम दृष्टया साक्ष्य पर गौर करना चाहिए। प्रथम दृष्टया साक्ष्य का मतलब हुआ आरोपी को बुलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य का होना न की दोषी पाए जाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य। सीआरपीसी की धारा 202 के तहत जांच सिर्फ यह सुनिश्चित करने तक सीमित है कि शिकायत में जो आरोप लगाये हैं वे सही हैं या नहीं और शिकायतकर्ता जो सबूत उपलब्ध कराया है वह आरोपी को अदालत में बुलाने के लिए पर्याप्त है की नहीं।"
वर्तमान मामले में आवेदनकर्ता गिरिजेश और छह अन्य लोगों ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट में अर्जी दायर कर आईपीसी की धारा 323, 352, 452, 504, 506 के तहत सिविल जज के आदेश को चुनौती दी थी।
अपीलकर्ताओं ने कहा था कि निचली अदालत की किसी भी जांच की रिकॉर्डिंग के अभाव में शिकायतकर्ता और गवाहों की शिकायत के आधार पर अदालत ने आवेदक को सम्मन करने से पहले प्रथम दृष्टया संतुष्टि रिकॉर्ड नहीं की थी।
इसके अनुरूप, हाईकोर्ट ने कहा कि सम्मन भेजने का यह आदेश 'संक्षिप्त' था और हाईकोर्ट ने विभिन्न मौकों पर इस बारे में जिस जांच की बात कही है उस पर खड़ा नहीं उतरता है. इसलिए, इस आवेदन को स्वीकार कर लिया गया निचली अदालत को निर्देशित किया गया कि वह क़ानून के अनुरूप ताजा आदेश जारी करे।
आवेदकों की पैरवी विपिन कुमार सिंह और अमित सक्सेना ने और सरकारी वकील ने राज्य सरकार की पैरवी की।