एहतियातन हिरासत निजी स्वतंत्रता का अतिक्रमण, इसमें लापरवाही की इजाज़त नहीं दी जा सकती : इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
24 Dec 2019 3:00 PM IST
एहतियात के तौर पर किसी को हिरासत में लेना उसकी निजी स्वतंत्रता पर हमला है और इसमें लापरवाही की इजाज़त नहीं दी जा सकती जैसा कि इस मामले में हुआ है।
यह कहना था इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति शाबिहुल हसनैन और रेखा दीक्षित की पीठ का।
यह मामला राज्य सरकार के एक आदेश से संबंधित है जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के तहत जारी किया गया था। इसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि यह आदेश ग़ैरक़ानूनी और है और इसका कोई अस्तित्व नहीं है। याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि यह आदेश राजनीति और हिरासत में लेने वाले व्यक्ति की संतुष्टि पर आधारित है और यही कारण है कि यह इसकी क़ानूनी वैधता को कठघरे में खड़ा करता है।
अदालत ने कहा,
"आम जीवन में व्यवस्था से संबंधित किसी कार्य के लिए ज़रूरी है कि उसकी प्रकृति ऐसी हो जो आम जीवन को तात्कालिक रूप से बाधित करे।फिर, यह ऐसा हो कि सामान्य क़ानून से इसका प्रबंधन संभव नहीं है; दूसरे शब्दों में सामान्य आपराधिक क़ानून अगर कथित गतिविधि से सक्षमता से निपट सकता था तो उस स्थिति में एहतियातन हिरासत में लेने के क़ानून की ज़रूरत नहीं हो सकती थी। वर्तमान मामले के तथ्य और उसकी परिस्थितियां विशेषकर हिरासत में लेनेवाले अधिकारियों के बयान में जो अंतर है वह इस बात को साबित करने में विफल रहा है कि उसकी गतिविधि से आम जीवन में क़ायम व्यवस्था को ख़तरा था।"
अदालत ने इस बारे में पेबाम निंगोल बनाम मणिपुर राज्य एवं अन्य मामले का भी उदाहरण दिया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि अगर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत उसको हिरासत में लेने का इनमें से कोई एक आधार मौजूद नहीं है, यह ग़लत और असंगत है तो यह अवैध हो जाएगा।
अदालत ने कहा कि हिरासत आदेश से स्पष्ट है कि यह झूठे तथ्यों पर आधारित था और यह भी कि एहतियातन हिरासत में लेना किसी व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता पर हमला है।
इस संभावना जताते हुए कि राजनीतिक वजहों से हिरासत में लेने का आदेश दिया गया होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता है, अदालत ने कहा कि आदेश से लगता है कि हिरासत में लेने वाले अधिकारी ने ऐसा करते हुए इसमें विवेक का इस्तेमाल नहीं किया गया है और अधिकारी ने प्रायोजक अधिकारी के रिपोर्ट पर कार्रवाई की जिसमें याचिकाकर्ता को ख़ूँख़ार अपराधी और गिरोह रखनेवाले खनन माफ़िया बताया गया था जो कि बिना किसी संदेह के ग़लत और असंत है।
अदालत ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता व्यवसायी है और उसे कभी भी गैंस्टर (समाजविरोधी गतिविधियों) अधिनियम में कभी भी नामज़द नहीं किया गया है।इसके बाद अदालत ने याचिका सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली और हिरासत में लेने के आदेश को निरस्त कर दिया।