एससी/एसटी अधिनियम के तहत डीएसपी रैंक के पुलिस अधिकारी को पहले जांच करने और फिर एफआईआर दर्ज करने का अधिकार नहीं : बॉम्बे हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
30 Jun 2020 8:45 AM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह अपने एक फ़ैसले में कहा कि पुलिस उप अधीक्षक (डीएसपी) रैंक के अधिकारी को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत जाति उत्पीड़न के मामले की पहले जांच करने और फिर उसके बाद इस मामले में प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार नहीं है। यह उसका कर्तव्य है कि वह पहले प्राथमिकी दर्ज करे और उसके बाद इस मामले की जांच करे।
न्यायमूर्ति पृथ्वीराज के चव्हाण ने विकास बंदगार नामक एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई के बाद यह बात कही। बंदगार ने बारामती के अतिरिक्त सत्र जज के उस आदेश को चुनौती दी है, जिसमें उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 31(r) और (s) और आईपीसी की धारा 447, 504 और 506 के तहत मामला दायर करने को कहा था।
पृष्ठभूमि
विकास बंदगार के भारी सम्पत बंदगार ने 27 सितम्बर 2018 को रमेश सवाने (मूल शिकायतकर्ता) के ख़िलाफ़ शिकायत की और आरोप लगाया कि उसने सम्पत को जातिवाद के आरोप में झूठा फंसाने और उसको ब्लैकमेल करने की धमकी दी।
सवाने 1993-2005 के बीच सम्पत बंदगार के लिए काम करता था। 2005 में उसने उसकी नौकरी छोड़ दी और प्रॉपर्टी एजेंट का काम करने लगा। सवाने और सम्पत के बीच एक ज़मीन को लेकर समझौता हुआ कि सम्पत ज़मीन का एक हिस्सा सवाने को उसके कमीशन के बदले देगा, लेकिन डील के बावजूद बंदगार ने उसे ज़मीन देने से मना कर दिया।
सवाने ने 6 अगस्त 2018 को बंदगार की धमकियों को देखते हुए सम्पत के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत की पर पुलिस ने कथित रूप से सम्पत के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। फिर 14 अगस्त 2018 को सम्पत ने अपीलकर्ता विकास को सवाने के घर भेजा जिसने रिवॉल्वर से उसे धमकी दी कि वह शिकायत वापस ले ले नहीं तो वह उसे और उसके परिवार को जान से मार देगा।
अतिरिक्त सत्र जज ने सम्पत बंदगार के ख़िलाफ़ शिकायत को ख़ारिज कर दिया लेकिन विकास बंदगार, अपीलकर्ता के ख़िलाफ़ मामला जारी किया। उसने कहा कि एक प्रत्यक्षदर्शी अजय के अनुसार 14 अगस्त 2018 को अपीलकर्ता उसके घर पहुंचा और उसको जाति के आधार पर उसे अपमानित किया और सवाने को रिवॉल्वर दिखाकर धमकाया कि वह सम्पत के ख़िलाफ़ शिकायत वापस ले ले।
फ़ैसला
अपीलकर्ता की पैरवी राहुल काटे ने की जबकि राज्य की पैरवी एपीपी एमएच म्हात्रे और रेखा मुसले ने रमेश सवाने की पैरवी की।
अदालत ने रेखा मुसले की इस दलील को मान लिया कि हेड कॉन्सटेबल सतपूते को इस मामले की जांच करने को संबंधित डीएसपी ने कहा जो कि एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधानों के ख़िलाफ़ है, क्योंकि इस तरह के मामलों की जांच डीएसपी रैंक के अधिकारी को करना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि डीएसपी ने सम्पत बंदगार और प्रतिवादी नम्बर 2 का बयान रिकॉर्ड किया था, लेकिन ऐसा लगता है कि प्रतिवादी नम्बर 2 का बयान हेड कॉन्सटेबल ने रिकॉर्ड किया था।
शुरू में ही पुलिस अधिकारी ने यह माना कि इस मामले में क़ानून का उल्लंघन हुआ और अदालत से बिना शर्त माफ़ी मांगी क्योंकि उसने शिकायतकर्ता और आरोपी को सम्मन जारी करने के लिए सतपूते को कहा। उसने कहा कि ऐसा उसने जानबूझकर नहीं किया।
अदालत ने इस बारे में भारत संघ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का भी हवाला दिया। इस फ़ैसले में कहा गया है कि पुलिस उप अधीक्षक रैंक के अधिकारी को उत्पीड़न अधिनियम के तहत ऐसे मामलों की जांच का अधिकार नहीं है जो जातिगत उत्पीड़न से संबंधित है। उसका कर्तव्य है कि पहले वह प्राथमिकी दर्ज करे और फिर इस मामले की जांच करे।
यह इस बात का उदाहरण है कि कई बार कैसे कोई उच्च अधिकारी पक्षपात करता है। अदालत ने कहा कि इसलिए बारामती के अतिरिक्त सत्र जज ने सही कहा है कि अपीलकर्ता के ख़िलाफ़ आईपीसी की संबंधित धाराओं के तहत प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। अदालत ने कहा कि इस आदेश में इस स्तर पर किसी भी तरह के हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं हैं।
अपील को ख़ारिज करने से पहले अदालत ने पुलिस अधीक्षक, ग्रामीण, पुणे को निर्देश दिया कि वह पुलिस उप अधीक्षक के ख़िलाफ़ उचित कार्रवाई करें।
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