POCSO अधिनियम की धारा 29 अभियोजन को ऐसे साक्ष्य अदालत में पेश करने से नहीं रोकती, जिससे आवश्यक और मौलिक कारकों को साबित किया जा सके : केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

7 Aug 2020 4:15 AM GMT

  • POCSO अधिनियम की धारा 29 अभियोजन को ऐसे साक्ष्य अदालत में पेश करने से नहीं रोकती, जिससे आवश्यक और मौलिक कारकों को साबित किया जा सके : केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल अफेंसेस (POCSO) एक्ट 2012 की धारा 29 अभियोजन की इस ज़िम्मेदारी को कम नहीं करती कि वह अदलत में ऐसे तथ्य और साक्ष्य पेश करे जो आवश्यक और मुक़दमे की बुनियाद से जुड़े हुए हैं।

    न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार की पीठ ने POCSO मामले में आरोपी की याचिका ख़ारिज करते हुए कहा कि जब अभियोजन अपराध को साबित करने वाले ऐसे साक्ष्य पेश करता है जिस पर अदालत विचार कर सकती है, तो आरोपी को संभावना की प्रधानता के सिद्धांत के आधार पर यह साबित करना होगा कि उसने यह अपराध नहीं किया है।

    कोर्ट ने कहा कि POCSO अधिनियम की धारा 29 में प्रयुक्त शाब्दिक अर्थ से ऐसा लगता है कि यह संवैधानिक रूप से संदिग्ध है और इस पूर्वानुमान के विरूद्ध है, जिसके तहत आपराधिक मामलों में आरोपी को निर्दोष माना गया है। कोर्ट ने कहा कि निर्दोष होने के पूर्वानुमान की तुलना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से नहीं की जा सकती।

    POCSO मामले में सुनवाई के लिए जिन प्रक्रियाओं का पालन किया जाना है उसकी चर्चा करते हुए पीठ ने कहा,

    " POCSO अधिनियम में संहिता की धारा 226, 227 और 228 की जहां तक बात है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि यह अभियोजन की ज़िम्मेदारी है कि आरोपी के ख़िलाफ़ मामले को आगे बढ़ाने के लिए वह पर्याप्त सबूत अदालत में पेश करे और POCSO अधिनियम की धारा 29 उसे इन साक्ष्यों को पेश करने की ज़िम्मेदारी से मुक्ति नहीं देती है और अगर आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत उपलब्ध नहीं कराए जाते हैं तो आरोपी को बरी किया जा सकता है।"

    कोर्ट ने यह भी कहा कि आपराधिक सुनवाई में आरोपी के ख़िलाफ़ सभी तरह के आरोपों को सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी अभियोजन की है और यह ज़िम्मेदारी कभी बदलती नहीं है और तथ्यों को साबित करने की ज़िम्मेदारी क़ानूनन आरोपी की है।

    कोर्ट ने कहा,

    "…POCSO अधिनियम की धारा 29 मात्र एक नियम है जो अभियोजन में साक्ष्य संबंधी ज़िम्मेदारी बदल देती है। अमूमन आपराधिक सुनवाई में अगर आरोपी कोई साक्ष्य नहीं देता है तो भी अभियोजन विफल होता है या अगर जो साक्ष्य अभियोजन ने पेश किए हैं वह संदेह की एक तर्कसंगत सीमा के आगे तक आरोपी के अपराध को साबित नहीं कर देता। किन्तु POCSO अधिनियम के तहत धारा 29 संहिता की धारा 232 के पड़ाव को पार करने के बाद ही सक्रिय होता है।

    दूसरे शब्दों में, एक दी हुई स्थिति में, अगर अभियोजन अपराध के मूल के बारे में कोई तथ्य पेश करता है तो इसकी विश्वसनीयता भले ही जो हो, यह माना जाएगा कि आरोपी ने वह अपराध किया है या अपराध करने का प्रयास किया है जिसका आरोप उस पर लगाया गया है बशर्ते कि वह इसके उलट इसे साबित कर दे क्योंकि इस स्तर पर अपराध होने की बात को नकारने की ज़िम्मेदारी आरोपी की है।"

    पूर्वानुमान को आरोपी किस तरह निष्फल करे इस बारे में कोर्ट ने कहा,

    "…आरोपी अपने मामले को साबित करने के लिए सबूत पेश भी कर सकता है और नहीं भी कर सकता है और उसे पेश किए गए तथ्यों के आधार पर कुल मिलकर यह साबित करना है कि जिन तथ्यों का पूर्वानुमान लागाया गया है उसे संभावना की बहुलता के कारण यह न माना जाए कि यह साबित हो गया है जिसके लिए वह अभियोजन के मामले में अस्थिरता या असंभाव्यता पर निर्भर रह सकता है जो अभियोजन के मामले के झूठे होने का निष्कर्ष निकालने जाने से नहीं रोक सकता है।"

    पेश किए गए साक्ष्यों पर विचार करते हुए कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अभियोजन ने आरोपी के सभी तरह के अपराधों को साबित करने का मूल तथ्य पेश किया है और आरोपी संभावनाओं की बहुलता के सिद्धांत के आधार पर खुद को निर्दोष साबित करने में विफल रहा है।

    केस का नाम : डेविड बनाम केरल राज्य

    केस नंबर : CRL.A.No.419 OF 2019

    कोरम : न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार

    वक़ील : एस राजीव, केके धीरेंद्रकृष्णन

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