'लिव-इन कपल्स की याचिकाएं शायद ही कभी खतरे के वास्तविक अस्तित्व पर आधारित होती हैं, ऐसे मामले कोर्ट का अधिक समय लेते हैं': पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

14 Jun 2021 6:45 AM GMT

  • लिव-इन कपल्स की याचिकाएं शायद ही कभी खतरे के वास्तविक अस्तित्व पर आधारित होती हैं, ऐसे मामले कोर्ट का अधिक समय लेते हैं: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हाल ही लिव-इन-कपल (जो अभी तक विवाह योग्य आयु प्राप्त नहीं किए हैं) की सुरक्षा से संबंधित याचिका को निपटाते हुए कहा कि कि लिव-इन कपल्स के अधिकांश याचिकाएं औपचारिक प्रतीकात्मक तर्क, काल्पनिक कारणों के आधार पर कार्रवाई और शायद ही कभी खतरे के वास्तविक अस्तित्व पर आधारित होती हैं।

    जस्टिस मनोज बजाज की बेंच दया राम [20 साल] और रीनू [14 साल] की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिका में कहा गया है कि वे एक-दूसरे को पिछले एक साल से जानते हैं और समय बीतने के साथ उन्हें प्यार हो गया। हालांकि, रीनू के माता-पिता उनके रिश्ते का विरोध कर रहे हैं।

    याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि वे अच्छा और बुरे को समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व हैं और उन्होंने शादी करने का फैसला किया, लेकिन उनके माता-पिता और रीनू के अन्य रिश्तेदारों ने शादी का विरोध किया।

    याचिकाकर्ताओं ने आगे यह तर्क दिया कि उनके पास लिव-इन-रिलेशनशिप में साथ रहने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा और आज तक याचिकाकर्ताओं ने आपसी कोई शारीरिक संबंध स्थापित नहीं किए हैं क्योंकि वे कानून विवाह योग्य आयु प्राप्त करने का इंतजार कर रहे हैं, इसलिए निजी प्रतिवादियों से उनके जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।

    कोर्ट का अवलोकन

    कोर्ट ने शुरुआत में कहा कि पिछले कुछ वर्षों से समाज सामाजिक मूल्यों में गहरा परिवर्तन अनुभव कर रहा है, विशेष रूप से उत्साही युवाओं के बीच जो शायद ही कभी पूर्ण स्वतंत्रता पाने के लिए अपने माता-पिता का साथ छोड़ देते हैं, आदि। इसके साछ ही वे अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ जीवन बिताने और जीवन की स्वतंत्रता को खतरा बताकर सुरक्षा के लिए याचिका दायर करके अपने गठबंधन के लिए अदालत की मुहर पाने की कोशिश करते हैं।

    कोर्ट ने महत्वपूर्ण रूप से कहा कि,

    "इस तरह की याचिकाएं आमतौर पर केवल लड़की के फैसले को अस्वीकार करने वाले इनके माता-पिता या अन्य करीबी रिश्तेदारों के खिलाफ खतरे की आशंका के एकमात्र आधार पर आधारित होती हैं, क्योंकि जोड़े के फैसले का लड़के के परिवार के सदस्यों द्वारा शायद ही कभी विरोध किया जाता है। साथ रहने का उनका अधिकार या तो उनके अचानक, गुप्त और छोटे गंतव्य विवाह या लिव-इन-रिलेशनशिप पर आधारित है।"

    कोर्ट ने नोट किया कि पीड़ित व्यक्ति वैकल्पिक उपाय का लाभ उठा सकते हैं, लेकिन कोर्ट ने कहा कि रिट याचिकाओं के अनुसार बड़ी संख्या में याचिकाएं इस अदालत में दायर की जाती हैं, वैकल्पिक उपाय कम सुखद है।

    अदालत ने कहा कि,

    "कई अन्य मामलों की सुनवाई की कीमत पर इस तरह के मामलों में अदालत का काफी समय जाता है।"

    कोर्ट ने यह भी कहा कि दो वयस्कों के बीच लिव-इन-रिलेशनशिप की अवधारणा को भारत में भी मान्यता मिली है, क्योंकि विधायिका ने इस तरह के गठबंधन में कुछ वैधता को इंजेक्ट किया है, जबकि घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा अधिनियम 2005 की धारा 2(f) में उदारतापूर्वक "घरेलू संबंध" को परिभाषित किया गया है।

    कोर्ट ने आगे कहा कि इसके बावजूद समाज के कुछ वर्ग इस तरह के संबंधों को स्वीकार करने से हिचकते हैं।

    कोर्ट ने अंत में कहा कि,

    "केवल इसलिए कि दो वयस्क कुछ दिनों के लिए एक साथ रह रहे हैं, इसके आधार पर लिव-इन-रिलेशनशिप का उनका दावा यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है कि वे वास्तव में लिव-इन-रिलेशनशिप में हैं।"

    कोर्ट ने इस मामले में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, सिरसा को एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राजस्थान पुलिस के साथ समन्वय के बाद नाबालिग लड़की की कस्टडी उसके माता-पिता को बहाल की जाए।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के माध्यम से दंडात्मक प्रावधान होने के बावजूद बाल विवाह उक्त अधिनियम के प्रावधानों के उल्लंघन में हो रहे हैं और इस प्रकार उच्च न्यायालय ने उन्हें सुरक्षा प्रदान करने से इनकार कर दिया और याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिय कि बाल विवाह के खतरे को खत्म करने के मुद्दे पर राज्य द्वारा विचार किया जाना चाहिए।

    केस का शीर्षक - दया राम और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:



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