फोन कॉल टेप करने की अनुमति केवल सार्वजनिक सुरक्षा के हित में दी जा सकती है, पढ़िए बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

24 Oct 2019 9:21 AM GMT

  • फोन कॉल टेप करने की अनुमति केवल सार्वजनिक सुरक्षा के हित में दी जा सकती है, पढ़िए बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार को मुंबई के एक 54 वर्षीय व्यवसायी को राहत दे दी है और केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा पारित तीन अलग-अलग आदेशों को रद्द कर दिया है। इन आदेशों के तहत मंत्रालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो को रिश्वतखोरी के एक मामले में याचिकाकर्ता व्यवसायी के फोन कॉल को टेप करने की अनुमति दे दी थी। रिश्वतखोरी के इस मामले में सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक का एक अधिकारी भी शामिल था।

    न्यायमूर्ति रंजीत मोर और न्यायमूर्ति एन.जे जमादार की दो सदस्यीय पीठ ने केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्देश दिया है कि वह उक्त कॉल रिकॉर्डिंग की प्रतियों को नष्ट कर दे।

    यह था मामला

    सीबीआई के अनुसार, याचिकाकर्ता ने क्रेडिट संबंधी फायदा लेने के लिए उक्त बैंक अधिकारी को 10 लाख रुपये की रिश्वत दी थी। 29 अक्टूबर, 2009, 18 दिसंबर, 2009 और 24 फरवरी, 2010 को दिए गए तीन अलग-अलग आदेशों में याचिकाकर्ता के टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड करने की अनुमति दी गई थी। सीबीआई ने याचिकाकर्ता के खिलाफ 11 अप्रैल, 2011 को एक प्राथमिकी दर्ज की थी।

    याचिकाकर्ता ने दलील दी कि उक्त कार्रवाई भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5 (2) की शक्ति से बाहर थी, क्योंकि इसमें अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों का अनुपालन नहीं किया गया था और भारत के संविधान के भाग-तीन के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी हुआ था।

    याचिकाकर्ता के तर्क

    इस मामले में याचिकाकर्ता के लिए वरिष्ठ वकील विक्रम ननकानी के साथ डॉ.सुजय कान्तावाला भी उपस्थित हुए थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 'पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1997)' मामले में दिए फैसले और नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा 'के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017)' मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया।

    ननकानी ने तर्क दिया कि आरोप-पत्र के साथ लगाई गई कथित व अवैध रूप से इंटरसेप्टिड या रिकॉर्ड किए गए टेलीफोन कॉल रिकॉर्डिंग और इस कथित टेलीफोन कॉल रिकॉर्डिंग के आधार पर एकत्र की गई सभी सामग्री को नष्ट किया जाना चाहिए।

    भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम की धारा 5 (2) के अनुसार, इस तरह की पाबंदी या अवरोधन या टेपिंग किसी भी सार्वजनिक आपातकाल की घटना पर, या सार्वजनिक सुरक्षा के हित में ही हो सकती है।

    के.एस पुत्तुस्वामी (सुप्रा) मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा पीयूसीएल मामले की पुष्टि की गई थी। उक्त मामले में ( पुत्तुस्वामी ) सुप्रीम कोर्ट द्वारा 'आर.एम मलकानी बनाम महाराष्ट्र राज्य 'मामले में दिए गए फैसले का भी उल्लेख किया गया था।

    नौ न्यायाधीशों की पीठ ने यह सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार उल्लंघन ना हो, निम्नलिखित परीक्षण पर भी विचार किया था या उल्लेख किया था।

    समानता और वैधता का सिद्धांत

    राज्य द्वारा निजता के अधिकार का उल्लंघन करने की संभावना से उत्पन्न याचिकाकर्ताओं की ओर से व्यक्त की गई चिंताओं को सुझाए गए परीक्षण से नापा जा सकता है। इन परीक्षण या टेस्ट को राज्य के विवेक या अधिकार को सीमित करने के लिए सुझाया गया है।

    (1) कार्रवाई कानून द्वारा अनुमोदित होनी चाहिए।

    (2) लोकतांत्रिक समाज में ऐसी प्रस्तावित कार्रवाई किसी वैध उद्देश्य के लिए होनी चाहिए।

    (3) इस तरह के हस्तक्षेप की सीमा को ऐसे हस्तक्षेप की आवश्यकता के अनुपात में होना चाहिए।

    (4) इस तरह के हस्तक्षेप के दुरुपयोग के खिलाफ प्रक्रियात्मक जिम्मेदारी होनी चाहिए।

    अदालत का फैसला : न्यायमूर्ति मोर ने फैसला सुनाया-

    "हमारा विचार है कि अधिनियम की धारा 5 (2) के अनुसार, किसी भी सार्वजनिक आपातकाल की घटना पर या सार्वजनिक सुरक्षा के हित टेपिंग का आदेश जारी किया जा सकता है। उपरोक्त जारी किए गए तीन अवरोधन आदेश कथित रूप से 'सार्वजनिक सुरक्षा' के कारण ही जारी किए गए थे।

    जैसा कि पीयूसीएल (सुप्रा) में माना गया है, कि जब तक कोई सार्वजनिक आपातकाल न हो या सार्वजनिक सुरक्षा के हित के लिए जरूरी न हो, अधिकारियों को उक्त धारा के तहत शक्तियों का प्रयोग करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। पीयूसीएल (सुप्रा) में अभिव्यक्त किए गए शब्द 'पब्लिक सुरक्षा' का मतलब है बड़े पैमाने पर लोगों के लिए खतरा या जोखिम से मुक्ति की स्थिति। जब दोनों में से कोई भी स्थिति अस्तित्व में न हो, तो टेलीफोन टैपिंग का सहारा लेना अपरिहार्य था या इसकी अनुमति नहीं थी।"

    इस प्रकार, अवरोधन आदेशों को रद्द करते हुए, न्यायालय ने कहा कि-

    ''यह कहा जाए कि आपराधिक कानून के प्रशासन को लागू करने में मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है तो इस तरह तो सरकारी अधिकारी नागरिकों के खिलाफ सबूत जुटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के किसी भी निर्देश या अनिवार्य वैधानिक नियमों का उल्लंघन कर सकते हैं। यह मनमानी प्रकट करेगा और नागरिकों के मौलिक अधिकार व प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून की सीमा को कम करने को बढ़ावा देगा।''



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