पटना हाईकोर्ट ने सज़ा देने के मामलों, विशेषकर मौत की सज़ा से संबंधित मामलों में न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया

LiveLaw News Network

11 Feb 2020 8:19 AM GMT

  • पटना हाईकोर्ट ने सज़ा देने के मामलों, विशेषकर मौत की सज़ा से संबंधित मामलों में न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया

    पटना हाईकोर्ट ने शुक्रवार को न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया ताकि वे सज़ा देने के मामले में अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकें। विशेष रूप से सत्र न्यायालयों के ट्रायल (विचारण) में, जहां न्यायिक अधिकारियों को वैकल्पिक सज़ा के रूप में मौत की सज़ा और आजीवन कारावास की सज़ा में से किसी एक का चुनाव करना होता है।

    "अगर जजों को उपहासात्मक रूप से अपने विशेषाधिकार के प्रयोग की अनुमति दी जाए तो यह न्याय का उपहास होगा। क़ानून के नियम को जो संवैधानिक ताक़त मिली हुई है, वह निर्णय की प्रक्रिया में लागू होता है और अदालत इसका अपवाद नहीं है।

    अदालत ने कहा,

    " सज़ा सुनाना एक संवेदनशील प्रक्रिया है और इसमें न्यायिक सोच को लाने की ज़रूरत होती है। सज़ा सुनाने का पूरा आपराधिक न्याय विधान व्यक्ति, समाज और राज्य के निजी हितों को संतुलित करने के बारे में है।"

    मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय की बेंच ने कहा कि बिहार न्यायिक अकादमी के निदेशक से सभी न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए एक कोर्स बनाने को कहा है जो ऐसे अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए होगा, जिन्हें सत्र न्यायालय की कार्यवाही की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है। इस प्रशिक्षण में गंभीर और सज़ा को कम करने जैसी परिस्थितियों और निजी स्वतंत्रा और समाज की सुरक्षा में संतुलन बनाने की बातों को शामिल किया जाएगा।

    यह आदेश एक मामले में मौत की सज़ा सुनाए जाने से संबंधित है, जिसमें अभियुक्त को शस्त्र अधिनियम की धारा 27(3) के तहत दोषी पाया गया।

    हाईकोर्ट ने कहा कि यह "फ़ैसले का सबसे अशोभनीय और अफ़सोसनाक" हिस्सा था क्योंकि धारा 27(3), जिसके तहत आवश्यक रूप से मौत की सज़ा देने का प्रावधान है और पंजाब राज्य बनाम दलबीर सिंह (2013) 3 SCC 346 मामले में सुप्रीम कोर्ट इसे ग़ैर क़ानूनी घोषित कर चुका है।

    पीठ ने कहा,

    "सुप्रीम कोर्ट के इस फैले के बाद शस्त्र अधिनियम की धारा 27(3) असंवैधानिक हो चुकी है…और सीआरपीसी की धारा 235(2) के तहत अपने विशेषाधिकार के प्रयोग का ज़ोर डालने को न्यायिक विशेषाधिकार का प्रयोग नहीं माना जा सकता बल्कि इस तरह का विशेषाधिकार न्यायिक पागलपन को दर्शाता है।"

    पीठ ने कहा,

    "निचली अदालत के जज ने मामले की सुनवाई के दौरान अभियुक्त के व्यवहार पर ग़ौर करते हुए सीआरपीसी की धारा 235(2) के तहत जो मौत की सज़ा सुनाई है वह दलबीर सिंह बना पंजाब राज्य मामले में जिस अनुपात को स्थापित किया गया उसके ख़िलाफ़ है और यह मौलिक सिद्धांतों, शिष्टाचार और औचित्य की अनभिज्ञता बताता है क्योंकि सत्र अदालत को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील पर फ़ैसला देने का अधिकार नहीं है।"

    अदालत ने कहा कि बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) 2 SCC 684 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने "विरलों में विरल मामले" की जिस बात को आगे बढ़ाया और सीआरपीसी की धारा 354(3) को जोड़ा गया जिसके तहत मौत की सज़ा देने का विशेष कारण बताने की बात का प्रावधान किया गया उसके बाद "निचली अदालत अभी भी मौत की सज़ा नियमतः दे रहे हैं।"

    हाईकोर्ट ने मौत की सज़ा देने में न्यायिक विशेषाधिकार के प्रयोग की शुरुआत का उल्लेख करे हुए कहा कि इसकी शुरुआत जगमोहन सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1973) 1 SCC 20, जिसमें एक संविधान पीठ ने सज़ा बढ़ाने वाले गंभीर और उसमें कमी की जानेवाली परिस्थितियों में संतुलन बैठाने की बात कही और फिर दीपक राई बनाम बिहार राज्य (2013) 10 SCC 421 का हाल का मामला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 354(3) के तहत विशेष कारण बताने के प्रावधान को सही ठहराया।

    अदालत ने सत्र अदालत की कार्यवाही में अनियमितता पर भी ग़ौर किया और इसे दुबारा सत्र अदालत के पास सुनवाई के लिए भेज दिया है। अदालत ने कहा,

    "यह सच है कि जजों को सज़ा सुनाने में विशेषाधिकार प्राप्त है। सत्र अदालत से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह न्यायिक बुद्धि को लागू करने की दिशा में सिर्फ़ मामूली प्रयास करे बल्कि वह अपना न्यायिक दिमाग़ लगाए और सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित मौलिक दिशानिर्देशों का पालन करे और गंभीर और कमी की जानेवाली परिस्थिति में संतुलन बनाने के बाद सज़ा का चुनाव करे।

    मौत की सज़ा सुनाने के विकल्प में प्रतिस्पर्धात्मक हित और व्यक्ति, समाज और राज्य की सुरक्षा की बातें शामिल हैं और इसलिए निर्णय की प्रक्रिया जटिल हो जाती है।"

    इस साल के शुरू में हाईकोर्ट ने न्यायिक अकादमी, पटना के निदेशक को हिरासत और रिमांड के बारे में न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया था।

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