जांच के दौरान / अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद समानांतर जांच: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने सरकार के निर्देश को रद्द किया

LiveLaw News Network

30 March 2021 5:29 AM GMT

  • जांच के दौरान / अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद समानांतर जांच: पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने सरकार के निर्देश को रद्द किया

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते पंजाब, हरियाणा और केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ के पुलिस विभाग को आपराधिक मामलों में समांतर जांच नहीं करने का निर्देश दिया और इसके साथ ही 2017 में पंजाब के इन्वेस्टीगेशन ब्यूरो के निदेशक द्वारा जारी निर्देशों को भी रद्द किया।

    न्यायमूर्ति मनोज बजाज की खंडपीठ ने अलग-अलग मामलों में दो आरोपियों की जमानत याचिका को खारिज करते हुए फैसला सुनाया कि सीआरपीसी की धारा 173 (2) के तहत जांच के दौरान या अंतिम रिपोर्ट सब्मिट करने से बाद समांतर जांच पर रोक लगाना दंड प्रक्रिया संहिता के तहत समझ से बाहर है।

    कोर्ट के समक्ष मामला

    अदालत के समक्ष याचिकाकर्ताओं को दो अलग-अलग अपराधों में अभियुक्त बनाया गया है और इसके लिए अलग-अलग जमानत याचिका दायर की थी, इस तथ्य को देखते हुए कि उपरोक्त मामलों में राज्य पुलिस द्वारा अपनाई गई जांच की प्रक्रिया बेहद अजीब थी और इसके साथ ही इस मामले का फैसला एक आम निर्णय के माध्यम से किया गया था।

    याचिकाकर्ताओं के लिए उपस्थित होने वाले दोनों काउंसल ने मुख्य रूप से सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत दायर प्रतिक्रियात्मक पूरक रिपोर्ट पर निर्भरता जताते हुए मैरिट के आधार पर जमानत की मांग की।

    गौरतलब है कि सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत याचिकाकर्ताओं के पक्ष में पूरक रिपोर्टों को सब्मिट किया गया और सीआरपीसी की धारा 173 (2) के तहत दायर चार्जशीट पर विचार नहीं किया गया और इसके साथ ही सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत पूरक रिपोर्ट के आधार पर उन्हें जमानत दी गई।

    दोनों मामलों की समस्याएं

    हम जानते हैं कि पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अभियोजन संज्ञेय अपराध के कथित आरोपों पर प्रथम सूचना रिपोर्ट के पंजीकरण के साथ शुरू होता है।

    इसके अलावा यदि मामले में जांच के दौरान पर्याप्त सबूत पाए जाते हैं तो अभियुक्त को अंतिम रिपोर्ट के साथ धारा 173 (2) सीआरपीसी के तहत मुकदमे का सामना करने के लिए भेजा जाता है और इसके विपरीत यदि सबूत उपलब्ध नहीं है तो जांच अधिकारी को संदिग्ध को निर्दोष घोषित करना चाहिए।

    गौरतलब है कि वर्तमान मामले में जब दोनों एफआईआर पर जांच चल रही थी, आरोपियों या उनके रिश्तेदारों की ओर से वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से इस पर विचार करने के लिए लगातार अनुरोध किया गया था और इसके बाद इन्होंने निर्दोषत की जांच करने का आदेश दिया था।

    पंजाब के पुलिस महानिदेशक ने पंजाब के गृह मंत्रालय और न्याय विभाग द्वारा विभिन्न अनुरोधों पर 04 मई 2017 को जारी निर्देश का उल्लेख किया।

    गौरतलब है कि इस अधिसूचना ने अधिकारियों को इस तरह के आवेदकों को स्वीकार करने और अधिकारियों को जांच / सत्यापन / तथ्यों की जांच आदि के लिए सक्षम अधिकारी को अधिकार दिया था।

    इसके अलावा वर्तमान मामले में पूछताछ के समापन (अभ्यावेदन प्रस्तुत करने के लिए) पर जांच अधिकारियों ने अभियुक्तों (आवेदकों) के पक्ष में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और वह भी सीआरीपी की धारा 173 (2) के तहत अंतिम रिपोर्ट की जांच किए बिना। दूसरे शब्दों में जांच रिपोर्टों को बाद में सीआरीपीसी की धारा 173 (8) के तहत पूरक रिपोर्ट के रूप में बनाया गया और ट्रायल कोर्ट के समक्ष रखा गया।

    इस तरह इन दोनों मामलों में ट्रायल कोर्ट ने राज्य पुलिस के विभिन्न अधिकारियों द्वारा की गई जांच और पूछताछ के दो परस्पर विरोधी निष्कर्षों को अपने पास रख लिया। अब इन जांच रिपोर्टों (बाद में सीआरपीसी की धारा 173 (8) के तहत पूरक रिपोर्ट के रूप में बनाया गया) पर भरोसा जताते हुए याचिकाकर्ताओं ने जमानत मांगी।

    कोर्ट का अवलोकन

    अदालत ने शुरुआत में उल्लेख किया कि 2017 के निर्देशों की आड़ में आपराधिक मामलों में जांच अधिकारी गवाहों आदि के बयान दर्ज करके समानांतर जांच के साथ आगे बढ़ना है और अपनी स्वतंत्र रिपोर्ट प्रस्तुत करना है।

    कोर्ट ने कहा कि,

    "जांच की इस प्रक्रिया में सीआरीपीसी धारा 173 (2) के तहत पुलिस रिपोर्ट को खारिज करने की कोई वैध पवित्रता नहीं है, लेकिन ऐसी रिपोर्ट निश्चित रूप से एक आपराधिक मुकदमे की न्यायिक प्रक्रिया पर बोझ डालती है।"

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि 2017 के निर्देशों के माध्यम से राज्य की अभियोजन एजेंसी ने संहिता के अध्याय XII में निहित वैधानिक प्रावधानों पर ओवररूल करके उपरोक्त निर्देशों के माध्यम से जांच के क्षेत्र में लचीलपर को इंजेक्ट किया जिससे और अस्पष्टता पैदा हुई।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि कई मौकों पर अभियुक्तों ने भी अग्रिम जमानत के उपाय का लाभ उठाने के बजाय जांच के लिए आवेदन किया और इससे अपराध की चल रही जांच में रूकावट पैदा हुआ।

    कोर्ट ने टिप्पणी की कि,

    "कई बार जांच अधिकारी को उनके वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा शुरू की गई एक साथ जांच की प्रक्रिया के बारे में भी पता नहीं होता है। इस तरह की जांच से दोषियों का पता लगाना ट्रायल कोर्ट के लिए मुश्किल हो जाता है।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि,

    "समानांतर जांच आरोपी के लिए ऑडी अल्टरम पार्टम का नियम लागू करता है और यह जांच की पेंडेंसी के दौरान एक उपाय है, जो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के विवेक पर निहित होता है और यह अपराधी कानून के प्रशासन के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है और यह अपराधियों के लिए सजा से बचने का मार्ग निर्माण करता है। "

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि एक बार जांच पूरी होने और कोर्ट ऑफ लॉ के समक्ष रिपोर्ट पेश होने के बाद पुलिस के पास अदालत को सूचित किए बिना दूसरी लाइन की जांच का कोई अधिकार नहीं है।

    पीठ ने कहा कि,

    "यह भी देखा जाता है कि इस प्रक्रिया का पालन करते हुए जांच अधिकारी जांच की कार्यवाही के दौरान न्यायिक भूमिका निभाता है और आरोपी की बेगुनाही के संबंध में राय देता है। इस पर रोक लगाने की आवश्यकता है और इसे जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसलिए कोर्ट सीआरपीसी की धारा के तहत अपनी निहित शक्तियों का उपयोग करने के लिए स्वत: संज्ञान लेने के लिए मजबूर है।"

    कोर्ट ने इसके परिणामस्वरूप कहा कि वर्ष 2017 के निर्देश का पालन करते हुए, उच्च रैंक के पुलिस अधिकारियों ने दंड प्रक्रिया संहिता में निहित जांच के प्रक्रियात्मक कानून का उल्लंघन किया।

    कोर्ट ने इसके परिणामस्वरूप दिनांक 04.05.2017 के निर्देशों को खारिज कर दिया गया और आगे निम्नलिखित निर्देश जारी करना आवश्यक समझा:

    1. प्रत्येक मामले में जहां संज्ञेय अपराध के लिए एफआईआर दर्ज की गई है, जांच अधिकारी द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता1973 के प्रावधानों के अनुसार सख्ती से जांच की जाएगी।

    2. हर मामले में जहां एफआईआर दर्ज होने के बाद जांच शुरू हो गई है, पुलिस की ओर से उसकी निर्दोषता की जांच करने के लिए अभियुक्त की ओर से कोई अनुरोध नहीं किया जाएगा और कोई समानांतर जांच शुरू नहीं की जाएगी।

    3. ऐसे मामलों में जिनमें एफआईआर दर्ज करके और आगे जांच शुरू करना है, राज्य सरकार या राज्य पुलिस जांच के ट्रांसफर का आदेश देती है, तो मजिस्ट्रेट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 157 (1) के तहत विशेष रिपोर्ट प्रस्तुत करके सूचित करना आवश्यक होगा।

    4. जांच के ट्रांसफर और ट्रांसफर के कारणों के साथ लिखित में सूचना दी जाएगी।

    5. जब भी जांच शुरू होने के बाद जांच अधिकारी किसी भी कारण से सभी या किसी भी आरोपी के संबंध में जांच को रोकता है तो ऐसे अधिकारी के लिए सीआरपीसी की धारा 157 (2) के तहत रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष भेजना अनिवार्य है, जिस रिपोर्ट को पहले सीआरपीसी की धारा 157 (1) के तहत शुरू में प्रस्तुत की गई थी।

    6. अगर ट्रायल के समापन पर ट्रायल कोर्ट को पता चलता है कि जांच में जानबूझकर खामियों के कारण आरोपी बरी हुआ है तो वह इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ उपयुक्त विभागीय / दंडात्मक कार्रवाई के लिए उचित आदेश पारित कर सकता है।

    7. पंजाब, हरियाणा और केंद्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ का प्रशासन यह सुनिश्चित करेगा कि पुलिस अधिकारी और सरकारी वकील अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के बारे में ठीक से समझे और अपराध की जांच के संबंध में कानून के वैधानिक प्रावधानों का सख्ती से पालन करें।

    केस का शीर्षक - पंकज कुमार @ पांकी बनाम पंजाब राज्य और अन्य और दलबीर सिंह बनाम पंजाब राज्य [ CRM-M-16013-2020&CRM-M-19681-2020]

    जजमेंट की कॉपी यहां पढ़ें:



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