उड़ीसा हाईकोर्ट ने राज्य बार काउंसिल को एनरॉलमेंट की 'अत्यधिक फीस' को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब दाखिल करने का 'अंतिम अवसर' दिया

LiveLaw News Network

15 Aug 2022 1:20 PM GMT

  • उड़ीसा हाईकोर्ट ने राज्य बार काउंसिल को एनरॉलमेंट की अत्यधिक फीस को चुनौती देने वाली याचिका पर जवाब दाखिल करने का अंतिम अवसर दिया

    उड़ीसा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डॉ. एस. मुरलीधर और जस्टिस राधा कृष्ण पटनायक की खंडपीठ ने एडवोकेट विनायक सुबुद्धि की उस याचिका पर उड़ीसा राज्य बार काउंसिल ('ओएसबीसी') को अपना जवाब दाखिल करने के लिए अंतिम अवसर के तौर पर चार सप्ताह का समय दिया है, जिसमें उन्होंने 'स्टेट बार रोल' में एडवोकेट के रूप में लॉ ग्रेजुएट को नामांकित (एनरॉल) करने के लिए काउंसिल द्वारा 'अत्यधिक फीस' वसूली को चुनौती दी है।

    गौरतलब है कि ओएसबीसी सामान्य श्रेणी के 25 वर्ष की आयु से कम वाले विधि स्नातकों के एनरॉलमेंट के लिए लगभग 42,100/- रुपये ले रही है। यह राशि देश के सभी राज्य बार काउंसिलों की तुलना में 'सबसे ज्यादा' है। उल्लेखनीय है कि यह राशि कुछ राज्य बार काउंसिल द्वारा वसूली जाने वाली फीस से दोगुनी या उससे भी अधिक है।

    एक लॉ ग्रेजुएट याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट अनुराग पति ने प्रतिनिधित्व किया। उक्त राशि को चुनौती देने के लिए निम्नलिखित आधार लिये गये हैं।

    वैधानिक जनादेश का उल्लंघन:

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि ओएसबीसी ने अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 24 (1)(एफ) के तहत प्रदान किए गए निर्धारित शुल्क के प्रावधान की अनदेखी करते हुए फीस राशि तय करके कानून का उल्लंघन किया है। उन्होंने कहा कि ओएसबीसी ने कानून बनाने के अपने अधिकार का इस्तेमाल कर 42,100/- रुपये की एनरॉलमेंट फीस निर्धारित की और संबंधित कानून के तहत स्टाम्प शुल्क (यदि कोई हो) के साथ 750 रुपये की वैधानिक फीस के प्रावधान की अनदेखी की है। याचिकाकर्ता ने स्टेट बार काउंसिल के इस कार्य को अवैध, मनमाना और अधिवक्ता अधिनियम के विचार और उद्देश्य के विपरीत बताया है।

    इसके अलावा, उन्होंने आरोप लगाया कि ओएसबीसी ने जानबूझकर बीसीआई नियमावली के भाग-IX के नियम 15 और उड़ीसा बार काउंसिल नियम, 1989 के अध्याय IV के नियम 4 (एफ) की उपेक्षा की है। ये प्रावधान नामांकन के लिए स्टाम्प शुल्क (यदि कोई हो) के साथ 750 रुपये की वैधानिक फीस को ही दोहराते हैं, जो अधिवक्ता अधिनियम में विधायिका द्वारा पूर्व-निर्धारित है।

    कल्याणकारी योजनाओं के लिए भुगतान की बाध्यता:

    याचिका में यह भी कहा गया है कि प्रतिवादियों ने अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 6(2) के तहत अपनी शक्तियों की गलत व्याख्या की है और कई कल्याणकारी फंड और योजनाओं के नाम पर नामांकन प्रक्रिया के दौरान आवेदकों के लिए इस तरह के फंड में योगदान करना अनिवार्य कर दिया है। ओडिशा एडवोकेट्स वेलफेयर फंड एक्ट, 1987 की धारा 15 (1) में 'मे' (may) शब्द बताता है कि परिषद द्वारा बनाए गए फंड में प्रवेश आवेदक के लिए वैकल्पिक है, जबकि ओएसबीसी ने नामांकन के दौरान उसके द्वारा बनाई गई कल्याण निधि और योजनाओं के लिए भुगतान करना आवेदकों के के वास्ते अनिवार्य कर दिया है। याचिकाकर्ता ने इसे काउंसिल की शक्तियों के दायरे से बाहर होने और भारी फीस को अवैध और अधिवक्ता अधिनियम का उल्लंघन करार दिया है।

    नियम बनाने की शक्ति नहीं:

    याचिका में यह भी कहा गया कि ओएसबीसी ने एनरॉलमेंट फीस के संदर्भ में पूर्व-निर्धारित विधायी आदेश के खिलाफ अतिरिक्त, अत्यधिक और अनिवार्य फीस निर्धारित करने की शक्ति से खुद को संपन्न करने के लिए धारा 24(एक)(ई) और धारा 28(दो)(डी) की आड में इसकी गलत व्याख्या की है, क्योंकि ओएसबीसी के पास अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(एफ) के अनुरूप नया नियम बनाने की शक्ति नहीं है।

    यह भी कहा गया है कि ओएसबीसी द्वारा बनाया गया ऐसा नियम, जो अधिनियम की धारा 24(1)(एफ) के सीधे विपरीत है, को धारा 28(3) में निहित प्रावधानों का सहारा लेकर बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा दिए गए तथाकथित अनुमोदन के कारण वैध नहीं बनाया जा सकता है। याचिका में कहा गया है कि इसलिए, अधीनस्थ कानून से परे नियम बनाने की शक्तियों का ऐसा प्रयोग अवैध और नियम बनाने की शक्तियों के दायरे से बाहर होगा।

    अनुच्छेद 14 का उल्लंघन:

    इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि ओएसबीसी ने अधिवक्ता अधिनियम के वैधानिक आदेश के विपरीत गैर-कानूनी और अत्यधिक एवं मनमानी एनरॉलमेंट फीस लेकर तथा अन्य राज्यों के विधि स्नातकों की तुलना में ओडिशा के विधि स्नातकों से दोगुना या उससे अधिक फीस वसूलकर संविधान के अनुच्छेद के तहत प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। यह आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के साथ-साथ परोक्ष रूप से इस तरह के अत्यधिक नामांकन शुल्क की नयी सीमा तय करके उनके साथ गंभीर भेदभाव भी पैदा कर रहा है।

    अनुच्छेद 19(1)(जी) और 21 का उल्लंघन:

    यह भी आरोप लगाया गया कि ओएसबीसी द्वारा आक्षेपित नामांकन शुल्क का संग्रह अत्यधिक और अनुपातहीन है और यह अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत निहित कोई भी प्रोफेशन अपनाने, पेशा, व्यापार या कारोबार करने के मौलिक अधिकार का भी उल्लंघन है। इसलिए, ओएसबीसी इस तरह के अत्यधिक नामांकन शुल्क प्रभार करके परोक्ष रूप से आवेदकों को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) और 21 के तहत निहित उनके पेशे या उनके कानूनी करियर को आगे बढ़ाने के मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करती है।

    प्रार्थना:

    याचिकाकर्ता ने कोर्ट से यह घोषित करने का आग्रह किया कि ओएसबीसी द्वारा लिया गया नामांकन शुल्क वैधानिक रूप से निर्धारित शुल्क से अधिक है, जो कि अवैध, मनमाना, अत्यधिक, भेदभावपूर्ण और अधिवक्ता अधिनियम के प्रावधानों के विपरीत है। इसलिए, परिषद को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 6(2), 24(1)(ई) और (एफ), 28(1)(डी) और (ई) और (2) और (3), बीसीआई नियमावली के भाग-IX के नियम 15, उड़ीसा राज्य बार काउंसिल नियम, 1989 के अध्याय-IV के नियम 4 (एफ) और ओडिशा एडवोकेट्स वेलफेयर फंड अधिनियम, 1987 की धारा 15 (1) का सख्ती से पालन करते हुए नामांकन शुल्क नए सिरे से निर्धारित करने का निर्देश दिया जाए।

    इसके अलावा, इसने ओएसबीसी को किसी भी फंड और कल्याणकारी योजनाओं में सदस्यता को नामांकन की दृष्टि से वैकल्पिक शर्त, न कि अनिवार्य शर्त, घोषित करने के निर्देश देने की भी मांग की है।

    न्यायालय ने मामले की सुनवाई 11 अक्टूबर, 2022 को सूचीबद्ध की है। काउंसिल को उपरोक्त तिथि से पहले अपना रिज्वाइंडर दाखिल करने को कहा गया है।

    केस टाइटल: बिनायक सुबुद्धि बनाम भारत सरकार और अन्य।

    केस नंबर: रिट याचिका (सिविल) नंबर 11144/ 2022

    आदेश दिनांक: 3 अगस्त 2022

    कोरम: चीफ जस्टिस डॉ. एस. मुरलीधर और जस्टिस आर.के. पटनायक

    याचिकाकर्ता के वकील: श्री अनुराग पति

    प्रतिवादियों के लिए वकील: श्री पी.के. परही, भारत के सहायक सॉलिसिटर जनरल, श्री ए.पी. बोस और श्री अमिताव दास

    याचिका की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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