एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध तभी बनता है जब अपराध सार्वजनिक रूप से किया जाए : इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

1 March 2020 3:30 AM GMT

  • एससी/एसटी अधिनियम के तहत अपराध तभी बनता है जब अपराध सार्वजनिक रूप से किया जाए : इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनयम, 1989 के तहत कथित अपराध "सार्वजनिक रूप" (पब्लिक व्यू) से होना चाहिए।

    न्यायमूर्ति राम कृष्ण गौतम ने स्पष्ट किया कि अगर किसी व्यक्ति को एससी/एसटी समुदाय का होने के कारण अपमानित किया जाता है और यह घटना बंद दरवाज़े के भीतर होती है तो इस पर एससी/एसटी अधिनियम लागू नहीं होता।

    यह आदेश केपी ठाकुर जो जाँच विभाग में जांच अधिकारी हैं, के आवेदन पर दिया गया है जिन्होंने विनोद कुमार तनय के ख़िलाफ़ शिकायत की है।

    ठाकुर ने तनय को अपने कमरे में बुलाकर साक्ष्य की रिकॉर्डिंग को कहा था। तनय के साथ उसका एक सहकर्मी एमपी तिवारी भी था। ठाकुर ने इस पर आपत्ति की और उन्होंने तिवारी से इस प्रक्रिया में व्यवधान नहीं पहुँचाएँ और कमरे से बाहर चले जाएंं।

    इसके बाद, तनय ने आवेदनकर्ता के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 323, 504, 506 और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (X) के तहत मामला दायर किया। जब निचली अदालत ने ठाकुर को अदालत में पेश होने को कहा तो उसने इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती दी।

    हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि ठाकुर पर जिस अपराध का आरोप लगाया अगया है वह "सार्वजनिक" नहीं है।

    "यह जाँच अधिकारी का चैम्बर था जहाँ प्रेज़ेंटिंग ऑफ़िसर और जाँच अधिकारी मौजूद थे और यह नहीं कहा जा सकता कि वह एक आम स्थल था," अदालत ने कहा।

    एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (X) स्पष्ट कहता है कि "अगर कोई व्यक्ति जो अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य नहीं है -

    (x) अगर सार्वजनिक रूप से अनुसूचित जाति या जनजाति के किसी सदस्य को जानबूझकर धमकता है या अपमानित करता है।"

    इस बारे में गोरिगे पेंटैय्याह बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य, (2008) 12 SCC 531 का भी हवाला दिया जा सकता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'पब्लिक व्यू' ऐसी जगह है तहाँ तक आम लोगों की पहुँच है। जब यह किसी घर के अंदर है, तो यह पब्लिक व्यू नहीं हो सकता और इस आधारभूत बात के अभाव में, अधिनियम की धारा 3(1)(X) के तहत यह मामला नहीं बनता।

    अदालत ने इस बात पर भी ग़ौर किया कि शिकायतकर्ता ने पूरी प्रक्रिया के दौरान यह कभी नहीं बताया कि अनुसूचित जाति के होने के कारण उसे उस व्यक्ति ने अपमानित किया जो ख़ुद उस समुदाय का नहीं है। इसलिए यह बात भी इससे ग़ायब है।

    इस तरह ठाकुर के आवेदन को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया और उसके ख़िलाफ़ एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (X) के तहत जारी सम्मन को निरस्त कर दिया। पर अदालत ने अन्य आरोपों में हस्तक्षेप नहीं किया और कहा कि उन मामलों में सुनवाई जारी रहेगी।

    अदालत ने जाते जाते शिकायतकर्ता की इस बात के लिए भी खिंचाई की कि उसने पूछताछ के दौरान जाँच में रोड़ा अटकाने के लिए अपने एक सहयोगी के साथ वहाँ पहुँच गया था।

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