पति की सहमति के बिना पत्नी का बार-बार अपने माता-पिता के घर जाना परित्याग/क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता : इलाहाबाद हाईकोर्ट
Manisha Khatri
13 Jun 2022 10:51 AM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि पत्नी का अपने पति और परिवार के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना बार-बार अपने माता-पिता के घर जाने का कार्य न तो परित्याग का अपराध बन सकता है और न ही यह क्रूरता की श्रेणी में आता है।
जस्टिस सुनीता अग्रवाल और जस्टिस कृष्ण पहल की खंडपीठ ने यह टिप्पणी करते अपीलकर्ता/पत्नी की तरफ से दायर एक अपील को स्वीकार कर लिया है। इस अपील में अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, बरेली द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत पति के पक्ष में तलाक की डिक्री देने के फैसले और आदेश को चुनौती दी गई थी।
संक्षेप में मामला
अपीलकर्ता/पत्नी (मोहित प्रीत कपूर) और प्रतिवादी/पति (सुमित कपूर) ने दिसंबर 2013 में शादी की। जुलाई 2017 में, पति ने इस आधार पर तलाक की याचिका दायर की थी कि अपीलकर्ता/पत्नी ने बिना किसी कारण के उसकी अनुपस्थिति में अपने परिजनों के साथ जनवरी 2015 में अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था।
तलाक की याचिका दायर करने के लिए कार्रवाई का कारण जनवरी 2015 में उत्पन्न हुआ था जब अपीलकर्ता की पत्नी ने अपने पिता और भाई के साथ अपना वैवाहिक घर छोड़ दिया था और अंत में जनवरी 2017 में जब उसने प्रतिवादी के साथ अपने वैवाहिक घर में जाने से इनकार कर दिया था।
तलाक मांगने का एक अन्य आधार यह था कि अपीलकर्ता ने घर का काम करने से इनकार कर दिया था और प्रतिवादी के परिवार के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार किया था। वह प्रतिवादी या उसके परिवार के सदस्यों को बिना सूचित किए अपने पैतृक घर या अपने रिश्तेदारों के पास जाती थी। उसने उसके और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ वैवाहिक मामले भी दायर किए थे।
इस बीच, सितंबर 2017 में पत्नी ने हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के तहत एक आवेदन दायर किया था जिसमें भरण-पोषण दिलाए जाने की मांग की थी। इसे स्वीकार करते हुए अदालत ने अपीलकर्ता को मासिक भरण-पोषण के तौर पर 5,000 रुपये और उसकी बेटी के लिए 2000 रुपये की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया था।
दूसरी ओर, पत्नी ने एक स्पष्ट बयान दिया है कि उसे उसकी बेटी के साथ जुलाई 2016 में प्रतिवादी द्वारा उसके वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया था और प्रतिवादी (पति) ने अपने वैवाहिक अधिकारों को बहाल कराने के लिए कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की थी।
कोर्ट की टिप्पणियां
शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि पार्टियों के कार्य और आचरण से, यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि अपीलकर्ता ने पति की अनुपस्थिति में 10.01.2015 को अपने वैवाहिक घर को छोड़कर अपने पति (प्रतिवादी) का स्थायी रूप से सहवास को समाप्त करने के इरादे से त्याग कर दिया था।
''अपीलकर्ता उस समय गर्भवती थी और वह कुछ समय के लिए अपने माता-पिता के घर गई होगी, जो मुश्किल से 400 मीटर की दूरी पर है। इसके अलावा, अपीलकर्ता का अपने पति और परिवार के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना बार-बार अपने माता-पिता के घर जाने का कार्य उसकी ओर से परित्याग के अपराध का गठन नहीं करता है।''
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि कार्रवाई का कारण 10.01.2015 को उपार्जित किया गया था और अंत में 15.01.2017 को,लेकिन दो साल के परित्याग की अवधि रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री से साबित नहीं हुई थी।
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि जब हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 24 के तहत आवेदन दायर किया गया था, तो पति ने विभिन्न दलीलों पर इसका विरोध किया और वह अपनी बेटी के लिए भी अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करने के लिए आगे नहीं आया।
अदालत ने आगे कहा कि,''प्रतिवादी या उसके वकील ने कभी भी इस कार्यवाही में भाग नहीं लिया जो यह दर्शाता है कि प्रतिवादी-पति स्वयं अपनी पत्नी और यहां तक कि अपनी नाबालिग बेटी की देखभाल करने को तैयार नहीं है। ऐसा लगता है कि उसने स्वयं अपनी पत्नी को अकेले छोड़ दिया है और वह अपनी नाबालिग बेटी के प्रति एक पिता की जिम्मेदारी से भाग रहा है।''
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, अदालत ने निचली अदालत के इस निष्कर्ष को खारिज कर दिया कि अपीलकर्ता / पत्नी ने बिना किसी उचित कारण के अपने पति का 10.01.2015 को और फिर 15.01.2017 को परित्याग कर दिया था।
क्रूरता के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि क्रूरता का मामला नहीं बनता है। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी-पति किसी भी सबूत के जरिए अपीलकर्ता के किसी भी कृत्य या आचरण या व्यवहार से हुई क्रूरता को साबित नहीं कर पाया है।
''प्रतिवादी की अनुमति के बिना अपीलकर्ता का अपने माता-पिता के घर जाना, किसी भी तरह से, क्रूरता की श्रेणी में नहीं आता है। वहीं अपीलकर्ता को उसकी डिलीवरी के समय प्रतिवादी ने ही अस्पताल में भर्ती कराया गया था या उसने अपनी बेटी के इलाज के लिए खर्च वहन किया था, यह तथ्य अपीलकर्ता के खिलाफ नहीं जाता है, बल्कि ये तथ्य अपीलकर्ता के मामले का समर्थन करते हैं कि उसने अपने पति को स्थायी रूप से सहवास को समाप्त करने के इरादे से नहीं छोड़ा था और कोई ऐसा कार्य नहीं किया था,जिससे प्रतिवादी को पितृत्व के सुख से वंचित किया जा सके।''
इसके साथ, निचली अदालत द्वारा दी गई तलाक की डिक्री को रद्द कर दिया गया और अदालत ने प्रतिवादी को निर्देश दिया है कि वह अपनी बेटी के भरण-पोषण के लिए प्रति माह 30,000 रुपये की राशि का भुगतान करे। सितंबर 2018 में निचली अदालत ने पत्नी को भी भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था।
केस टाइटल-मोहित प्रीत कपूर बनाम सुमित कपूर,फस्ट अपील नंबर-351/2020
साइटेशन-2022 लाइव लॉ (एबी) 290
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