काल्पनिक आधार पर किसी स्थिति की धारणा करना संभावना की प्रबलता के सिद्धांत पर आधारित सबूत नहीं, पढ़िए हाईकोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

4 Sep 2019 9:52 AM GMT

  • काल्पनिक आधार पर किसी स्थिति की धारणा करना संभावना की प्रबलता के सिद्धांत पर आधारित सबूत नहीं, पढ़िए हाईकोर्ट  का फैसला

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मंगलवार को यह माना कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी, बिना समर्थन साक्ष्य के एक स्थिति का अनुमान लगाने में गलत था और बिना किसी सबूत के एक मामले में संभावना की प्रबलता (preponderance of probability) के सिद्धांत पर भरोसा नहीं किया जा सकता था।

    पृष्ठभूमि

    मामले में याचिकाकर्ता, एच. एल. सैनी, एक सीआईएसएफ कांस्टेबल थे, जिनपर अफीम का सेवन करने एवं इसे एक सह-सिपाही शैलेश को सेवन करने हेतु देने का आरोप लगाया गया था। याचिकाकर्ता के खिलाफ आयोजित एक पूछताछ में, उन्हें सबूतों की कमी के चलते आरोपों से मुक्त कर दिया गया था। हालांकि, अनुशासनात्मक प्राधिकरण, जांच रिपोर्ट में दर्ज निष्कर्षों से असहमत था और यह परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर अपनी खुद की खोज को दर्ज करने के लिए आगे बढ़ा, इसके पश्च्यात याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया गया और उसकी सेवाओं को समाप्त कर दिया गया। अनुशासनात्मक प्राधिकरण के इस आदेश को याचिकाकर्ता ने "हरलाल सैनी बनाम भारत संघ और अन्य" में चुनौती दी।

    मामले की पृष्ठभूमि में, PW1 की गवाही के अनुसार, याचिकाकर्ता ने उसे अफीम की पेशकश की थी, जिसका उसने सेवन करने से इनकार कर दिया था। बाद में उसी दिन, याचिकाकर्ता को मूत्र मार्ग में रुकावट की शिकायत के चलते, जो अफीम के सेवन के कारण हो सकती है, उसका इलाज करने हेतु अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसी दिन, शैलेश को भी अस्पताल में भर्ती कराया गया था जहाँ एक 'अज्ञात जहर' के सेवन के कारण उसकी मृत्यु हो गई थी। उपरोक्त स्थिति से याचिकाकर्ता के प्रतिकूल निष्कर्ष आकर्षित करते हुए, अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने यह माना कि दोनों चिकित्सा संकट, अफीम के सेवन के परिणामस्वरूप थे।

    याचिकाकर्ता ने कहा कि अनुशासनात्मक प्राधिकरण का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन में था और यह असम राज्य बनाम विमल कुमार पंडित, AIR 1963 SC 1612 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करने में विफल रहा, जिसमें यह अभिनिर्णित किया गया था कि यदि एक अनुशासनात्मक प्राधिकरण, जांच अधिकारी से एक अलग निष्कर्ष पर पहुँचते हुए जुर्माना लगाता है, तो कर्मचारी को सुनवाई का अवसर प्रदान करना आवश्यक होगा।

    यह भी प्रस्तुत किया गया कि यद्यपि अनुशासनात्मक जांच, संभावना की प्रबलता के सिद्धांतों पर आगे बढ़ती है, लेकिन अनुशासनात्मक प्राधिकारी को 'अटकलों और अनुमान' पर प्रतिकूल निष्कर्ष पर पहुंचने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने विस्तार से दलील दी कि बिना सबूत के मामले में, संभावना की प्रबलता के सिद्धांतों को आकर्षित नहीं किया जाएगा क्योंकि उक्त सिद्धांत के जरिये अपराधी के अपराध के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए, सराहना के लिए कम से कम कुछ सबूत की आवश्यकता अवश्य होती है।

    दूसरी ओर अनुशासनात्मक प्राधिकरण ने यह प्रस्तुत किया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपों को अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा पूरी तरह से जांच करने के बाद साबित किया गया था।

    जांच - परिणाम

    न्यायमूर्ति सुनीता अग्रवाल की अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था। उसने देखा कि "कोई भी यह साबित नहीं कर सका कि तरल अफीम का शैलेश द्वारा सेवन किया गया था, जिसकी पेशकश याचिकाकर्ता द्वारा की गई थी। यह भी साबित नहीं हुआ है कि अफीम के सेवन के कारण उसकी मृत्यु हो गई। किसी ने भी दोनों को एक साथ बैठे या अफीम का सेवन करते नहीं देखा था।"

    पूर्वोक्त खोज के आधार पर, अदालत ने याचिकाकर्ता की सेवाओं को बहाल करने का निर्देश दिया और कहा कि "किसी भी सहायक सबूत (यहां तक ​​कि परिस्थितिजन्य) के बिना काल्पनिक आधार पर किसी भी स्थिति की धारणा का निर्माण, अधिस‌ंभाव्यता की प्रबलता के सिद्धांतों पर भी प्रमाण नहीं होगा। उक्त सिद्धान्त, बिना किसी सबूत के अपने स्वयं के अनुमान द्वारा परिकल्पना बनाने के लिए अनुशासनात्मक प्राधिकरण को लाभ नहीं देता है।"

    याचिकाकर्ता के लिए, वरिष्ठ अधिवक्ता बी. के. श्रीवास्तव और एडवोकेट पूजा श्रीवास्तव पेश हुए, वहीं राज्य की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ए. एस. आज़मी और एडवोकेट हिमकन्या श्रीवास्तव पेश हुए।



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