केरल हाईकोर्ट ने लाइव लॉ की आईटी नियमों की चुनौती वाली याचिका पर नोटिस जारी किया, कठोर कार्रवाई पर रोक लगाई
LiveLaw News Network
10 March 2021 6:04 PM IST
केरल हाईकोर्ट ने (बुधवार) केंद्र सरकार को सूचना प्रौद्योगिकी के (इंटरमीडियरी और डिजिटल मीडिया आचार संहिता के लिए दिशानिर्देश) नियम [ Information Technology (Guidelines For Intermediaries And Digital Media Ethics Code)], 2021 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली लाइव लॉ (LiveLaw) की याचिका पर नोटिस जारी किया।
याचिका में इस नए आईटी नियम, जिसे 25 फरवरी को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया था, के माध्यम से डिजिटल न्यूज मीडिया और सोशल मीडिया इंटरमीडियरी पर "मनमाना, अस्पष्ट, असंगत और अनुचित रूप से लगाए गए प्रतिबंध को हटाने की मांग की गई।
न्यायमूर्ति पीवी आशा की एकल पीठ ने केंद्र सरकार को सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियम के भाग III के तहत लाइव लॉ के खिलाफ किसी भी तरह की जबरदस्ती की कार्रवाई करने से रोक दिया, जो डिजिटल मीडिया विनियमन से संबंधित है।
केरल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति आशा द्वारा पारित अंतरिम आदेश में कहा गया कि,
"प्रतिवादी सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) नियम के भाग 3 में निहित प्रावधानों के संदर्भ में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं करेंगे। याचिकाकर्ता लॉ रिपोर्टों और कानूनी साहित्य का एक प्रकाशक है।",
याचिका लाइव लॉ न्यूज मीडिया प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दायर की गई, जो ऑनलाइन लीगल न्यूज वेबसाइट www.livelaw.in के प्रकाशक है। यह याचिका आईटी नियमों को गैर कानूनी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13,14, 19 (1) (a), 19 (1) (g) और अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के रूप में चुनौती देते हुए दायर की गई थी। इसके साथ ही याचिका में कहा गया था कि यह सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, मूल कानून के अधिकारातीत है। इस मामले में अन्य याचिकाकर्ता लाइव लॉ के फाउंडर और चीफ एडिटर एम. राशिद और मैनेजिंग एडिटर मनु सेबस्टियन हैं।
याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील संतोष मथु ने पीठ के समक्ष पेश किया कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,2021 ने डिजिटल मीडिया को विनियमित करने के लिए केंद्र सरकार पर कोई नियम बनाने वाली शक्ति प्रदान नहीं की है।
आगे तर्क दिया कि सूचना प्रौद्योगिकी नियमों के तहत नियामक तंत्र आक्रामक, असंगत और मनमानीपूर्ण है। इन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत "उचित प्रतिबंध" नहीं कहा जा सकता है।
मैथ्यू ने नियमों के कारण संभावित कठिनाइयों की ओर संकेत करते हुए कहा कि,
"हम जजमेंट की रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं। जिस किसी के लिए निर्णय न्यायसंगत नहीं है, वह एक शिकायत कर सकता है, और हमें कंटेंट के खिलाफ अपील होने पर बैठना पड़ सकता है।"
आगे कहा कि लाइव लॉ कानूनी मामलों पर आर्टिकल और लीगल मामलों से राय प्रकाशित करता है, और ऐसा व्यक्ति जो इस तरह के विचारों से असहमत है, वह शिकायत दर्ज करने के लिए नियमों का उपयोग कर सकता है।
यह नियम इंटरमीडियरी नियमन के लिए श्रेया सिंघल मामले के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनिश्चित प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों को पूर्ववत कर रहे हैं।
आगे कहा कि,
"इंटरमीडियरी अपनी समझ से स्वंय से चाहे तो वह कंटेंट अवरुद्ध करने की हो, आईटी एक्ट की धारा 69 ए में अनुपस्थित है, सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल मामले में नोट किया गया है। समस्या यह है कि हमें आपत्तियों के निर्णय में बैठना होगा।"
नियमों के कारण संभव कठिन परिस्थितियों को देखते हुए एडवोकेट मैथ्यू ने कहा कि,
" मान लो 'A' ने एक आर्टिकल लिखा है। कोई व्यक्ति आपत्ति जताता है। मैं इसे हटाने के लिए बाध्य हूं। यह आर्टिकल लिखने वाले एक सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हो सकते हैं। मैं उन्हें नोटिस जारी नहीं कर सकता। यह हमें हमें बहुत ही शर्मनाक स्थिति में ला सकता है।"
एडवोकेट मैथ्यू ने जोर दिया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंध केवल विधायिका द्वारा बनाए गए कानून के माध्यम से लगाया जा सकता है। संवैधानिकता का अनुमान कार्यकारी नियमों पर लागू नहीं है।
केंद्र के तर्क
केंद्र सरकार के वकील सुविन मेनन ने तर्क दिया कि नियमों की शक्ति का स्रोत आईटी अधिनियम की धारा 69 ए और 69 बी से पता लगाया जा सकता है। भले ही उन प्रावधानों का नियमों में उल्लेख न किया गया हो, लेकिन वे स्वयं इसे गलत कानून नहीं मानते हैं, क्योंकि शक्ति के स्रोत का उल्लेख न करने से प्राधिकरण के महत्वपूर्ण नियम बनाने की शक्ति प्रभावित नहीं होती है।
सीजीसी ने कहा कि,
"मैं पहले के रिकॉर्ड को पेश कर रहा हूं। 2010 के बाद से सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता में वृद्धि हुई है। कई न्यूज मीडिया आउटलेट विकसित हुए हैं। क्या ये जवाबदेह नहीं हैं?"
न्यायमूर्ति पीवी आशा ने इस बिंदु पर कहा कि लीगल रिपोर्टों के लिए छूट होनी चाहिए। सीजीसी ने जवाब दिया कि निर्णयों की रिपोर्टिंग में कोई समस्या नहीं है लेकिन आर्टिकल के प्रकाशन की निगरानी की जरूरत है।
सीजीसी ने कहा कि,
"ऐसे बहुत आर्टिकल हैं जो अवमानना करते हैं।"
न्यायमूर्ति आशा ने जवाब दिया कि,
"न्यायालय इसका ध्यान रखेगा।"
सीजीसी ने कहा कि,
"संपादक और प्रकाशक प्रकाशित आर्टिकल के लिए उत्तरदायी होंगे।"
सीजीसी ने आगे कहा कि,
"ऐसा नहीं है कि वे जो कुछ प्रकाशित कर रहे हैं जो सब कुछ उनके द्वारा हस्तांतरित किया गया है। आर्टिकल, जिसमें लेखक की व्यक्तिगत राय है, इसमें लेखक जवाबदेह है। लेखक के सात ही ये भी उत्तरदायी है। क्योंकि ये माध्यम प्रदान कर रहे हैं। लाखों लोग इन आर्टिकल्स को पढ़ते हैं।"
एडवोकेट संतोष मथु ने जवाब दिया कि,
"मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं उत्तरदायी नहीं हूं। मैं केवल आईटी अधिनियम की धारा 69 ए के तहत कह रहा हूं कि उनके पास मुझे विनियमित करने की कोई शक्ति नहीं है।"
सीजीसी ने प्रस्तुत किया कि नियम तीन स्तरीय नियामक फ्रेमवर्क पर विचार करते हैं और मंत्रालय की निगरानी में मामला आंतरिक-विनियमन (internal Regulation) और स्व-नियामक निकायों (Self-Regulatory bodies) के स्तर के बाद ही आता है।
सीजीसी ने कहा कि,
"यह इससे बेहतर कैसे हो सकता है?"
संतोष मैथ्यू ने जवाब दिया कि नियमों के तहत 'स्व-नियामक निकाय (Self-Regulatory body)' केंद्र सरकार की दया पर है।
आगे कहा कि, "विडंबना यह है कि वे इसे "स्व नियामक" कहते हैं। इस निकाय को मंत्रालय के साथ पंजीकृत होना होगा। पंजीकरण के बाद भी मंत्रालय स्वीकृत पर निर्णय लेगा। आगे कहा कि नियम याचिकाकर्ता जैसे छोटे संगठनों पर प्रतिकूल परिस्थितियां लागू करते हैं, जो अब 24 घंटे के भीतर शिकायतों से निपटने के लिए एक पूर्णकालिक शिकायत निवारण अधिकारी नियुक्त करने के लिए बाध्य होंगे।"
एडवोकेट मैथ्यू ने कहा कि,
"आईटी एक्ट की धारा 69 ए केवल इंटरमीडियरी की चिंता करता है और इसका उपयोग डिजिटल मीडिया को विनियमित करने के लिए नहीं किया जा सकता है ।"
जब एडवोकेट मैथ्यू ने कठोर कार्रवाई से सुरक्षा के अंतरिम आदेश के लिए कहा, तो सीजीसी ने कहा कि कार्रवाई के लिए कोई आधार नहीं था क्योंकि नियमों के तहत पंजीकरण के लिए एक महीने का समय है। सीजीसी ने नियमों के तहत पंजीकरण के लिए 24 मार्च तक का समय होने की बात कहते हुए 17 मार्च तक के लिए मामले को स्थगन किया।
इस बिंदु पर एडवोकेट मैथ्यू ने बताया कि 25 फरवरी को केंद्र सरकार की अधिसूचना के साथ नियम तत्काल प्रभाव से लागू हो गए हैं। इसका मतलब है, कोई भी व्यक्ति शिकायत दर्ज कर सकता है और याचिकाकर्ता 24 घंटे के भीतर जवाब देने के लिए बाध्य होगा।
जस्टिस आशा ने इसके बाद नोटिस जारी करते हुए याचिकाकर्ता को अंतरिम सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम बढ़ाया। न्यायमूर्ति आशा ने यह भी देखा कि नियमों के संबंध में मंत्रालय को लाइव लॉ के चीफ एडिटर एमए रशीद द्वारा पेश की गई चिताओं पर विचार करना होगा। सीजीसी इस पर विचार करने के लिए सहमत हुए।
याचिका का आधार
याचिका में कहा गया है कि नए आईटी नियम, 2021 "प्रकाशकों पर एक असंवैधानिक तीन-स्तरीय शिकायतें और स्थगन संरचना लागू करता है, जो कार्यपालक और न्यायाधीश दोनों के महत्वपूर्ण स्वतंत्र भाषण और ऑनलाइन कंटेंट पर रोक लगाता है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह तंत्र मनमानीपूर्ण है और कानून के शासन का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से, क्योंकि अंतर-विभागीय समिति के फैसले के खिलाफ अपील करने के लिए कोई भी प्रावधान नहीं है, जिसमें केवल कार्यकारिणी के सदस्य शामिल हैं।
आगे कहा गया है कि यह नियम अभेद्य रूप से ऑनलाइन न्यूज , वर्तमान मामलों और ऑनलाइन कंटेंट के प्रकाशकों के लिए आईटी अधिनियम के दायरे का विस्तार करता है और इस प्रकार यह मूल कानून के अधिकारातीत है, जो डिजिटल न्यूज़ मीडिया के विनियमन पर विचार नहीं करता है।
याचिका में कहा गया है कि,
"नियम 17 के तहत 'रिव्यू' का प्रावधान भी डिजिटल न्यूज मीडिया के अधिकारों के लिए कोई विशेष सेवा प्रदान नहीं करता है क्योंकि 'रिव्यू कमेटी' में पूरी तरह से कार्यकारिणी (जो मंत्री अंतर-विभागीय समिति में शामिल हैं) के सदस्यों शामिल हैं, पीड़ित प्रकाशक को सुनवाई का अधिकार प्रदान नहीं करता है, और प्रतिवागी संख्या 2 (I & B मंत्रालय) सेंसरशिप शिकायत पर कोई भी न्यायिक निरीक्षण प्रदान करने में विफल रहता है।"
याचिका में कहा गया है कि नए नियम, 2021 डिजिटल न्यूज मीडिया पर प्रशासनिक नियमों का एक बहुत बड़ा हिस्सा निर्धारित करते हैं, जो छोटे या मध्यम आकार के प्रकाशकों के लिए कार्य करना लगभग असंभव बना देगा।
याचिकाकर्ता का कहना है कि नियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए), अनुच्छेद 19 (1) (जी) और अनुच्छेद 21 के तहत अपने संवैधानिक अधिकारों के पालन में डिजिटल न्यूज मीडिया पर "चिलिंग इफेक्ट" और उनके अधिकारों का उल्लंघन करने का कारण है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि नियमों में शामिल "आचार संहिता (Code Of Ethics)" अस्पष्ट है और इसका दुरूपयोग किया जा सकता है। यह बताया जाता है कि श्रेया सिंघल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पष्टता और शिथिलता के आधार पर आईटी अधिनियम की धारा 66A को हटा दिया था। इसलिए, नियमों को भी उसी आधार पर हटाया जा सकता है।
आईटी अधिनियम की धारा 87 के तहत नियम जारी करने की आड़ में, प्रतिवादी ने याचिकाकर्ता संख्या 1 और अन्य डिजिटल न्यूज मीडिया को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया अधिनियम और केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 के दायरे में लाया गया है, वे भी दोनों विधानों को बिना किसी संशोधन के लाया गया है।
लाइव लॉ (LiveLaw) एक संगठन के रूप में संस्थागत जवाबदेही के साथ काम करता है और अक्सर ऐसे संस्थानों के खिलाफ महत्वपूर्ण रुख लेने के लिए कहा जाता है। नए आईटी नियम विशेष रूप से शिकायत निवारण और ओवरसाइट तंत्र पर कार्यकारी नियंत्रण, याचिकाकर्ता संख्या 1 क्योंकि यह प्रभावी रूप से किसी भी रिपोर्टिंग को हतोत्साहित करेगा जो सत्ता के संस्थानों के लिए तालमेल नहीं हो सकता है। डिजिटल न्यूज़ मीडिया आउटलेट जैसे कि याचिकाकर्ता नंबर 1 को स्वयं-सेंसर कंटेंट के लिए मजबूर किया जा सकता है जो यहां तक कि जोखिम भरे कानूनी परिणामों के प्रकाशित होने के बजाय निषिद्ध लाइन (पूरी तरह से कानूनी होने के बावजूद) के करीब भटका हुआ प्रतीत होता है।
याचिका में कहा गया है कि,
"कंटेंट प्रकाशित करने और कानूनी परिणामों के जोखिम के बजाय चिलिंग इफेक्ट न केवल याचिकाकर्ता नंबर 1 द्वारा प्रकाशित राय( opinion) तक फैला हुआ है, बल्कि इसकी तथ्यात्मक रिपोर्टिंग और अदालती कार्यवाही की लाइव रिपोर्टिंग के लिए भी है। निहित स्वार्थ वाले व्यक्ति आधारहीन शिकायतों को दर्ज करने के लिए इंटरमीडियरी नियमों का उपयोग कर सकते हैं। भले ही ये शिकायतें किसी भी कार्रवाई का परिणाम नहीं है क्योंकि उनके पास योग्यता की कमी है, यह 15 दिनों में हर शिकायतकर्ता को जवाब देने और फिर कई अपीलीय मंचों (स्व- विनियामक निकाय ) से पहले प्रकाशन का बचाव करने वाले याचिकाकर्ता नंबर 1 जैसे छोटे संगठन पर भारी वित्तीय और संसाधन का बोझ लाद देगा।"
नए आईटी नियम बिना किसी भी विवादास्पद या महत्वपूर्ण भाषण को प्रकाशित करने की तुलना में छोटे डिजिटल न्यूज मीडिया संस्थाओं को प्रभावी ढंग से स्व-सेंसर करने के लिए मजबूर करेंगे। नए आईटी नियम के भाग III में निर्धारित स्व-नियामक तंत्र, यदि शिकायत याचिका संख्या 1 द्वारा प्रकाशित ओपिनियन के संबंध में दर्ज की गई है विशेष ओपिनियन लिखने वाले लेखक को सुनने का कोई अधिकार नहीं है और यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन माना जाएगा।"
याचिका का मसौदा एडवोकेट वृंदा भंडारी, एडवोकेट गौतम भाटिया, एडवोकेट अभिनव सेखरी, एडवोकेट संजना श्रीकुमार, एडवोकेट देवदत्त मुखोपाध्याय, एडवोकेट कृष्णेश बापट और एडवोकेट तन्ने सिंह ने तैयार किया था और इसे निनन और मैथ्यू एसोसिएट्स के माध्यम से दायर किया गया था।
दिल्ली हाईकोर्ट ने मंगलवार 'फाउंडेशन फॉर इंडिपेंडेंट जर्नलिज्म' (एक गैर-लाभकारी कंपनी जो 'द वायर' का मालिक है) द्वारा नियमों को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया था। मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल की अध्यक्षता वाली एक खंडपीठ ने इस याचिका को 16 अप्रैल के लिए सूचिबद्ध किया है।
याचिका की कॉपी यहां पढ़ें ( लाइव लॉ मीडिया प्राइवेट लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ):