न्यायिक शिक्षा में निहित पूर्वाग्रहों को समाप्त करना होगा : न्यायमूर्ति मुरलीधर

LiveLaw News Network

16 May 2020 1:45 PM IST

  • न्यायिक शिक्षा में निहित पूर्वाग्रहों को समाप्त करना होगा : न्यायमूर्ति मुरलीधर

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस डॉक्टर एस मुरलीधर ने कहा है कि न्यायिक शिक्षा को अपने अंतर्निहित पूर्वाग्रहों को दूर करना होगा। बियांड लॉ सीएलसी और यूआईएलएस, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के न्यायिक सुधार पर वेबिनार में जस्टिस मुरलीधर ने यह बात कही।

    उन्होंने कहा कि जजों के माथे पर जो मामलों का पहाड़ खड़ा है, उसकी वजह से फ़ैसले की गुणवत्ता में कमी आई है और जजों पर बोझ और परिणाम के बीच संतुलन बनाए जाने की ज़रूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि फ़ैसला लिखना एक पक्ष है लेकिन व्यवहार संबंधी बातों में बदलाव की ज़रूरत है जब हम इसके अंतर्निहित पूर्वाग्रहों की बात करते हैं। न्यायिक शिक्षा का कर्तव्य है कि वह इस तरह के पूर्वाग्रहों को समाप्त करे।

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि न्यायिक सुधार का मुद्दा ऐंग्लो-सैक्सॉन मॉडल जितना ही पुराना है और न्यायिक सुधार का प्रथम चरण 1793 में लागू हुआ।

    एशियाई विकास बैंक, विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र निकायों, और हमारे स्वयं के विधि आयोग जैसे संस्थानों द्वारा प्रचारित किए जा रहे सुझावों का उल्लेख करते हुए, न्यायमूर्ति मुरलीधर ने निवेश विकास के लिए न्यायिक प्रणाली की दक्षता में सुधार के संबंध में निवेश संस्थानों के सुझाव की समानता का उल्लेख किया जो मध्यस्थता कानून और आईबीसी में हुए परिवर्तन की व्याख्या करता है।

    "इस बात को महसूस किया जा रहा है कि न्यायिक सुधार पूरी तरह से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन दुनिया भर की न्यायपालिकाओं में सुधार लाने के दृष्टिकोण में हाल में बदलाव आया है। उदाहरण के लिए, मुझे हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय कंसोर्टियम की रिपोर्ट मिली है, जो 2012 में प्रकाशित हुई थी और इसमें अदालत में उत्कृष्टता के लिए एक 'अंतर्राष्ट्रीय ढांचे'का सुझाव है।"

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि पहले के संस्थागत-केंद्रित दृष्टिकोण से, अब स्वतंत्रता-केंद्रित दृष्टिकोण का आंदोलन शुरू हो गया है, न्याय तक लोगों की पहुँच का दृष्टिकोण जिसमें उपयोगकर्ता की संतुष्टि का बड़ा महत्व है।

    2018 में, "ग्लोबल परफॉरमेंस ऑफ़ कोर्ट परफॉरमेंस" नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी, और न्यायमूर्ति मुरलीधर ने सभी प्रतिभागियों को इसे ऑनलाइन पढ़ने का आग्रह किया।

    "यह रिपोर्ट कोर्ट के आधारभूत मूल्यों के साथ अदालत के प्रदर्शन के मुख्य उपायों को संरेखित करती है। ये मूल्य किसी भी स्तर पर न्यायपालिका के लिए महत्वपूर्ण हैं। ये हैं: समानता, उचित, निष्पक्षता, स्वतंत्रता, क्षमता, अखंडता, पारदर्शिता, पहुंच, सामयिकता और निश्चितता।"

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा कि ये मूल्य न्यायिक सुधार की दिशा में बदले हुए दृष्टिकोण को दर्शाते हैं। पहला मूल्य अदालत के उपयोगकर्ता की संतुष्टि का है, जो उपयोगकर्ता को अदालत के केंद्र में रखता है। दूसरा अदालत तक पहुँचने की फीस है, यानी सिविल मामलों में कोर्ट फीस कितनी ली जाती है। तीसरा है, मामले को निपटाने की दर। समय पर मामले की प्रोसेसिंग भी है।"

    अदालत के फ़ाइल तक पहुँच के मामले को भी न्यायमूर्ति मुरलीधर ने उठाया।

    "सिर्फ़ जजों और रजिस्ट्री को ही नहीं बल्कि वकीलों और मुक़दमादारों को अदालत की फ़ाइलें कितनी आसानी से उपलब्ध हैं।"

    लंबित मामलों के बारे में मुरलीधर ने इससे संबंधित सही आँकड़ों का मामला उठाया।

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने कहा,

    "हालांकि मैं निश्चित रूप से सहमत हूं कि एडीआर, लोक अदालत ऐसे उपकरण हैं जिन्हें सुधारने और अदालतों के बोझ को कम करने के लिए उपयोग करने की आवश्यकता है, लेकिन यह एक संस्था-केंद्रित दृष्टिकोण भी है। उनकी लोकप्रियता इसलिए है कि वे कम समय लेते हैं और निष्कर्ष निश्चित होता है। हो सकता है कि सही अर्थों में इसे पूर्ण न्याय नहीं कहा जाए, लेकिन यह एक व्यावहारिक दृष्टिकोण है।"

    हालांकि, उन्होंने ने कहा कि न्याय प्रणाली को व्यापक-आधार वाला बनाने की ज़रूरत है। यह केवल न्याय करने वाली संस्थाओं के बारे में नहीं है, बल्कि इन संस्थाओं द्वारा न्याय देने या इसे सुरक्षित करने के बारे में अधिक है, जिन्हें अदालत के आदेशों के अनुपालन के मुद्दे से छूट दी जा सकती है।

    उन्होंने कहा,

    "न्यायिक सुधारों के लिए दृष्टिकोण संस्थागत रूप से केंद्रित नहीं हो सकता है (जैसे एडीआर, लोक अदालत आदि के सुधार)। न्याय के लिए आधुनिक समय के दृष्टिकोण को व्यापक बनाने की ज़रूरत है। यह सिर्फ न्याय देने के बारे में नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे सुरक्षित भी बनाना चाहिए।"

    न्यायिक प्रणाली का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है, जो केवल औपचारिक न्यायिक प्रणाली जैसे कानूनी सेवा प्राधिकरण या मध्यस्थता केंद्रों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें गैर-औपचारिक कानूनी केंद्र भी शामिल हैं जो देश में जीवंत और सक्रिय हैं।

    "एक सवाल जो हमें पूछने की ज़रूरत है वह यह है कि क्या न्याय दिलानेवाली संस्थाएं कुशल और प्रभावी सेवाएं दे रही हैं जो लोगों की जरूरतों के लिए सुलभ और उत्तरदायी हैं? उदाहरण के लिए, व्यवस्था कमजोर समूहों के साथ किस तरह का व्यवहार करती है।"

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने अपने संबोधन का समापन करते हुए कहा कि वकीलों के सहयोग के बिना कोई भी सुविचारित न्यायालय न्याय नहीं दिला सकता और सुधार उपायों को लागू नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त, निरंतरता का एक क्रम है जो न्यायालय में लागू होने वाले सुधारों के लिए ज़रूरी है।

    न्यायमूर्ति मुरलीधर ने न्यायिक प्रशिक्षण पर एक सवाल का जवाब दिया और कहा कि यह ज़रूरी है कि यह विस्तृत और व्यापक हो। उन्होंने कहा कि भाषा का प्रशिक्षण दिए जाने की ज़रूरत है और अदालतों के निचले स्तर पर संसाधनों की कमी के प्रश्न का समाधान होना चाहिए।

    सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर सत्र में सह-वक्ता थे। उनकी बातों के बारे में रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं :


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