बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंत्रियों के ख़िलाफ़ दलील ख़ारिज की कहा, लोग राजनीतिक लाभ के लिए अपनी निष्ठा बदलते हैं तो वोटरों को ऐसे लोगों को सबक़ सिखाना चाहिए

LiveLaw News Network

25 Sep 2019 9:07 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंत्रियों के ख़िलाफ़ दलील ख़ारिज की कहा, लोग राजनीतिक लाभ के लिए अपनी निष्ठा बदलते हैं तो वोटरों को ऐसे लोगों को सबक़ सिखाना चाहिए

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से छह माह पहले मंत्रिमंडल में तीन मंत्रियों की नियुक्ति के ख़िलाफ़ दायर कुछ याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया।

    न्यायमूर्ति एससी धर्माधिकारी और जीएस पटेल की पीठ ने सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता विजय वडेट्टिवर और सुरिंदर अरोरा की याचिकाओं पर ग़ौर किया। इन याचिकाओं में राधाकृष्ण विखे पाटिल, जयदत्ता क्षीरसागर और अविनाश महतेकर को महाराष्ट्र मंत्रिमंडल में मंत्री नियुक्त किए जाने को चुनौती दी गई थी। ये तीनों लोग अपनी-अपनी पार्टियों से इस्तीफ़ा देकर बीजेपी-शिव सेना गठबंधन में शामिल हो गए।

    ...तो वोटरों को ऐसे नेताओं को सबक़ सिखाना चाहिए

    अदालत ने कहा कि इन नेताओं के कथित दलबदल और उन्हें अयोग्य क़रार देने पर विधानसभा के अध्यक्ष का कोई फ़ैसला नहीं आया है इसलिए हाईकोर्ट के लिए इस पर फ़ैसला देना संभव नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि अगर नेता सिर्फ़ राजनीतिक फ़ायदे के लिए दलबदल कर रहे हैं तो वोटरों को ऐसे नेताओं को सबक़ सिखाना चाहिए।

    दलील

    याचिकाकर्ताओं की पैरवी एसबी तलेकर ने की। उन्होंने संविधान सभा में हुई बहसों को उद्धृत करते हुए कहा कि संविधान में कभी इस बात की कल्पना नहीं की गई थी कि मंत्रिमंडल में ऐसे लोगों को भी शामिल किया जाएगा जो दोनों में से किसी सदन के सदस्य नहीं हैं और जो अपने मंत्री पद पर छह महीने से ज़्यादा दिन तक नहीं रह सकते।

    उन्होंने कहा कि ऐसे मंत्री जो विधायक भी नहीं हैं, उन्हें छह माह के भीतर चुनाव का सामना अवश्य करना चाहिए। विधायक नहीं होने के बावजूद वे मंत्री पद पर इतनी अवधि तक नहीं रह सकते। ऐसे ग़ैर-विधायक मंत्री का चुनाव लड़ने की कोई संभावना सिर्फ़ इसलिए एकदम नहीं है, क्योंकि विधानसभा का कार्यकाल इन लोगों के मंत्री बनने की तिथि से छह माह से भी कम बचा है।

    इस तरह के लोगों को मंत्रिमंडल में नियुक्त करने के पीछे मंशा की ज़िक्र करते हर तलेकर ने विखे पाटिल का उदाहरण दिया जो पहले विपक्ष के नेता थे और शिर्डी विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक। पाटिल अपने बेटे के लिए कोपरगाँव क्षेत्र से बीजेपी से लोकसभा का टिकट लेने में कामयाब रहे। इससे स्पष्ट है कि पाटिल दलबदल कर बीजेपी में जाना चाहते थे । तलेकर ने अपनी दलील के लिए एसआर चौधरी बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य और वीआर कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य मामलों में आए फ़ैसलों पर विश्वास जताया।

    राज्य और मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की पैरवी वीए थोरात ने की। उन्होंने कहा कि संविधान के कुछ अनुच्छेदों की व्याख्या करके हम संविधान को दुबारा नहीं लिख सकते। संविधान में जिसका ज़िक्र नहीं है उसको हम उसे इसमें शामिल नहीं कर सकते। अगर संविधान पूरी तरह किसी बात पर प्रतिबंध लगाता है तभी हम तलेकर की दलीलों पर बहस को आगे बढ़ा सकते हैं।

    थोरात ने कहा कि तलेकर की दलील ग़लत इसलिए है क्योंकि किसी ऐसे व्यक्ति को मंत्रिमंडल में नियुक्ति पर सिर्फ़ इसलिए कोई प्रतिबंध नहीं है कि वह विधायक नहीं है और विधानसभा की मियाद छह माह से भी कम बची है।

    फ़ैसला

    अदालत ने कहा, "कोई व्यक्ति जब अयोग्य क़रार दे दिया जाता है तभी वह अयोग्य होता है। इस तरह का कोई फ़ैसला अभी नहीं आया है…दलबदल पर कोई फ़ैसला नहीं आया है और यह अभी भी लंबित है। उन्हें अयोग्य ठहराए जाने का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता सिर्फ़ इसलिए कि उन्होंने दलबदल किया है और इस बारे में सदन के अध्यक्ष का फ़ैसला अंतिम होता है"।

    पीठ ने मनोज नरूला बनाम भारत संघ मामले में तलेकर की आशंकाओं पर न्यायमूर्ति धर्माधिकार ने कहा -

    "उस समय न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने जो फ़ैसला दिया वह हमें यह बताता है कि इस मामले में और वर्तमान मामले मने जो सुझाया गया है उसके हिसाब से संविधान की व्याख्या नहीं की जा सकतीहै। हम संविधान के प्रावधानों को दुबारा नहीं लिख सकते"। संवैधानिक चुप्पी भी महत्त्वपूर्ण है और उसे भी समान दर्जा प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान जिन बातों पर रोक नहीं लगाता है उसके बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसकी अनुमति है और संविधान को इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता और न ही उसकी व्याख्या की जा सकती है"।

    संविधान सभा की बहसों पर ग़ौर करने और विभिन्न मामलों में आए फ़ैसलों का संदर्भ देते हुए पीठ ने इस याचिका को ख़ारिज कर दिया। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था की महत्ता का ज़िक्र किया और वोटरों से कहा -

    "जब हम 'दलबदल'कहते हैं तब हम सतर्क होते हैं और वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थियों पर अपनी कोई राय नहीं देते हैं। हालांकि, आम लोग इसे निष्ठा को बदलने के रूप में देखते हैं और राजनीतिक लाभ के लिए बार-बार अपनी स्थिति में बदलाव लाने के रूप में देखते हैं।

    …हम चुनाव के मौक़ों पर इस तरह की बात महाराष्ट्र में देखते हैं और यह दुर्भाग्य की बात है। पर इसकी वजह से हम किसी अनुच्छेद में वह नहीं ढूंढ नहीं सकते जो उसमें नहीं है और उसे पूरी तरह छोड़ दिया गया है। जहां राजनीतिक नेता और पार्टियां संवैधानिक विश्वास को तोड़ते हैं ऐसे मामले को जनता के फ़ैसले पर छोड़ देना चाहिए। वोटरों को ही अंततः इसका दायित्व लेना है।

    संविधान सिविल सॉसायटी में भी उतना ही विश्वास जताता है। अंततः यह ऐसा संविधान है जो लोगों ने ख़ुद को सौंपा है। यह उनका दायित्व है कि वह लोकतंत्र के मूल्यों को बनाए रखें।

    दुनिया में हर जगह लोकतंत्र के लिए चुकानी पड़ती है; शासन के लिए इसके चुनाव के लिए भारी बलिदान देना पड़ता है। जब हम भारतीय लोकतंत्र में गुमान का अनुभव करते हैं तो हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाली ताक़तों के प्रति हमारी कार्रवाई पर दुनिया भर की नज़र होती है। जब हम ख़ुद को 'सिविल सॉसायटी' कहते हैं तो यह हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और चुनावी प्रक्रिया में हर क़ीमत पर शुचिता सुनिश्चित करें। वोट करने के अधिकार का प्रयोग इस तरह से होना चाहिए कि हमें इसके लिए जो विश्वास व्यक्त किया गया है हम उसको निभा पाएँ। इसकी हर क़ीमत पर रक्षा की जानी चाहिए।

    अगर सिर्फ़ राजनीतिक लाभ के लिए लोग दलबदल कर रहे हैं तो यह वोटरों का कर्तव्य है कि ऐसे नेताओं को वह सबक़ सिखाए। अंततः, हर लोकतंत्र में वास्तविक ताक़त जनता के हाथों में होती है। सिर्फ़ इसलिए कि कोई बहुमत में है, इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह जनता का गला दबा दे। लोकशाही में विपक्ष को भी समान स्थान, इज़्ज़त और आदर प्राप्त है। वह जो बहुमत में है उसका प्रशासनिक और सरकारी मामलों को उचित तरीक़े से और आसानी से अंजाम देने में दिशा निर्देश करता है"।


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