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ज़मानत आवेदन पर विचार करते हुए अदालत को मानवीय व्यवहार दिखाने की ज़रूरत : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

LiveLaw News Network
19 Jun 2020 4:45 AM GMT
ज़मानत आवेदन पर विचार करते हुए अदालत को मानवीय व्यवहार दिखाने की ज़रूरत : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
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हिमाचल हाईकोर्ट ने मंगलवार को ऐसे आरोपी की निजी स्वतंत्रता के संदर्भ में ज़मानत की महत्ता पर बल दिया, जहां मामले में जांच के लिए आरोपी को हिरासत में लेने की ज़रूरत नहीं है और/या जहां इस बात की आशंका नहीं है कि आरोपी न्याय की गिरफ़्त से भाग जाएगा।

न्यायमूर्ति संदीप शर्मा की पीठ ने वर्तमान मामले में आरोपी को ज़मानत दे दी जिस पर एनडीपीएस अधिनियम के तहत आरोप लगाए गए हैं।

अदालत ने कहा,

"किसी आरोपी या संदिग्ध को पुलिस या न्यायिक हिरासत में भेजने के दौरान जज को मानवीय व्यवहार दिखाने की ज़रूरत होती है। इसके कई कारण होते हैं जिनमें एक है आरोपी की गरिमा को बनाए रखना भी है। भले ही आरोपी कितना ग़रीब क्यों न हो, अनुच्छेद 21 की शर्तों और यह तथ्य कि जेलों में पहले से ही भारी भीड़ है जिसकी वजह से सामाजिक और अन्य समस्याएं होती हैं जैसा कि इस अदालत ने …1382 जेलों में पाया है।"

सुप्रीम कोर्ट ने दाताराम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य मामले में यह मत व्यक्त किया था जहां से इसे उद्धृत किया गया है। इसमें कहा गया था कि ज़मानत की याचिका पर ग़ौर करने के दौरान यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि जांच की प्रक्रिया में आरोपी के सहयोग से जांचकर्ता संतुष्ट है कि नहीं और जब जांचकर्ता उसे बुलाता है तो वह मौजूद रहता है कि नहीं।

हाईकोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में यद्यपि आवेदक के पास से गांजा बरामद हुआ पर यह मात्रा "मध्यवर्ती मात्रा" थी और इस पर एनडीपीएस अधिनीयम की धारा 37 लागू नहीं होती।

अदालत ने इस आशंका को भी नहीं माना कि अगर आरोपी को ज़मानत पर छोड़ा गया तो वह न्याय की गिरफ़्त से भाग जाएगा।

अदालत ने कहा,

"…एएजी ने जो आशंका जताई है कि ज़मानत मिलने के बाद आवेदक न्याय की गिरफ़्त से भाग सकता है और दुबारा इसी तरह की गतिविधि को अंजाम दे सकता है, उसका मुक़ाबला ज़मानत के साथ कड़ी शर्तों को जोड़कर किया जा सकता है।"

अदालत ने कहा कि ज़मानत का उद्देश्य मामले की सुनवाई में आरोपी की उपस्थिति को सुनिश्चित करना है और …उसे ज़मानत दी जाए या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है वह व्यक्ति अपनी सुनवाई में मौजूद रहेगा या नहीं। अन्यथा ज़मानत को सज़ा के रूप में रोका नहीं जाना चाहिए। इस मामले में अदालत ने संजय चंद्रा बनाम सीबीआई (2012)1 SCC 49 मामले का संदर्भ भी दिया।

पीठ ने कहा,

"…स्वतंत्रता से वंचित करने को आवश्यक रूप से सज़ा माना जाना चाहिए…अदालत को इस सिद्धांत को मौखिक से ज्यादा सम्मान देना चाहिए कि सज़ा की शुरुआत दोषी पाए जाने के बाद होती है और मुक़दमा चलाए जाने के बाद दोषी ठहराया जाने तक हर व्यक्ति निर्दोष है। सुनवाई समाप्त होने तक जेल में रहना काफ़ी कष्टप्रद हो सकता है…।"

पीठ ने आवेदक को ₹2 लाख का बॉन्ड भरने और दो ज़मानतदार पेश करने की शर्त पर ज़मानत दे दी।

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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