शांतिपूर्वक जुलूस निकालना, नारे लगाना अपराध नहीं हो सकता: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने महिला वकील के खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द की
Sparsh Upadhyay
24 Feb 2021 10:54 AM GMT
यह रेखांकित करते हुए कि शांतिपूर्ण जुलूस निकालना, नारे लगाना, भारत के संविधान के तहत अपराध न है और न ही हो सकता है, हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने सोमवार (22 फरवरी) को एक महिला अधिवक्ता के खिलाफ धारा 341, 147, 147, 149, 353, 504, और 506 आई.पी.सी. के तहत दायर एक प्राथमिकी को खारिज कर दिया।
न्यायमूर्ति अनूप चितकारा की खंडपीठ एक महिला अधिवक्ता और शिमला जिला न्यायालय बार एसोसिएशन के सदस्य की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने अपने खिलाफ दर्ज की गई प्राथमिकी को रद्द करने के लिए अदालत के समक्ष प्रार्थना की थी।
यह न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया था कि वकील, एक छोटे मार्ग से जिला न्यायालय परिसर शिमला में प्रवेश को प्रतिबंधित करने के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे थे, जिससे उन्हें अधिक लंबा रास्ता तय करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप न्यायालयों में जाने में देरी हुई।
आगे यह आरोप लगाया गया कि पुलिस ने आंदोलन को विफल करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से प्रतिशोध लेने के कारण एक मनगढ़ंत प्राथमिकी दर्ज की और पुलिस ने उन्हे एक आरोपी के रूप में निरूपित किया।
अभियोजन पक्ष का मामला
अभियोजन पक्ष के मामले के अनुसार, शिमला शहर के बोइलूगंज बाजार में बड़ी संख्या में अधिवक्ता इकट्ठे हुए थे और वे अपने वाहनों को प्रतिबंधित सड़क के माध्यम से ले जाने पर जोर दे रहे थे, हालांकि उनके पास ऐसा करने के लिए कोई वैध परमिट नहीं था।
इस पर, शिकायतकर्ता एसएचओ आंदोलन की जगह पहुंच गए और कई अधिवक्ताओं को जगह पर इकट्ठे हुए देखा, और याचिकाकर्ता उनमें से एक थीं और उसके बाद, एसएचओ ने उनसे अपने वाहनों को रोककर ट्रैफिक जाम के कारणों के बारे में पूछा।
इसके अलावा, जब SHO ने वकीलों को प्रतिबंधित सड़क पर गाड़ी चलाने के लिए परमिट दिखाने के लिए कहा, तो वकील बहुत आक्रामक हो गए और पुलिस अधिकारियों को धक्का देना शुरू कर दिया और उन्हे गालियाँ दीं।
इस पर, शिकायतकर्ता ने उन्हें शांत करने की कोशिश की, लेकिन वे गालियां देते रहे, धक्का-मुक्की, मारपीट करते रहे, थाने को जलाने की धमकी दी, और एसएचओ से कहा कि वे उसे सबक सिखाएंगे जिसे वह अपने जीवन में कभी नहीं भूलेगा। उसके बाद, ये वकील मौके पर विरोध में बैठ गए और उन्होंने नारे लगाए।
इसके बाद, वकीलों के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज की गई और याचिकाकर्ता को उस व्यक्ति के रूप में नामित किया गया था जो मौके पर मौजूद थी।
न्यायालय का अवलोकन
शुरुआत में, उच्च न्यायालय ने नोट किया कि प्राथमिकी को रद्द करने के लिए मजिस्ट्रेट द्वारा जांच पूरी होने और संज्ञान लेने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।
गौरतलब है कि न्यायालय ने कहा कि प्राथमिकी में याचिकाकर्ता की भूमिका का उल्लेख नहीं किया गया है और यहां तक कि अगर यह माना जाता है कि याचिकाकर्ता मौके पर मौजूद थी, तब भी उनके खिलाफ आरोप नहीं बनता है।
न्यायालय ने आगे उल्लेख किया कि यद्यपि पुलिस को घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग मिली, लेकिन राज्य ने डिस्क के उक्त हिस्से की समय सीमा को संदर्भित नहीं किया जहां याचिकाकर्ता कथित रूप से धक्का दे रही थीं, गालियां दे रही थीं, या एसएचओ को धमकी दे रही हों या पुलिस स्टेशन को जलाने की धमकी दें।
गौरतलब है कि कोर्ट ने टिप्पणी की,
"प्रदर्शन में घटनास्थल पर मौजूदगी तथ्यों और वर्तमान प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों की प्रकृति में आपराधिक कृत्य को आमंत्रित नहीं करेगी… इसलिए, याचिकाकर्ता को एक अभियुक्त के रूप में नामित करना कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग है। यदि कार्यवाही जारी रखने की अनुमति दी जाती है, तो यह न्याय के विरुद्ध होगा।"
अन्त में, न्यायालय का विचार था कि कार्यवाही की निरंतरता किसी भी उद्देश्य को पूरा नहीं करेगी।
नतीजतन, याचिका की अनुमति दी गई, और सभी परिणामी कार्यवाही के साथ एफआईआर नंबर 14/2019 को रद्द कर दिया गया।