"यह उचित समय है कि अधीनस्थ न्यायालय सीपीसी के मूल सिद्धांतों को समझे ": मद्रास हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

20 April 2022 7:10 AM GMT

  • यह उचित समय है कि अधीनस्थ न्यायालय सीपीसी के मूल सिद्धांतों को समझे : मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि यह उचित समय है कि अधीनस्थ न्यायालय सीपीसी के मूल सिद्धांतों को समझे और उन वादों को शुरू में ही खारिज कर दे, जो अनुरक्षण योग्य नहीं हैं।

    न्यायमूर्ति एन आनंद वेंकटेश की पीठ ने कहा कि इस तरह की कवायद करने के लिए सीपीसी में पर्याप्त प्रावधान हैं और केवल जरूरी यह है कि इस तरह के प्रावधानों की उपलब्धता के बारे में जागरूकता फैलाई जाए और सक्रिय तरीके से इसे लागू किये जाएं।

    क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र की कमी के आधार पर अधिसूचित संपत्तियों के संबंध में निचले अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित एक डिक्री को रद्द करते हुए टिप्पणी की गई थी।

    कोर्ट ने चिन्नासामी द्वारा दायर दूसरी अपील की अनुमति दी और कहा कि ट्रायल कोर्ट के पास वाद पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था और वह गलती से मामले के गुण-दोष में चला गया था। कोर्ट ने माना कि निचली अपीलीय अदालत ने भी अधिकार क्षेत्र के सवाल पर विचार किए बिना मामले के गुण-दोष में जाने की गलती की। कोर्ट ने इस प्रकार कहा कि बगैर अधिकार क्षेत्र वाले न्यायाधीश द्वारा सुनवाई से प्रभावित इस मामले को अवैध माना जाना चाहिए।

    पृष्ठभूमि

    मूल वाद में वादी ने कहा था कि विवादित संपत्तियों की पहली परिसंख्या वादी के दादा की स्व-अर्जित संपत्ति है और दूसरी परिसंख्या दादा की पैतृक संपत्ति हैं जो 24 नवम्बर 1959 के रजिस्टर्ड बंटवारा विलेख के माध्यम से उनके हिस्से में आई थी। दो वसीयत के माध्यम से, इन संपत्तियों को उनके दादा द्वारा वादी के पक्ष में निष्पादित किया गया था। उक्त दादा का 29-3-1991 को निधन हो गया और उनके द्वारा निष्पादित वसीयत लागू हो गई और इस तरह, वादी पहली और दूसरी अधिसूचित संपत्तियों का पूर्ण मालिक बन गया।

    वादी ने दावा किया कि उसने प्रतिवादी को दूसरी अधिसूचित संपत्ति का कब्जा दिया था, जिसने तब संपत्ति के संबंध में नकली और नाममात्र के दस्तावेज बनाए थे, जिससे प्रतीत हो कि संपत्ति उसकी हो। इस प्रकार प्रतिवादी ने वादी की संपत्ति का इस्तेमाल किया। इसलिए, वादी ने पहली अधिसूचित संपत्ति के संबंध में स्थायी निषेधाज्ञा और दूसरी संपत्ति के संबंध में अनिवार्य निषेधाज्ञा के माध्यम से संपत्ति पर कब्जा हासिल करने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।

    प्रतिवादी ने अपने लिखित बयान में कहा कि वह संपत्ति के मूल मालिक के पोतों में से एक था। प्रतिवादी ने एक विशिष्ट दलील दी कि, पहला प्रतिवादी बंटवारे के दौरान अपने पिता को आवंटित अन्य संपत्तियों के साथ दूसरी अधिसूचित संपत्तियों का लाभ ले रहा था और इस क्रम में लगभग 28 वर्षों से खुले तौर पर और निर्बाध रूप से भूमि पर खेती कर रहा था। इतना ही नहीं, यह तथ्य वादी और उसके पिता को ज्ञात था, जिन्होंने पहले प्रतिवादी द्वारा संपत्तियों का लाभ उठाने पर कभी आपत्ति नहीं की। प्रतिवादियों ने 1-11-1990 की वसीयत की वास्तविकता पर सवाल उठाया और यह माना कि यह एक मनगढ़ंत दस्तावेज था।

    अदालत ने कहा कि पहली अधिसूचित संपत्तियों के संबंध में वादी के अधिकार को लेकर कोई विवाद नहीं था और प्रतिवादियों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उन्होंने पहली संपत्तियों के कब्जे और इस्तेमाल में कभी हस्तक्षेप नहीं किया। इस प्रकार, पहली अधिसूचित संपत्तियों के लिए वाद स्थापित करने के लिए कार्रवाई का कोई कारण नहीं था।

    कोर्ट ने कहा कि ऐसी परिस्थितियों में वर्तमान मुकदमे को केवल दूसरी अधिसूचित संपत्तियों के संबंध में पक्षों के बीच विवाद के रूप में देखा जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण से, मुकदमे की सुनवाई के लिए ट्रायल कोर्ट के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था।

    कोर्ट ने कहा कि वादी सीपीसी की धारा 17 का लाभ मांग रहे हैं। वर्तमान मामले में इसे लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि विवाद तकनीकी रूप से दूसरी संपत्ति तक सीमित था, जो अदालत के सीमाई अधिकार क्षेत्र से बाहर था।

    "सीपीसी की धारा 17 का लाभ लेने के लिए अनिवार्य शर्त यह है कि वादी के लिए उन सभी संपत्तियों के संबंध में कार्रवाई का कारण होना चाहिए जो विवाद का हिस्सा हैं। यदि धारा 17 की इस तरह से व्याख्या नहीं की जाती है, तो वादकर्ता केवल एक संपत्ति का हवाला देकर आसानी से अदालत को धोखा दे सकता है जो न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आती है और अन्य संपत्तियों के संबंध में कार्रवाई के वास्तविक कारण पर भी विवाद खड़ा कर सकता है, जो कोर्ट के क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर आती है।"

    कोर्ट ने माना कि ट्रायल कोर्ट का आदेश अमान्य था, क्योंकि इसमें क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र का अभाव था और कोर्ट को मामले के गुण-दोष में भी नहीं जाना चाहिए था।

    "यह उपयुक्त समय है कि अधीनस्थ न्यायालय सीपीसी के मूल सिद्धांतों को समझे, और उन वादों को खारिज कर दे जो अनुरक्षण योग्य नहीं हैं। इस तरह की कवायद करने के लिए सीपीसी में पर्याप्त प्रावधान हैं और सबसे जरूरी है इस तरह के प्रावधानों की उपलब्धता के बारे में जागरूकता फैलाना और इसे सक्रिय रूप से लागू करना।"

    कोर्ट ने आगे कहा कि यदि नीचे की अदालतों ने पर्याप्त सावधानी बरती होती और मुकदमे को उसी समय खारिज कर दिया होता, तो 2008 में स्थापित किया गया मुकदमा 14 वर्षों तक नहीं खिंचता।

    केस का शीर्षक: चिन्नासामी और अन्य बनाम धनशेखरन

    मामला संख्या: एसए 213/2014

    उद्धरण: 2022 लाइव लॉ (मद्रास) 165

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