अपराध की गंभीरता कानूनी सबूत से अधिक नहीं हो सकतीः गुजरात हाईकोर्ट ने POCSO के आरोपी को बरी करने को सही ठहराया

Manisha Khatri

11 July 2022 7:45 AM GMT

  • गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट ने हाल ही में सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए पॉक्सो एक्ट के तहत एक आरोपी को बरी करने के फैसले के खिलाफ दायर राज्य सरकार की अपील को खारिज कर दिया है।

    जस्टिस एसएच वोरा और जस्टिस राजेंद्रन सरीन की पीठ ने कहाः

    ''यहां इस मामले में यह ध्यान देने योग्य है कि एक तरफ शिकायतकर्ता ने प्रतिवादी आरोपी के खिलाफ अपनी पीड़ित बेटी का यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और केवल 3 से 4 दिनों की अवधि के बाद ही उसने अपने ही पति के खिलाफ भी अपनी बेटी के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा दिया। शिकायतकर्ता द्वारा दो व्यक्तियों के खिलाफ 4 दिनों की अवधि के भीतर दो विरोधाभासी बयान दिए गए हैं और दोनों आरोप संदेह और शक पर आधारित हैं, एक वर्तमान प्रतिवादी आरोपी के खिलाफ और दूसरा उसके पति के खिलाफ लगाया है। ऐसे में केवल संदेह और शक को आरोपों को साबित करने के लिए ठोस और पुख्ता सबूत नहीं माना जा सकता है।''

    पीठ ने दोहराया कि संदेह कितना भी मजबूत हो, वह सबूत की जगह नहीं ले सकता है। प्रबल संदेह, संयोग, गंभीर शक भी प्रमाण का स्थान नहीं ले सकते हैं। हमेशा यह सुनिश्चित करने के लिए न्यायालयों पर एक कर्तव्य डाला जाता है कि संदेह कानूनी सबूतों का स्थान न ले पाएं।

    यहां प्रतिवादी-अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और पॉक्सो एक्ट की धारा 5 (एफ) (एम) और 6 के तहत अपराधों में आरोपित किया गया था। इस मामले में पीड़िता की मां (शिकायतकर्ता) ने पहले अपनी बेटी की स्कूल बस के कंडक्टर पर आरोप लगाया और उसने 3-4 दिनों के बाद ही अपने पति के खिलाफ भी यही आरोप लगाया।

    हाईकोर्ट ने कहा कि डॉक्टर के अनुसार, लाली थी, लेकिन पीड़ित के हाइमन और पेरिनेम पर कोई चोट नहीं थी और न ही कोई रक्तस्राव था। डॉक्टर ने इस बात को स्वीकार किया कि लाली कई कारणों से हो सकती है। यह भी नोट किया गया कि बस सेवा चलाने वाले स्कूल शिक्षक को इस घटना के बारे में कोई जानकारी नहीं थी और उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें किसी भी माता-पिता से आरोपी के खिलाफ कोई शिकायत नहीं मिली है। पंच गवाह भी मुकर गए थे और अभियोजन के मामले का समर्थन नहीं किया था।

    इस पृष्ठभूमि में, पीठ ने कहा कि एक तरफ शिकायतकर्ता ने बस कंडक्टर पर अपनी बेटी के यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और बाद में उसने अपने ही पति पर भी यह आरोप लगाया था। इस प्रकार, शिकायतकर्ता द्वारा 4 दिनों की अवधि के भीतर दो विरोधाभासी बयान दिए गए थे। पीठ ने कहा कि,''इस तरह, केवल संदेह और शक को आरोपों को साबित करने के लिए ठोस और पुख्ता सबूत नहीं माना जा सकता है।''

    यह भी माना गया कि जब शिकायतकर्ता पीड़िता को अस्पताल लेकर गई थी तो डॉक्टर ने मामले को हाथ में नहीं लिया था और इसके बाद शिकायतकर्ता थाने चली गई थी। शिकायत में इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया गया। इसके अतिरिक्त, शिकायतकर्ता की यह राय कि अभियुक्त का आचरण अच्छा नहीं था, इस बात के बारे में कोई उल्लेख शिकायत या जिरह के दौरान दिए गए बयानों में नहीं किया गया था। आरोप लगाया गया है कि आरोपी 'खराब चरित्र' का था, इसका खुलासा शिकायत में नहीं किया गया था लेकिन बाद में दिए गए बयान में इसका उल्लेख किया गया था।

    कोर्ट ने कहा कि,''शिकायतकर्ता द्वारा अपने बयान में इस प्रकार का सुधार किया गया है और जांच अधिकारी के बयान से भी यही साबित होता है। शिकायतकर्ता द्वारा अपने बयान में बताए गए सभी उपरोक्त तथ्यों का उल्लेख या तो शिकायतकर्ता ने शिकायत में नहीं किया गया या उसने अपने बयान में नहीं किया है। इस प्रकार, शिकायतकर्ता की दृढ़ता और विश्वसनीयता संदिग्ध है।''

    बेंच ने इस संभावना से भी इंकार नहीं किया है कि शिकायतकर्ता और आरोपी के बीच कुछ संबंध थे और पहले टेलीफोन पर हुई बातचीत से पता चलता है कि कुछ आपसी अनबन थी। यह आरोप कि पीड़िता आरोपी की गोद में बैठी थी, बस में प्रतिदिन यात्रा करने वाले शिक्षक सहित किसी भी गवाह ने इस आरोप का समर्थन नहीं किया।

    परिणामस्वरूप, बेंच ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने आरोपी को बरी करके सही किया है और बेंच के अनुसार ट्रायल कोर्ट ने ऐसा करके कोई त्रुटि या अवैधता नहीं की है।

    कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि,''इसमें कोई संदेह नहीं है कि कथित अपराध एक चौंकाने वाला है, लेकिन जहां तक कानूनी सबूत का संबंध है,तो अपराध की गंभीरता अपने आप में अधिक नहीं हो सकती है।''

    केस टाइटल- गुजरात राज्य बनाम हस्मुखभाई उर्फ हर्षदभाई डाहयाभाई मकवाना

    केस नंबर- आर/सीआर.एमए/9857/2022

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