कर्मचारी को मरने के बाद बकाया राशि के भुगतान में देरी के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य को लगाई फटकार

LiveLaw News Network

28 Jan 2020 3:30 AM GMT

  • कर्मचारी को मरने के बाद बकाया राशि के भुगतान में देरी के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य को लगाई फटकार

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक कर्मचारी को उसकी मौत के बाद भविष्य निधि, ग्रैच्यूटी और बकाया वेतन आदि के भुगतान में 24 साल से अधिक की देरी के लिए राज्य अथॉरिटीज को फटकार लगाई।

    न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा,

    "किसी मृत व्यक्ति को उसका बकाए का 24 साल से अधिक समय से बिना किसी कारण के भुगतान नहीं करना किसी भी सूरत में मनमाना है। यह प्रतिवादियों की हठधर्मिता और ग़ैरक़ानूनी है। किसी की मौत के बाद भी उसके बकाए को सालों तक रोके रखना न केवल ग़ैरक़ानूनी और मनमाना है बल्कि पाप भी है।

    अगर किसी क़ानून ने इसे अपराध नहीं घोषित किया है तो। ऐसे अधिकारी जो इस विलंब के लिए ज़िम्मेदार हैं और अभी भी सेवा में हैं, उन्हें किसी को परेशान करने के इस तरह के पाप से चिंतित होना चाहिए। यह नैतिक और सामाजिक दोनों ही रूपों से नींदनीय है। यह सामाजिक और आर्थिक न्याय के कभी ख़िलाफ़ है जो हमारे संविधान की स्थापना का स्तंभ है।"

    राज्य नहीं दे पाया संतोषजनक कारण

    राज्य ने यह माना है कि भुगतान में देरी हुई है पर इसका संतोषजनक कारण नहीं बता पाया है। इसकी आलोचना करते हुए अदालत ने कहा कि प्रतिवादी अथॉरिटीज़ को पूरी मशीनरी और नियमों का सहयोग मिला हुआ है जबकि आम आदमी को इस तरह के सामर्थ्य का मुक़ाबला नहीं कर सकता। इसलिए उन्हें अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करने में सावधान रहने की ज़रूरत है।

    न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा कि अदालत को मनमानी निष्क्रियता और शक्ति के ग़ैरक़ानूनी प्रयोग को रोकना और आम लोगों की मदद अदालत का दायित्व है।

    कोर्ट ने कहा,

    "इसमें कोई संदेह नहीं कि लोक प्रशासन में भारी मात्रा में विवेक के प्रयोग की ज़रूरत होती है और प्रशासनिक अधिकारियों को इसके तहत संरक्षण मिलता है पर जहां यह पाया जाता है कि लालच के कारण ताक़त का उपयोग किया गया है और इसका प्रयोग जायज़ नहीं रहा है तो उस स्थिति में यह अदालत का कर्तव्य है कि वह प्रभावी क़दम उठाए और समय रहते कार्रवाई करे नहीं तो आम लोगों का विश्वास टूट जाएगा।"

    अदालत ने आगे कहा कि भले ही राज्य के अधिकारी के पास ताक़त है पर संप्रभु अधिकार जनता में है।

    अदालत ने कहा,

    "हमारी व्यवस्था में संविधान सर्वप्रमुख है पर वास्तविक सत्ता भारत की जनता के हाथों में है। हमारा संविधान 'लोगों के लिए, लोगों के द्वारा और लोगों का'है। जनता के कार्यकर्ता को तानाशाह बनने की इजाज़त नहीं दी जा सकती कि वह आम लोगों को परेशान करे विशेषकर तब जब जिसे परेशान किया जा रहा है वह उसका अपना कर्मचारी है।"

    अदालत ने इस बारे में लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एमके गुप्ता, जेटी 1993 (6) SC 307 मामले में आए फ़ैसले पर भरोसा किया जिसमें कहा गया है कि किसी सरकारी अधिकारी के उत्पीड़क क़दम के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सकती है।

    अदालत ने कहा,

    "एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहां क़ानून का शासन होता है, सरकार का मलतब बेपरवाह सरकार नहीं होता है। सरकारी नौकर अपने पद पर इस विश्वास के साथ होते हैं और उनसे पूरी ईमानदारी से काम करने की उम्मीद की जाती है ताकि उनकी सक्रियता और निष्क्रियता से किसी आम व्यक्ति को परेशानी नहीं हो।

    जब भी इस अदालत को इस बात का पता चलता है कि सरकार या उसके अधिकारी ने लापरवाही की है…और उनकी वजह से आम लोगों और निस्सहायों को परेशानी हुई है, तो उस स्थिति में यह अदालत कभी मूक दर्शक नहीं बनी रही है और हमेशा ही ऐसे अधिकारियों के ख़िलाफ़ क़ानून के तहत कार्रवाई की है।"

    अदालत ने राज्य मृत कर्मचारी के क़ानूनी वारिश को सभी बकाए का ब्याज के साथ दो महीने के भीतर भुगतान करने को कहा। अदालत ने प्रतिवादी पर ₹20,000 का जुर्माना भी लगाया।

    अदालत ने अपने टिप्पणी में कहा,

    "किसी सरकार को यह स्वतंत्रता नहीं है कि वह किसी निस्सहाय कर्मचारी या उनके वारिशों को लंबी अवधि तक उनके बकाए का भुगतान रोककर परेशान करे और उसके बाद फिर किसी भी दायित्व से बचाने के लिए वह यह कहता फिरे कि अगर वह कोई अनुचित, मनमाना या ग़ैरक़ानूनी काम करता है तो भी उसे कोई छू नहीं सकता। कोई भी अधिकारी भले ही कितना ही ऊँचे पद पर क्यों नहीं हो, उसे यह याद रखना चाहिए कि क़ानून से कोई भी ऊपर नहीं है।"


    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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