आरोप तय करने के चरण में ट्रायल के अंतिम बिंदु लागू नहीं कर सकते : इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
22 Dec 2019 12:45 PM IST
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोहराया है कि आरोप तय करने के प्रारंभिक चरण में अपराध के अंतिम परीक्षण को लागू नहीं किया जाना चाहिए और अदालत को केवल इस मज़बूत संदेह के अस्तित्व से संतुष्ट होना होगा कि अभियुक्त ने अपराध किया है और यदि इसका ट्रायल होता है तो उसे दोषी साबित किया जा सकता है।
एक पुननिरीक्षण याचिका का निपटारा करते हुए न्यायमूर्ति राजीव सिंह ने कहा,
"कानून अच्छी तरह से तय है कि डिस्चार्ज के आवेदन पर विचार करते समय या आरोप तय करते समय न्यायालय को केवल यह पता लगाने के लिए आवश्यक है कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री और साक्ष्य का आकलन यह पता लगाने के लिए किया जाए कि आरोपी के खिलाफ ऐसा प्रथम दृष्टया मामला बनता है, जो अपराध के लिए मजबूत संदेह पैदा करता हो। अगर यह पाया जाता है कि अपराध के कमीशन की सामग्री रिकॉर्ड के आधार पर उपलब्ध है तो अदालत आरोप तय करने के लिए आगे बढ़ेगी। "
पुननिरीक्षण याचिका ओम प्रकाश कपूर द्वारा विशेष न्यायाधीश, भ्रष्टाचार रोधी के आदेश को रद्द करने के लिए दायर की गई थी, जिन्होंने डिस्चार्ज आवेदन खारिज कर दिया गया था।
ओम प्रकाश पर रोटोमैक ग्लोबल प्रा लिमिटेड और बैंक ऑफ बड़ौदा में वरिष्ठ प्रबंधक के रूप में उनकी पोस्टिंग के दौरान पैकिंग क्रेडिट (पीसी) के डिस्बस्मेंट को मंजूरी देने के लिए मेसर्स के निदेशकों से साजिश करने का आरोप लगाया गया था। यह आरोप लगाया गया था कि क्रेडिट रिपोर्ट प्राप्त किए बिना उन पीसी में से 3 के लिए मंजूरी दी गई थी और खराब क्रेडिट रिपोर्ट के बावजूद 3 अन्य पीसी को मंजूरी दी गई थी।
कपूर ने इन आरोपों का इस आधार पर विरोध किया कि प्राथमिकी में उन पर कोई आरोप नहीं लगाया गया था और सीबीआई ने उन्हें कर्तव्य का निर्वहन करने में लापरवाही बरतने के आरोप में गलती से आरोपी ठहराया था। आगे कहा गया कि कथित अपराधों के संबंध में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था और जांच एजेंसी अपनी ओर से बेईमानी का आरोप नहीं लगा सकती। सीके जाफर शरीफ बनाम स्टेट (सीबीआई के माध्यम से), (2013) 1 एससीसी 205 के मामले का उदाहरण दिया गया।
इन सभी दलीलों को खारिज करते हुए अदालत ने कहा,
"डिस्चार्ज के चरण में, अदालत को केवल सामग्री के संभावित मूल्य को जानना आवश्यक है और, यह आशा नहीं की जा सकती कि इस मामले में सामग्री को जानने के लिए गहाई में जाने की आवश्यकता है। डिस्चार्ज के चरण में यह है कि अगर अदालत को पता चलता है कि प्रथम दृष्टया अपराध किया गया है तो वह आरोप तय कर सकती है। " इस मामले में पुलिस विजिलेंस एंड एंटी-करप्शन, तमिलनाडु बनाम एन सुरेश राजन और अन्य के (2014) 11 SCC 709 में विश्वास जताया गया।
न्यायमूर्ति सिंह ने आगे कहा, जहां यह न्यायालय को प्रतीत होता है और जहां इसकी राय में यह मानने के लिए आधार है कि आरोपी ने अपराध किया है, वह आरोप तय करेगा।
अदालत ने अमित कपूर बनाम रमेश चंदर और अन्य (2012) 9 एससीसी 460 में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून का हवाला देते हुए कहा, "अदालत को इस चरण में सबूत से कोई सरोकार नहीं है, केवल यह संदेह मज़बूत होना चाहिए कि आरोपी ने अपराध किया है।"
अदालत ने असीम शरीफ बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी, (2019) 7 एससीसी 149 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले के शब्दों को अंतिम रूप से दोहराया।
"सत्र मामलों में धारा 227 सीआरपीसी (जो कि वारंट मामलों से संबंधित धारा 239 सीआरपीसी से संबंधित है) के तहत आरोप तय करने के सवाल पर विचार करते हुए निस्संदेह उसमें शक्ति है कि यह पता लगाने के सीमित उद्देश्य के लिए सबूतों को खंगाला और तौला जाए कि आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया है या नहीं। जहां अदालत के समक्ष रखी गई सामग्री आरोपी के खिलाफ गंभीर संदेह प्रकट करती है, जिन्हें ठीक से समझाया नहीं गया है, तो ऐसे में अदालत का आरोप तय करने में पूरी तरह से न्यायोचित होगा। "
अदालत ने निर्देश दिया कि
" वर्तमान मामले के तथ्यों पर यह नहीं कहा जा सकता है कि एक प्रथम दृष्टया मामले के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है, जो याचिकाकर्ता के खिलाफ मजबूत संदेह पैदा करता है, जिसके तहत आईपीसी की धारा 420, 467, 468, 471 आईपीसी और धारा 13 (2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13 (1) (डी) के तहत अपराध किया गया है, इसलिए वर्तमान याचिका को खारिज किया जाता है। "
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