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राज्य उपभोक्ता आयोग के एक तरफा आदेश को भी दी जा सकती है चुनौती : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि राज्य उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित एक तरफा आदेश (ex-parte order) को राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के समक्ष चुनौती दी जा सकती है।
इस मामले में (शिउर सखार करखाना प्रा. लिमिटेड बनाम स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना था कि राज्य उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित एक तरफा आदेश के खिलाफ दायर रिट याचिका पर विचार किया जा सकता है। साथ ही कहा कि अधिनियम की धारा 21 के तहत राष्ट्रीय आयोग के समक्ष अपील नहीं हो सकती है, इस वजह से कोई वैकल्पिक उपाय उपलब्ध नहीं था।
अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर विचार किया था कि क्या राष्ट्रीय आयोग के पास इसका अधिकार क्षेत्र है कि वह राज्य आयोग के एक तरफा आदेश को रद्द कर सके?
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम( Consumer Protection Act) की धारा 21 का उल्लेख करते हुए, न्यायमूर्ति मोहन एम. शांतनगौदर और न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा कि-
"अधिनियम की धारा 19, जिसे धारा 21 (ए) ( ii)के साथ पढ़ें, को देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि राष्ट्रीय आयोग के पास राज्य आयोग द्वारा पारित आदेशों के खिलाफ अपील पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र है। धारा 21 (ए) ( ii) में यह नहीं कहा गया है कि अपील उन आदेशों के खिलाफ नहीं की जा सकती है जो एक तरफा पारित किए गए हों।
उक्त प्रावधान का सीधा और सरल अर्थ यह है कि राज्य आयोग द्वारा पारित किसी भी आदेश के खिलाफ दायर अपील पर राष्ट्रीय आयोग द्वारा विचार या सुनवाई की जा सकती है। ''आदेश'' शब्द का उपयोग धारा 21 (ए) ( ii) में किया गया है, जिसका अर्थ है ''कोई भी आदेश।''
इस प्रकार राज्य आयोग के एक आदेश में एक विशेष पार्टी को एक तरफा रखने पर भी राष्ट्रीय आयोग के समक्ष सवाल उठाया जा सकता है।
इस प्रकार, पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट, प्रतिवादी के पास उपलब्ध एक वैकल्पिक और प्रभावकारी उपाय को देखते हुए राज्य आयोग के आदेश के खिलाफ दायर रिट याचिका पर विचार करने से बच सकता था।
अदालत ने कहा,
''एक वैकल्पिक और प्रभावपूर्ण उपाय की उपस्थिति ,संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र को पूरी तरह नहीं रोकता है या पूर्ण बार नहीं है। बल्कि यह कानून के बजाय विवेक और आत्म-सीमित सीमा का नियम है। हालांकि, कुछ मामले में एक रिट पर विचार करना कुछ परिस्थितियों में उचित हो सकता है, उदाहरण के लिए जब प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पूरी तरह उल्लंघन करके एक आदेश पारित किया गया हो, या निरस्त प्रावधानों को लागू करते हुए पारित किया गया हो।''
आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें