मरने से पहले दिया गया बयान सजा का एकमात्र आधार हो सकता, बशर्त यह सच और स्वैच्छिक हो: तेलंगाना हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

16 Feb 2022 5:13 AM GMT

  • मरने से पहले दिया गया बयान सजा का एकमात्र आधार हो सकता, बशर्त यह सच और स्वैच्छिक हो: तेलंगाना हाईकोर्ट

    तेलंगाना हाईकोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि यदि मृतक स्वस्थ मानसिक स्थिति में और स्वेच्छा से बयान देता है तो मरने से पहले दिया गया बयान (डाइंग डिक्लेयरेशन) दोषसिद्धि का एकमात्र आधार हो सकता है।

    मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा ने 'अतबीर बनाम दिल्ली सरकार' मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताया, जिसमें यह फैसला सुनाया गया था कि मरने से पहले दिया गया बयान (मृत्युकालीन घोषणा) सजा का एकमात्र आधार हो सकता है यदि यह न्यायालय के पूर्ण विश्वास को प्रेरित करती है और मृतक बयान देने के समय स्वस्थ मनोस्थिति में था।

    मामले में संक्षिप्त तथ्य

    अभियोजन का मामला यह है कि अपीलकर्ता/अभियुक्त का मृतका के साथ विवाह 2007 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ था। शादी के समय, मृतका के माता-पिता ने दहेज में कुछ मूल्यवान सामान और पैसे दिए थे और कुछ समय बाद में कुछ और देने का वादा किया था।

    अपीलकर्ता/अभियुक्त एक ऑटो रिक्शा चालक के रूप में काम कर रहा था और जब वह वापस आया तो उसने अपनी पत्नी पर मिट्टी का तेल डाला और मारने के इरादे से आग लगा दी। गंभीर रूप से झुलसने से पीड़िता की अस्पताल में मौत हो गई।

    पुलिस ने जांच के बाद आरोप पत्र दाखिल किया और मामले की सुनवाई चल रही थी। चूंकि अधिकांश गवाह मुकर गए थे, दोषसिद्धि पीड़िता की मृत्युकालीन घोषणा पर आधारित थी जो रिकॉर्ड में दर्ज थी। ड्यूटी डॉक्टर ने मरीज की स्थिति को प्रमाणित किया था कि वह उस वक्त होशो-हवाश में थी, जब मृत्युकालीन बयान दर्ज किया गया था।

    मृतका ने स्पष्ट रूप से अपने पति पर आरोप लगाया था और कहा था कि वह उसे मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान करता था और अतिरिक्त दहेज की मांग करता था। इस मृत्युकालीन घोषणा के आधार पर आरोपी को आईपीसी की धारा 302 और 498ए के तहत दोषी ठहराया गया।

    सजा से क्षुब्ध होकर उसने आपराधिक अपील दायर की।

    अभियुक्त के वकील ने तर्क दिया कि दोषसिद्धि केवल मृत्युकालीन-घोषणा पर आधारित नहीं हो सकती। साथ ही मृतका के माता-पिता ने अपीलकर्ता/अभियुक्त को क्लीनचिट दे दी है। परिणामस्वरूप, एकमात्र साक्ष्य, मृत्युकालीन घोषणापत्र को अपीलकर्ता/अभियुक्त को दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता है।

    'रशीद बेग बनाम मध्य प्रदेश सरकार, 1974' मामले में दो मृत्युकालीन घोषणाएँ दर्ज की गईं और बाद की मृत्युकालीन घोषणा में कुछ सुधार किया गया था। नतीजतन, इसमें आरोपी को संदेह का लाभ दिया गया।

    कोर्ट का फैसला

    वर्तमान मामले में, अदालत ने इस निर्विवाद तथ्य को नोट किया कि मृतका की मौत शादी के छह महीने के भीतर हुई थी। इसमें आगे कहा गया है कि मृतका अपनी मृत्यु शय्या पर जले हुए जख्मों के साथ थी और जो मानसिक रूप से स्वस्थ थी, उसने स्पष्ट रूप से अपने पति को दोषी ठहराया था। इस प्रकार, कोर्ट के पास एक युवती के बयान पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है जो मृत्युकालीन घोषणा देते समय होशो-हवाश में थी।

    "यह सच है कि मृतक के माता-पिता ने दहेज की मांग के बारे में आरोप नहीं लगाया है। हालांकि, तथ्य यह है कि मृतका अपनी मृत्यु शय्या पर जलने के जख्मों के साथ और मानसिक रूप से स्वस्थ स्थिति में थी और उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि उसके पति ने उसके ऊपर मिट्टी का तेल डाला और उसे मारने के इरादे से आग लगा दी।"

    कोर्ट ने 'विजय मोहन सिंह बनाम कर्नाटक सरकार, 2019' मामले का हवाला दिया, जिसमें एक व्यक्ति को पूरी तरह से मृत्युकालीन घोषणा के आधार पर धारा 302 और 498A के अंतर्गत अपराध के लिए समान परिस्थितियों में दोषी ठहराया गया था।

    वर्तमान मामले में, न्यायालय ने पाया कि मृत्युकालीन घोषणा सत्य और स्वैच्छिक है, क्योंकि इसे मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया था और डॉक्टर ने इसे प्रमाणित किया था; इसे खारिज करने के कोई ठोस कारण नहीं हैं।

    अतः आपराधिक अपील खारिज की जाती है।

    केस शीर्षक: मंडला मुरली बनाम आंध्र प्रदेश सरकार

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (तेलंगाना) 13

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