[चेक बाउंस] अपराध समाज के खिलाफ नहीं है, एक अभियुक्त शिकायतकर्ता के साथ समझौता करके सज़ा से बच सकता है: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

SPARSH UPADHYAY

14 Aug 2020 10:52 AM GMT

  • [चेक बाउंस] अपराध समाज के खिलाफ नहीं है, एक अभियुक्त शिकायतकर्ता के साथ समझौता करके सज़ा से बच सकता है: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मंगलवार (11 अगस्त) को एक निर्णय सुनाया जिसमें यह कहा गया कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध "समाज के खिलाफ अपराध नहीं है और एक अभियुक्त शिकायतकर्ता के साथ समझौता करके सजा से बच सकता है।

    न्यायमूर्ति सुधीर मित्तल की एकल पीठ, राकेश कुमार द्वारा दायर एक रिवीजन याचिका से निपट रही थी, जिसने शिकायतकर्ता जसबीर सिंह को एक चेक जारी किया, जो बाउंस हो गया।

    मामले की पृष्ठभूमि

    अदालत के समक्ष मौजूद रिवीजन याचिकाकर्ता वह अभियुक्त था, जिसने शिकायतकर्ता ( प्रतिवादी संख्या 1) को 22.4.2006 को एक चेक जारी किया था जो अंततः बाउंस हो गया था। तत्पश्चात, शिकायतकर्ता ने मौजूदा याचिकाकर्ता को नोटिस भेजकर चेक राशि के भुगतान की मांग की, लेकिन उसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। इसलिए, उन्होंने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।

    उक्त शिकायत को खारिज कर दिया गया और याचिकाकर्ता को 25.02.2014 को विचाराधीन फैसले से बरी कर दिया गया। हालाँकि, 20.10.2015 को उक्त निर्णय के खिलाफ अपील की गई और मामले को नए सिरे से सुना गया। पोस्ट रिमांड, 8.7.2016 को सुनाये गए फैसले में याचिकाकर्ता को दोषी ठहराया गया और उसे दो साल की अवधि के लिए कठोर कारावास की सजा सुनाई गई।

    इसके अलावा, उसे चेक की राशि के बराबर मुआवजे का भुगतान करने का भी निर्देश दिया गया था (चेक की तारीख से फैसले की तारीख तक 9% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ)। दोषी ठहराए जाने के फैसले के खिलाफ अपील को 21.8.2019 को रद्द कर दिया गया था, जिसके पश्च्यात वर्तमान रिवीजन याचिका दायर की गयी।

    याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत के समक्ष यह प्रस्तुत किया कि वह वर्तमान रिवीजन याचिका को 'मेरिट' पर दायर नहीं कर रहा है। वास्तव में, याचिकाकर्ता की प्रार्थना, सजा की मात्रा में कमी से संबंधित थी।

    यह प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता एक गरीब व्यक्ति है और लगभग 10 वर्षों की लंबी सुनवाई से गुजर चुका है। इसके अलावा, यह भी तर्क दिया गया कि वह एक वर्ष और 19 दिन की वास्तविक सजा से भी गुज़रा है।

    यह तर्क दिया गया कि यदि इन सभी तथ्यों को संचयी रूप से लिया जाता है, तो इससे याचिकाकर्ता को कुछ हद तक राहत मिलेगी। इस प्रकार, अदालत के समक्ष यह प्रार्थना की गई कि याचिकाकर्ता की सजा को उसके द्वारा पहले ही भुगती गयी सजा तक के लिए घटाया जाए।

    न्यायालय का अवलोकन

    वकील द्वारा प्रस्तुत किए गए सबमिशन को सुनने के बाद, अदालत का विचार यह था कि वर्तमान मामले में विचार के लिए जो एकमात्र सवाल उठता है, वह यह है कि क्या याचिकाकर्ता, राकेश कुमार अपनी सजा को कम कराने के हकदार है।

    न्यायालय ने देखा कि पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का प्रयोग करते समय, उच्च न्यायालय के पास अपीलीय न्यायालय में प्रदत्त सभी शक्तियां हैं, जो धारा 401 (1) Cr.P.C से स्पष्ट है। साथ ही, धारा 386 Cr.P.C. के अनुसार, अपीलीय अदालत में सजा की प्रकृति या सीमा में परिवर्तन करने की शक्तियां होती हैं।

    हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम निर्मला देवी, 2017 (2) आरसीआर (आपराधिक) 613 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक निर्णय का उल्लेख करते हुए, अदालत ने उल्लेख किया कि,

    "यह स्पष्ट है कि दी गयी सजा, किये गए अपराध के अनुसार होनी चाहिए और इसे प्रतिशोध या बहाली जैसे न्यायिक औचित्य के अनुसार दिया जाना चाहिए। तमाम परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।"

    यह ध्यान दिया जा सकता है कि निर्मला देवी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सजा के मुद्दे पर विस्तार से विचार किया था और उसी के बारे में कुछ सिद्धांतों को क्रिस्टलीकृत किया था।

    इसके अलावा, मौजूदा मामले में अदालत ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि धारा 138, जैसे कि यह एक्ट में जोड़ते वक्त थी (1988 के संशोधन अधिनियम 66 द्वारा), इसके अंतर्गत अधिकतम एक वर्ष की सजा या जुर्माना या दोनों दिया जा सकता था।

    अदालत ने आगे यह भी कहा कि 2002 के अधिनियम नंबर 55 में संशोधन करते हुए, अधिकतम सजा को बढ़ाकर दो साल कर दिया गया और अधिनियम में धारा 143 से लेकर धारा 147 को भी जोड़ा गया।

    यह ध्यान दिया जा सकता है कि अधिनियम की धारा 143 में न्यायिक मजिस्ट्रेट, Ist वर्ग या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा समरी परीक्षण के लिए प्रावधान है, बशर्ते एक वर्ष की अधिकतम सजा दोषपूर्ण हो और फाइन Rs.5000 / - से अधिक न हो।

    इसके अतिरिक्त, परीक्षण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए, धारा 144 में स्पीड पोस्ट या स्वीकृत कूरियर सेवाओं द्वारा सम्मन की सेवा प्रदान की जाती है, जबकि धारा 145 में शपथ पत्र पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रावधान है।

    न्यायालय का यह भी मत था कि विधानमंडल की चिंता स्पष्ट है। बैंकिंग लेनदेन में अधिक विश्वास पैदा करने के लिए डाले गए प्रावधानों को अधिक प्रावधानों की आवश्यकता थी ताकि चेक के अनादर से जुड़े मामले कम हो जाएं।

    इसके अलावा, अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 138 के तहत एक सजा देते समय, न्यायालय को अधिनियम में अध्याय XVII को सम्मिलित करने और उसके बाद प्रावधानों को संशोधित करने के साथ ही अधिक कठोर बनाने के विधानमंडल के विचार को ध्यान में रखना चाहिए।

    सबसे महत्वपूर्ण रूप से एकल पीठ ने यह कहा कि,

    "न्यायालय इस तथ्य को भूल नहीं सकता है कि (निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट) अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध प्रकृति में अर्ध-आपराधिक है। अधिनियम की धारा 147, अपराध को दंड प्रक्रिया संहिता 1973 में निहित कुछ भी बात को होते हुए भी उसे संयोजनीय (Compoundable) बनाती है।"

    अंत में, पीठ ने उल्लेख किया,

    याचिकाकर्ता के वकील द्वारा दलील में बताई गई परिस्थितियों, जैसे कि याचिकाकर्ता एक गरीब व्यक्ति है और लगभग 10 वर्षों से एक लंबी सुनवाई के दौर से गुजर रहा है, को ध्यान में रखते हुए, इस प्रकार, रिवीजन याचिका खारिज कर दी जाती है और सजा बरकरार रखी जाती है। हालांकि, ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए मुआवजे के भुगतान के साथ-साथ एक साल और छह महीने की अवधि तक के लिए सजा कम की जाती है।"

    आदेश की कॉपी डाउनलोड करेंं



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