बरी किए जाने के आदेश के ख़िलाफ़ क्या हाईकोर्ट रिविज़नल ज्यूरिडिक्शन का प्रयोग कर सकता है? पढ़िए इलाहाबाद HC ने क्या कहा

LiveLaw News Network

11 Jan 2020 6:30 AM GMT

  • बरी किए जाने के आदेश के ख़िलाफ़ क्या हाईकोर्ट रिविज़नल ज्यूरिडिक्शन का प्रयोग कर सकता है? पढ़िए इलाहाबाद HC ने क्या कहा

    हाल के एक फ़ैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक निजी प्रतिवादी को बरी करते हुए कहा कि जहां निचली अदालत के फ़ैसले को किसी भी तरह से ग़ैरक़ानूनी नहीं कहा जा सकता या जिसमें किसी भी तरह से क्षेत्राधिकार संबंधी ग़लती नहीं है, ऐसे फ़ैसले में हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं है।

    न्यायमूर्ति राज बीर सिंह की एकल पीठ ने कहा कि हाईकोर्ट के रिविज़नल संबंधी क्षेत्राधिकार की परिधि काफ़ी सीमित है और इसका प्रयोग यदाकदा किया जाना चाहिए।

    न्यायमूर्ति सिंह ने वेंकटेशन बनाम रानी एवं अन्य, (2013) 14 SCC 207 मामले में आए फ़ैसले को सही बताया और कहा,

    "निचली अदालत ने बरी करने का जो आदेश जारी किया है वह अपवाद के सिर्फ़ ऐसे मामले तक सीमित है जब यह पता चलता है कि समीक्षा के अंतर्गत जो आदेश दिए गए हैं उसमें क़ानून का पालन नहीं हुआ है या इससे न्याय नहीं दिलाई जा सकी है क्योंकि यह पाया गया कि निचली अदालत को इस मामले की सुनवाई का अधिकार ही नहीं था या जहां निचली अदालत ने उन सबूतों पर ग़ौर ही नहीं किया है जिस पर वैसे ग़ौर किया जाना चाहिए था या फिर ऐसे वास्तविक सबूतों को नज़रंदाज़ किया गया जो मामले का निर्णय कर सकता था।"

    उन्होंने ऐसे मामलों की श्रेणियां गिनाईं जिसमें हाईकोर्ट के हस्तक्षेप को सही ठहराया जाता है, जिसमें बरी किए जाने के फ़ैसले के रिविज़न में हस्तक्षेप किया गया जो इस तरह हैं--

    i. जहां अदालत के पास उस मामले के सुनवाई का कोई अधिकार नहीं है पर इसके बावजूद उसने आरोपी को बरी कर दिया;

    ii. जहाँ निचली अदालत ने ग़लती से ऐसे सबूत पर ग़ौर नहीं किया जिसे अभियोजन पेश करना चाहता था;

    iii. जहाँ अपीली अदालत ने ग़लती से यह कहा है कि निचली अदालत ने जिन सबूतों को स्वीकार किया है उन पर ग़ौर नहीं किया जा सकता;

    iv. जहाँ मटेरियल एविडेन्स को सिर्फ़ (या तो) निचली अदालत या फिर अपीली कोर्ट ने नज़रंदाज़ किया है; और

    v. जहां बरी किया जाना अपराध की कंपाउंडिंग पर आधारित है जो कि क़ानून के तहत अवैध है।

    याचिकाकर्ता ने निजी प्रतिवादी पर आरोप लगाया था कि उसने उसकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना चाहता था और उसे गाली दी थी और जान से मारने की धमकी भी दी।

    यह कहते हुए कि शिकायतकर्ता अपने मामले को संदेह के परे तक साबित करने में विफल रहा है, जज ने कहा,

    "…यह नहीं कहा जा सकता कि निचली अदालत की फ़ाइंडिंग और निष्कर्ष विकृत हैं या ग़ैरक़ानूनी हैं या इसमें क्षेत्राधिकार की कोई ग़लती है। आपराधिक न्याय व्यवस्था के लिए यह महत्त्वपूर्ण बात है कि अभियोजन अपने मामले को संदेह से परे साबित कर दे।

    इन तथ्यों के आलोक में यह फ़ैसला किसी भी तरह ग़ैरक़ानूनी, विकृत या क्षेत्राधिकार की ग़लती से ग्रस्त नहीं है कि उसमें इस अदालत की रिविज़नल क्षेत्राधिकार के हस्तक्षेप की ज़रूरत हो।"

    अदालत ने कहा,

    "सीआरपीसी की धारा 401 के तहत हाईकोर्ट के लिए जो रिविज़नल अधिकार की कल्पना की गई है, वह बहुत ही संकीर्ण है। उसका प्रयोग कभी किसी विशेष मामले में ही हो सकता है, जहां आम न्याय के हित में हस्तक्षेप की ज़रूरत होती है ताकि न्याय दिलाने में की गई ग़लती को ठीक किया जा सके।

    इसका प्रयोग इसलिए नहीं किया जा सकता क्योंकि निचली अदालत ने किसी क़ानून का ग़लत अर्थ लगाया है या पेश किए गए सबूतों को ग़लत पढ़ा है । हाईकोर्ट के रिविज़नल अधिकार का प्रयोग वहां होना चाहिए जहां पर क़ानून की स्पष्ट ग़लती हुई है या कोई भारी प्रक्रियात्मक ग़लती की गई है।"

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




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