उत्तर प्रदेश सार्वजनिक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश 2020 की संवैधानिकता को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती
LiveLaw News Network
17 March 2020 12:14 PM IST
उत्तर प्रदेश सार्वजनिक तथा निजी सम्पत्ति क्षति वसूली अध्यादेश 2020 को मंजूरी दे दी। इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है। अधिवक्ता शशांक त्रिपाठी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि अध्यादेश संविधान के साथ की गई एक शरारत है।
रविवार को जारी अध्यादेश में राजनीतिक जुलूस, प्रदर्शन, हड़ताल, बंद, दंगों और बलवों के दौरान सरकारी एवं निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने पर उपद्रवियों से वसूली के लिए बेहद कड़े प्रावधान किए गए हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार की कैबिनेट ने गत 13 मार्च को इस अध्यादेश प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। राज्य सरकार ने यह फैसला लखनऊ में 19 दिसम्बर को आयोजित सीएए विरोधी प्रदर्शनों में शामिल व्यक्तियों के नाम, फोटो एवं अन्य विवरणों वाली होर्डिंग लगाये जाने के खिलाफ याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी के आलोक में किया है।
याचिकाकर्ता ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अध्यादेश बनाने की शक्ति केवल आपात स्थितियों में ही लागू की जा सकती है, जब सदन सत्र में नहीं हो। उनका तर्क है कि ऐसी कोई आपातकालीन स्थिति नहीं है जो जिससे अध्यादेश को इस तरह जल्दबाजी में बनाया जाए।
याचिका में कहा गया है, "इस तरह के अध्यादेश को पारित करके, कानून के न्यायालय से न्यायोचित ठहराए जाने से बचने के लिए, राज्य ने संविधान के साथ शरारत की है।"
यह भी तर्क दिया जाता है कि संविधान का अनुच्छेद 323 बी, दावा अधिकरण पर विचार नहीं करता है। इसलिए, याचिकाकर्ता ने कहा कि अध्यादेश द्वारा बनाया गया दावा अधिकरण "संविधान द्वारा अनुमोदित नहीं है"।
याचिका को पर 18 मार्च को मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति अजीत कुमार की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया है।
गौरतलब है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया था और होर्डिंग पर इस तरह की जानकारी से उन व्यक्तियों की निजता के अधिकारों के उल्लंघन का हवाला देते हुए उन होर्डिंग को तत्काल हटाने का आदेश दिया था, लेकिन राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के ओदश को चुनौती दी थी, जिसके बाद शीर्ष अदालत की अवकाशकालीन खंडपीठ ने भी इस तरह के कदम को लेकर कड़ी आपत्ति जताते हुए राज्य सरकार से पूछा था कि आखिर उसने ऐसा किस कानून के तहत किया है? हालांकि अवकाशकालीन खंडपीठ ने इस मामले को नियमित बेंच को भेज दिया था।
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