राज्य ने की कोर्ट के स्पष्ट आदेश की अवज्ञा, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने जाहिर की चिंता

LiveLaw News Network

14 Dec 2019 4:00 AM GMT

  • राज्य ने की कोर्ट के स्पष्ट आदेश की अवज्ञा, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने जाहिर की चिंता

    हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक सरकारी अधिकारी के खिलाफ अवमानना नोटिस जारी करने से स्वयं को इसलिए अचानक रोक लिया, क्योंकि वह सेवानिवृत्त हो चुका है। इस अधिकारी ने याचिकाकर्ता के पक्ष में एकल न्यायाधीश के ''स्पष्ट'' निष्कर्षों के बावजूद जन्म की तारीख में सुधार के लिए इस आदमी(याचिकाकर्ता) के प्रतिनिधित्व को खारिज कर दिया था।

    न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान और न्यायमूर्ति चंद्र भूषण बारोवालिया की खंडपीठ ने ट्रिब्यूनल के आदेश के खिलाफ दायर सरकार की अपील को खारिज करते हुए अपनी नाराजगी व्यक्त की। ट्रिब्यूनल ने अपने आदेश में एक व्यक्ति की उस याचिका को स्वीकार कर लिया था, जिसमें उसने अपनी जन्म तिथि सुधारने की मांग की थी।

    याचिकाकर्ता ने अपनी जन्मतिथि में सुधार करके 28 मई, 1957 की बजाय 28 मई, 1958 करने की मांग की थी।

    याचिकाकर्ता ने देरी के बारे में बताया था कि उसे अपनी जन्म तिथि की इस त्रुटि के बारे में अपने पिता की मृत्यु के समय पता चला था, जो सेना में सेवारत थे। सेना के अधिकारियों से एक प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद उसे इस बारे में जानकारी मिली थी।

    न्यायाधीश ने यह माना था कि यद्यपि एक कर्मचारी सेवा में शामिल होने के पांच साल के भीतर जन्मतिथि में सुधार के लिए नियुक्ति प्राधिकारी से संपर्क कर सकता है। इस मामले में, इस अवधि की गणना सरकारी सेवा में आने की तारीख से नहीं बल्कि उसकी जानकारी की तारीख से की जाए, जब उसे जन्म का वर्ष सही ढंग से दर्ज नहीं होने के बारे में पता चला था। अदालत के आदेश के बावजूद, अधिकारियों ने देरी का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता के प्रतिनिधित्व को खारिज कर दिया।

    हाईकोर्ट ने माना कि-

    ''एक बार अगर ऐसा था, तो स्पष्ट रूप से ट्रिब्यूनल के आदेश में कोई दोष नहीं पाया जा सकता है जिसके तहत याचिकाकर्ता के जन्म की तारीख को सही करने का आदेश दिया गया है, खासकर जब याचिकाकर्ता ने अपनी जन्म तिथि के समर्थन में प्राथमिक साक्ष्य पेश किए थे।''

    अतिरिक्त महाधिवक्ता ने एक बार फिर तर्क दिया कि प्रतिवादी का दावा विलंब और कुंडी या लैच द्वारा वर्जित था या रोक दिया गया था। दो

    पीठ ने कहा कि-

    "याचिकाकर्ताओं के लिए अदालत के आदेश पर इस तरह बैठना स्वीकार्य नहीं था और इस तरह का रवैया अदालत की अवमानना के समान है और मनमानी वाला है, क्योंकि अदालत के आदेश की जांच करना कार्यपालिका के लिए संभव नहीं है।

    मामले को निर्णय के लिए याचिकाकर्ताओं को वापस भेज दिया गया था, जिनको केवल मामले के गुणों पर विचार करने की आवश्यकता थी और यह याचिकाकर्ताओं के अधिकारियों के लिए बिल्कुल भी खुला या ओपन नहीं था, कि केवल देरी और लैच या कुंडी के आधार पर मामले को खारिज कर दिया जाए। जबकि पहले ही याचिकाकर्ताओं के खिलाफ वो निष्कर्ष या विष्कर्ष परिणाम एक सदस्यीय पीठ ने दे दिए थे।''

    "वास्तव में, इस तरह का रवैया न्यायालय की अवमानना के समान है और मनमानी वाला है और जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा माना जा चुका है,कि अदालत के आदेश की जांच करने की अनुमति कार्यपालिका को नहीं है।''

    पीठ ने कहा कि,

    ''हम याचिकाकर्ताओं के अधिकारी को अवमानना नोटिस जारी करने में संकोच नहीं करेंगे, जिसने प्रतिनिधित्व पर फैसला किया था, लेकिन हम ऐसा करने से परहेज करते हैं, क्योंकि संबंधित अधिकारी, जैसा कि राज्य द्वारा सूचित किया गया है, वह सेवानिवृत्त को चुका है।''

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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